घर से दूर...!
लेखिका - प्रीतिसेन गुप्ता
हिन्द महासागरशुरू होता हैऔर समाप्त होता है जहांवहां मेरा घर है,जिसे मैं घर गिनती हूं वह हैक्या मेरे लिएबनाया घर है वह?जिस-जिस की गिनतीघर का नामलेते ही कर सकती हूंउनकी हूंकती स्मृतियां हीमेरी सांसों की आजीविकामेरे प्राणों को सींचतीमेरे प्राणों परआशीषों की बौछार करतीऔर इसलिए तो जपती हूंघर के कोने-कोने केनाम की मालादूर से आतीखारी हवा के कणों मेंइसकी चरण रज छूती हूंमोम्बासे के तट खड़ी-खडी।-
नीलम कुलश्रेष्ठ (मूल गुजराती से हिन्दी अनुवाद)