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Written By WD

अर्चना पैन्‍यूली

अर्चना पैन्‍यूली -
WDWD
17 मई, 1963 को कानपुर में जन्म. गढ़वाल विश्वविद्यालय, देहरादून से एमएससी, पचास से अधिक कहानियाँ, लेख, कविताएँ और साक्षात्कार प्रकाशित. 'परिवर्तन' नाम से उपन्यास प्रकाशित। साहित्यिक संस्था, महिला मंच, देहरादून ने साहित्य में योगदान के लिए सम्मानित किया। इंडियन कल्चरल एसोसिएशन कोपनहेगन ने प्रेमचंद पुरस्कार से सम्मानित किया। वर्तमान में आप गेरशोल्म इंटरनेशनल स्कूल, डेनमार्क में अध्‍यापिका हैं। डेनमार्क आने से पूर्व मुंबई में लगभग नौ वर्षों तक शिक्षण कार्य किया।

मैं उन्‍हें पहचान न सकी निशांत ने जब बताया कि उसके रिसर्च डिपार्टमेंट में कोई डॉ. कृष्णन मुंबई से सीनियर एनर्जी प्लानर के पद पर एक वर्ष के लिए आ रहे हैं तो जेहन में खुशी की लहर सी दौड़ गई। निशांत के रिसर्च डिपार्टमेंट में पंद्रह लोग पंद्रह देशों के, मतलब हमारे लिए सभी विदेशी थे। उनसे एक दूरी व हिचक थी, ऐसे में यह पता चलना कि अपना एक भारतवासी उसके दफ्तर में सहकर्ता बनकर आ रहा है तो खुशी होना स्वाभाविक थी। डॉ. कृष्णन के आने में अभी डेढ़ माह का समय था, हम पति-पत्नी के बीच वो चर्चा का विषय बन गई। अक्सर उनकी ईमेल आ जाती। कभी- कभार फोन कर लेते। हमसे शहर, मौसम, डेनिश लोगों के बारे में जानकारी लेते। और भी न जाने क्या-क्या पूछते रहते। नई जगह वो एक नया जीवन शुरू करने आ रहे थे,उनके मन में कौतुकता थी, और हमें उनका डेनमार्क पहुँचने का इंतजार। उनके लिए दो कमरों का एक छोटा- सा फर्निस्ड मकान हमने ही बुक करवाया। वो अकेले ही एक साल के कॉन्ट्रेक्ट पर कोपेनहेगन आ रहे थे। बड़े मकान की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी। उनकी पत्नी मुंबई में एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका थीं, वे साथ नहीं आ रही थी।

जिस दिन डॉ कृष्णन इंडिया से कोपेनहेगन पहुँचे निशांत, मेरा पति, उन्हें कार से एयरपोर्ट लेने गए। शाम का वक्त था, उनका सामान उनके घर पहुँचाकर निशांत उन्हें भोजन के लिए सीधे हमारे घर ले आया। सत्तावन वर्षीय डॉ कृष्णन तमीलियन थे, मगर पिछले तीस सालों से मुंबई में रह रहे थे। वहाँ एक शैक्षिक संस्था में प्रोफेसर थे। उनकी हिंदी में तमिल का पुट था, साथ ही मुंबईया हिंद‍ी का भी प्रभाव था
मैंने व बच्चों ने उन्हें अभिवादन किया। उन्होंने हमें आशीष दिया। वो हमारे लिऐ केले के चिप्स व नारियल की मिठाई लेकर आए थे। जो उन्होंने आते ही बच्चों को पकड़ा दिए। विदेशी प्रचलन के अनुसार हमने कोक, कोला या बाजार में बिकने वाले संघरित जूस के लिए पूछा। उन्होंने मना किया। निशांत ने उन्हें बीयर व व्हिस्की के लिए पूछा मैं कोई मदिरा नहीं लेता, वो बोले 'तो आप क्या लेंगे?' तुम्हारे घर में हरी चाय, पोदिना या मीठी नीम में से कुछ है? मैने व निशांत ने एक दूसरे को देखा 'पोदिना है' मैं बोली तो पोदिने की चाय बना दो पोदिने की चाय?

उन्होंने ही मुझे समझाया कि पोदिने की चाय कैसे बनती हैं। मैं उनके लिए बताए अनुसार उनके लिए उनकी हर्बल चाय बनाकर ले आई ।
सुना है आपकी पत्नी मुंबई में नौकरी करती हैं इसलिए वह आपके साथ नहीं आ पाई। चाय का प्याला उन्हें थमाते हुए मैंने पूछा। नौकरी से तो उन्हें सालभर की छुट्टी मिल सकती है, मगर माँ है मेरी अस्सी साल की। उन्होंने इस उम्र में विदेश आने से इंकार कर दिया सो पत्नी को उनकी देखभाल के लिए उनके पास रूकना पड़ा, वो बोले आपके बच्चे उन्होंने चाय का घूँट भरा, बोले ' बस एक लड़की है। उसकी शादी हो चुकी है। वह पति के साथ अमेरिका में रहती है। माँ की जिम्मेदारी पत्नी पर डालकर यहाँ आ गया हूँ।' फिर मजाक करते हुए से बोले मैं अभी इतना बूढ़ा नहीं हुआ हूँ, यहाँ अकेले रह सकता हूँ, वहाँ माँ अकेली नहीं रह सकती है हम हँसने लगे। साथ में वो भी स्निग्ध व पवित्र हँसी। मैं उन्हें देखती रही। इस उम्र में भी उनके सभी दाँत एकदम पंक्तिबद्ध, श्वेत धवल व स्वस्थ थे।

सहसा उन्होंने अपने होंठ सिकोड़े। गंभीर होकर मेरे पति से बोले 'पर निशांत, मैं यहाँ सिर्फ तुम्हारी वजह से आया हूँ। मुझे जब पता चला कि यहाँ ऑफिस में एक इंडियन भी है तभी मैंने नौकरी का ऑफर स्वीकार किया' हम जिंदगी में एक बदलाव के लिए, नई जगह, नई परिस्थितियों में रहने के लिए अपनी जगह से परदेश आते हैं। मगर परदेश में भी अपनों को ही तलाशते हैं।खैर, रोज ही शाम को जब निशांत ऑफिस से लौटता तो साथ में डॉ. कृष्णन भी होते। वो हमारे साथ चाय पीते, भोजन करते, हमसे बतियाते रहते-बदलते हुए भारत की कई नई बातें हमें बताते -इकोनॉमी ग्रोथ, तकनीकी उत्थान व सामाजिक बदलाव। शुरू में तो मुझे उनका रोज आना अच्छा लगा, लेकिन जब यह एक नियम-सा बन गया तो मुझे अखरने लगा। एक तो वे विशुद्ध शाकाहारी होने के अलावा कितनी ही तरह की सब्जियाँ भी नहीं खाते थे। कहते थे कि लहसुन, प्याज, बैंगन व मशरूम तामसिक हैं। बटर व चीज हाजमे के लिए ठीक नहीं है। फ्रीज में रखी फ्रोजन सब्जियाँ सेहत के लिए अच्छी नहीं डॉ कृष्णन के लिए मुझे एक विशेष प्रकार का भोजन बनाना पड़ता, जो मुझे चिड़चिड़ा देता।

निशांत को डॉ कृष्णन से एक गहरा अपनत्व हो गया था। उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए मुझसे कहता, वे अकेले रहते हैं। इतने जवान भी नहीं रहे। उनके लिए उनकी पसंद का अगर थोड़ा-सा भोजन पका दो तो क्या हो जाएगा खैर, डॉ कृष्णन जितना हमारे घर खाते उसे किसी न किसी रूप में लौटाने की कोशिश करते। कभी चायपत्ती का डिब्बा ले आते, कभी इंडियन दुकान से ताजी तरकारियाँ, तो कभी बासमती चावल का पाँच किलो का पैकेट ही तोहफे में दे देते, कभी बच्चों को उनकी पसंद के गिफ्ट दे देते।

डॉ कृष्णन अक्सर एक बात कहते ' सबसे अधिक साधन-संपन्न युक्त प्राणीजगत का मनुष्य होता है। एक इंसान दूसरे इंसान की मदद लिए बगैर जी ही नहीं सकता। अत: हमें सभी से अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश करनी चाहिए। न जाने कौन किस रूप में, कब काम आ जाए।
हम छ: सालों से कोपेनहेगन में रह रहे थे, मगर डॉ कृष्णन को छ: हफ्तों में ही कोपेनहेगन में बसे भारतीयों के विषय में हमसे ज्यादा जानकारी हो गई। उन्हें एक तमिल संस्था के बारे में जानकारी हो गई। वो उसके सदस्य बन गए। समय-समय पर संस्था के होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। उनके कई तमिल मित्र बन गए। उनका हमारे घर आना क्रमश: कम होता गया। मैंने महसूस किया कि पहले मुझे उनका रोज अपने घर आना अखरता था और अब न आना अखरने लगा था

इंडियंस चाहे कहीं भी चले जाएँ, वे मद्रासी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी ही बने रहेंगे। एक दिन मैं निशांत से उलाहना से बोली 'केवल हिंदुस्तानी तो वे बनना ही नहीं चाहते। डॉ कृष्णन को लो, कितने पढ़े-लिखे इंसान हैं, लेकिन आते ही अपने मद्रासियों से जुड़ गए। उन्हीं के साथ ही उठने-बैठने लगे हैं। डॉ कृष्णन के ऑफिस के लोगो से भी बहुत अच्छे संबंध थे निशांत बोला मार्या तो उन्हें बहुत पसंद करती थी

मार्या बेचारी निशांत की सहकर्मी, पैंतालीस वर्षीया चार बच्चों की माँ, एक लड़का अपाहिज, आजकल पति से ऐसका तलाक चल रहा, वह एक थकी हुई औरत, जिंदगी के बोझों ने उसकी मनस्थिति को बहुत बिगाड़ दिया था। डॉ कृष्णन उससे बतियाते रहते होंगे, उसका मन बहल जाता होगा, इसलिए यह उन्हें पसंद करती होगी 'ये विदेशी लोग विवाह की वचनबद्धता निभाना ही नहीं जानते' डॉ कृष्णन अक्सर गोरे विदेशियों को कोसा करते। उन कारणों से तलाक ले लेते हैं, जो हमारी नजर में एकदम तुच्छ होते हैं मैं इनकी संस्कृति का अध्ययन करता रहता हूँ, बड़ी खोखली है इनकी संस्कृति। हमारी संस्कृति सबसे अच्छी है

मुझे लगता कि डॉ कृष्णन को भारतीय होने का बड़ा अभिमान है, साथ ही एक हिन्दू होने का, एक तमिल होने का और एक ब्राहमण जाति का होने का तो उन्हें जबरदस्त अभिमान है। बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति थी उनकी, रोज सुबह चार बजे उठकर वो दो घंटों तक पूजा में लिप्त रहते। अपने माथे पर हमेशा चंदन, जिसे वो इंडिया से लाए थे, घिसकर लंबा सा टीका लगाए रखते। लोग जब कौतुकता से टीके के विषय में पूछते तो आनंदित होकर हिंदू धर्म नियमों का बखान शुरू कर देते। गर्मियों के मौसम में अपनी सफेद धोती पहनकर ही सड़कों पर चले जाते। खाना खाने से पहले वह अपनी कमीज के भीतर हाथ डालकर अपना जनेऊ पकड़ते और आँखे मूँदे कुछ मंत्र बुदबुदाते। यह वह विदेशियों के बीच भी करने से कतराते नहीं थे। विदेशी उन्हें हैरत से देखते। मुझे उनके इन आचार विचारों से बड़ी कोफ्त होती थीँ उनके व्यवहार से मुझे हमेशा एक कट्टरपंथी की बू महसूस होती थी।

ऐसे लोगो को इंडिया से बाहर नहीं आना चाहिए मैं निशांत से बोली थी। जब वे अपने आप को नहीं बदल सकते तो नए तौर-तरीके नहीं अपना सकते तो उन्हें अपनी जगह ही बने रहना चाहिए।

एक दिन मैंने अचानक सुना कि डॉ कृष्णन का लड़का इंडिया से आ रहा है। मैं थोड़ा आश्चर्य से भर गई, क्योंकि डॉ कृष्णन ने बताया था कि उनकी सिर्फ एक लड़की है, जो शादीशुदा है और अमेरिका में अपने पति के साथ रहती है। उनका लड़का कहाँ से आ गया? मैंने निशांत से पूछा। वह उनका अपना लड़का नहीं है। डॉ कृष्णन ने उसे सिर्फ पढ़ाया-लिखाया है, निशांत ने जवाब दिया।

डॉ कृष्णन का कोपेनहेगन में अपना एक बड़ा तमिल समुदाय था। ऑपिस के सहकर्ताओं से जहाँ हमारे औपचारिक संबंध थे, उनके बड़े अंतरंग बन गए थे। मगर उन्हें जब भी कोई जरूरत पड़ती, किसी काम से जाना पड़ता तो मेरा पति ही उन्हें नजर आता। उनके तथाकथित लड़के को एयरपोर्ट से लाने के लिए निशांत ही अपनी गाड़ी में उनके साथ गया।