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शिव मंदिर : थाईलैंड- कंबोडिया में टकराव

- मधुसूदन आनन्द

शिव मंदिर : थाईलैंड- कंबोडिया में टकराव -
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मंदिर और मस्जिद को लेकर हमेशा से टकराव होते रहे हैं-कभी आस्था को लेकर तो कभी राष्ट्रीयता को लेकर और कभी-कभी तो शुद्ध राजनीतिक कारणों से। दक्षिण-पूर्व एशिया के दो पड़ोसी देशों-थाईलैंड और कंबोडिया के बीच एक प्राचीन शिव मंदिर को लेकर फौजी टकराव तक का होना उसी सिलसिले की एक कड़ी है।

हम भारतवासी इस बात के साक्षी रहे हैं कि मंदिर और मस्जिद को लेकर हमारे देश में कैसी हिंसक झड़पें होती रहती हैं। आज भी यह तय होना शेष है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वस्त ढाँचे की जगह क्या सचमुच कभी कोई राम मंदिर था या नहीं। यहूदियों और मुसलमानों के बीच येरुश्लम के धार्मिक स्थलों को लेकर आज भी टकराव है। कुछ विवाद आस्था के हैं, कुछ राष्ट्रीयता के तो कुछ सिर्फ राजनीतिक।

मगर दक्षिण-पूर्व एशिया के दो पड़ोसी देशों 'थाईलैंड और कंबोडिया' के बीच एक प्राचीन शिव मंदिर को लेकर दोनों देशों की फौजों में खूनी झड़पें हुई हैं और आज भी वे आमने-सामने खड़ी हैं तो उसका कारण कुछ और है। खमेर शासकों ने 11वीं शताब्दी में हिंदू देवता शिव के सम्मान में यह ऐतिहासिक मंदिर बनवाया था। प्रेह विहार नामक यह मंदिर कंबोडिया और थाईलैंड की सीमा पर पड़ता है। प्रेह विहार कंबोडिया के उस प्रांत का भी नाम है, जिसमें कभी भव्य रहा यह मंदिर स्थित है।

खमेर शासकों ने अपने 6 शताब्दियों तक चले लंबे शासन के दौरान अनेक मंदिर बनवाए मगर प्रेह विहार मंदिर इनमें अप्रतिम माना जाता है। परवर्ती राजा इस मंदिर में समय-समय पर परिवर्तन करते गए इसलिए इस मंदिर में अनेक वास्तु शैलियों का प्रभाव देखा जा सकता है। मंदिर एक पहाड़ी पर स्थित है जो कंबोडिया और थाईलैंड दोनों की ही सीमा में फैली हुई है। विभिन्न कालखंडों में कभी कंबोडिया का तो कभी थाईलैंड का इस पहाड़ी पर कब्जा रहा।

कंबोडिया को 1953 में फ्रांस से आजादी मिली जिसके बाद इस मंदिर पर दावेदारी को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद शुरू हो गया। आधुनिक काल में बाहरी देशों के पुरातत्वविदों ने इसे खोज निकाला था और तब दुनिया को इसके ऐतिहासिक महत्व का पता चला था। दोनों देशों के अपने-अपने दावे रहे। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मामला गया जिसने पुराने नक्शों के आधार पर कंबोडिया के पक्ष में 1962 में फैसला दिया मगर न्यायालय ने इस मंदिर के विस्तृत अहाते के बारे में कुछ भी नहीं कहा, जिस पर थाईलैंड का नियंत्रण था। इसलिए थाईलैंड ने इस मंदिर पर अपना दावा कभी भी नहीं छोड़ा। यह अलग बात है कि दोनों देशों में से किसी ने भी इस धरोहर का रखरखाव नहीं किया।

2008 में यूनेस्को ने इस मंदिर को विश्व धरोहर का दर्जा दे दिया, जिसके बाद दोनों देशों में टकराव बढ़ गया। इससे पहले 2003 में कंबोडिया ने इस मंदिर तक पहुँचने के लिए अपनी तरफ से पक्की सड़क बना ली थी और फिर इसे पर्यटकों के लिए खोल दिया गया था। कंबोडिया के खमेर रूज और वियतनाम की सेनाओं के बीच युद्ध के चलते इस इलाके में जगह-जगह लैंड माइंस या बारूदी सुरंगें बिछा दी गई थीं, इसलिए कोई इस उजाड़ में जाने की हिम्मत भी नहीं करता था। आज भी इस इलाके में दूर-दूर तक छितरी हुई आबादी ही दिखाई देती है। दूर-दूर दो-दो चार-चार घर। इसका कारण शायद यह है कि यहाँ रह-रहकर लड़ाई भड़क उठती है। अक्टूबर 2008, अप्रैल 2009 और फरवरी 2010 के बाद इस साल 4 फरवरी को दोनों देशों के बीच फिर लड़ाई भड़क उठी जिसमें दोनों देशों ने तोपों का इस्तेमाल किया।

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कंबोडिया ने बाकायदा पत्र लिखकर संयुक्त राष्ट्र संघ में शिकायत भी की। दोनों ही देशों को जान-माल की हानि भी उठानी पड़ी। इस स्थल को लेकर पूरा कंबोडिया एकजुट है क्योंकि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उसके खमेर राजाओं ने ही इस मंदिर का निर्माण कराया था जबकि थाई राजाओं ने हमले करके कंबोडिया की राजधानी अंकोर वाट और उसके ऐतिहासिक मंदिर को तीन बार लूटा था।
1980 और 1990 के दशक में कंबोडिया में लंबा गृह युद्ध चला जबकि उससे पहले पॉल पोट और खिऊ संफान जैसे उसके क्रूर शासकों ने पत्थरयुगीन साम्यवाद की स्थापना की थी जिसमें वर्ग-शत्रुओं के नाम पर लाखों लोगों का सफाया कर दिया गया था।
कंबोडिया को अपनी दरारों से बाहर निकलने की फुर्सत ही नहीं थी और वह युद्ध से पूरी तरह जर्जर हो गया था। मगर आज इस मंदिर को लेकर पूरा देश एक है। उसका सीधा सा तर्क है कि मंदिर हमारे पूर्वजों ने बनवाया था, इसलिए हमारा है और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने भी इसे हमारा ही माना है, इसलिए इस पर कोई भी समझौता नहीं हो सकता।

हाँ, इस मंदिर के आसपास के जिस अहाते और 4.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लेकर सीमा विवाद है, उसे नो मेंस लैंड (किसी की भी जमीन नहीं) माना जा सकता है। कंबोडिया की हथियारबंद फौजें मंदिर की रक्षा के लिए तैनात हैं।

कंबोडिया और थाईलैंड दोनों ही बौद्ध देश हैं। दोनों की ही करीब-करीब 95 प्रतिशत आबादी बौद्ध है। जाहिर है, इस मंदिर में कोई पूजा-अर्चना नहीं होती। यह माना जाता है कि थाई लोग इसकी मूर्तियाँ वगैरह भी उठाकर ले गए थे। किसी भी देश के लिए यह मुद्दा आस्था का मुद्दा नहीं है। थाईलैंड के लिए मुद्दा सीमा विवाद का है तो कंबोडिया के लिए यह मुद्दा उसकी संस्कृति और इतिहास से जुड़ा है। भारत के धर्म और संस्कृति का प्रभाव समूचे दक्षिण-पूर्व एशिया पर बहुत गहरा रहा है। कंबोडिया में अगर हिंदू मंदिर थे तो थाईलैंड में तो आज भी वहाँ के राजा को राम कहा जाता है। वर्तमान राजा को नौवें राम के रूप में जाना जाता है।

थाईलैंड की अपनी रामायण भी है। भारतीयों की ही तरह थाईलैंड के लोग भी हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। लेकिन आज दोनों ही देशों की संस्कृति पर बौद्ध धर्म का ही वर्चस्व है। कंबोडिया के मुकाबले थाईलैंड कहीं बड़ा और समृद्ध देश है। सैन्य और आर्थिक ताकत में भी कंबोडिया का थाईलैंड से कोई मुकाबला नहीं है। इसलिए कंबोडिया ने इस बार लड़ाई के बाद खुद ही युद्धविराम की एकतरफा घोषणा कर दी और इसे स्थायी युद्धविराम बनाने की बात भी कही।