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Written By WD

मृगनाभ्यादि वटी

मृगनाभ्यादि वटी -
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हमारे शरीर के कार्यकलाप की स्थिति एक व्यापारिक संस्था की तरह ही है। जैसे व्यापार में आय अच्छी हो तो संस्था फलती-फूलती और सक्षम होती है और आय कम व खर्च ज्यादा हो तो संस्था घाटे में उतर जाती है वैसे ही शरीर को पोषण अच्छा मिले और शक्ति कम खर्च हो तो शरीर पुष्ट और सशक्त रहता है और पोषण से यदि शोषण ज्यादा हो तो शरीर निर्बल तथा असमर्थ होने लगता है। शीतकाल में शरीर को पोषण और शक्ति प्रदान करने के लिए सेवन योग्य एक उत्तम वाजीकारक योग के विषय में विवरण प्रस्तुत है। विवाहित स्त्री-पुरुषों को इस योग का सेवन कर लाभ उठाना चाहिए।

घटक द्रव्य- कस्तूरी 2 ग्राम, केसर 4 ग्राम, छोटी इलायची के दाने 5 ग्राम, जायफल 6 ग्राम, बंसलोचन 7 ग्राम, जावित्री 8 ग्राम, सोने के वर्क 1 ग्राम और चाँदी के वर्क 3 ग्राम, मुक्ता पिष्टी 4 ग्राम- कुल वजन 40 ग्राम।

निर्माण विधि- कस्तूरी, केसर, सोने, चाँदी के वर्क और मुक्ता पिष्टी अलग रखकर शेष सब द्रव्यों को खूब कूट-पीसकर महीन चूर्ण कर लें और कस्तूरी-केसर आदि द्रव्यों को अलग खरल में घोंटकर यह चूर्ण डालकर नागर पान का रस छिड़कते हुए घुटाई करें। यह घुटाई 36 घंटे होनी चाहिए, जितने भी दिन में हो। घुटाई करके रत्ती-रत्ती भर की 320 गोली बना लें व छाया में सुखाकर शीशी में भर लें।

मात्रा और सेवन विधि- एक या दो गोली सुबह-शाम एक गिलास मीठे दूध या थोड़ी मलाई के साथ पूरी गोलियाँ सेवन कर डालें।

उपयोग- इस योग का उपयोग सामान्य स्वस्थ व्यक्ति भी कर सकता है और यौन-दौर्बल्य, मानसिक एवं स्नायविक दौर्बल्य तथा शारीरिक निर्बलता से ग्रस्त व्यक्ति भी कर सकता है। यह योग स्त्री-पुरुषों के लिए समान रूप से उपयोगी है, पर यौनशक्ति और सामर्थ्य के मामले में पुरुषों के लिए विशेष रूप से, सिर्फ उपयोगी ही नहीं, बल्कि आयुर्वेद का एक वरदान ही है। यौन विकारों को नष्ट करने के लिए यह योग अति उत्तम है। वीर्यस्राव (धात जाना), स्वप्नदोष, धातुक्षीणता, शीघ्रपतन, ध्वजभंग (नपुंसकता) जैसे दोष दूर कर यौनशक्ति बढ़ाने के अलावा प्रमेह, क्षय, श्वास रोग तथा मंदाग्नि दूर कर शारीरिक बल, बुद्धिबल, स्मरणशक्ति और वीर्य की वृद्धि करने वाला यह योग शरीर को निरोग रखता है और आयु की वृद्धि करता है।

मृगनाभ्यादि वटी रक्तवाहिनी और वातवाहिनी दोनों नाड़ियों पर प्रभाव कर लाभ पहुँचाती है। इस वटी में शीतवीर्य द्रव्यों की प्रधानता होने से उष्ण प्रकृति के स्त्री-पुरुष ग्रीष्म ऋतु में भी इस योग का सेवन निर्भयतापूर्वक कर सकते हैं।

पुरुष वर्ग- गर्म प्रकृति के और तेज मिर्च-मसाले वाले, खट्टे, चटपटे पदार्थों के सेवन करने, मद्य-माँस के सेवन करने और स्त्री-सहवास में अधिकता करने के परिणामस्वरूप आई नपुंसकता और वीर्य की उष्णता व तरलता, बार-बार स्वप्नदोष होने से उत्पन्न हुई निस्तेजता व उदासीनता, शारीरिक धातुओं की क्षीणता, थोड़े से श्रम से ही थकावट होना आदि दूर करने के लिए यह वटी लाजवाब है।

सुजाक, उपदंश या पित्त प्रकोप के कारण पीले रंग का पेशाब बार-बार और थोड़ी-थोड़ी मात्रा में होना, आँखों में जलन, सिर में भारीपन, चक्कर आना, तन्द्रा व आलस्य बना रहना, पाचनशक्ति की कमी और चेहरे की निस्तेजता आदि दोष पूर करने में यह योग अव्यर्थ है। यह योग उपदंश, सुजाक और मधुमेह के रोगी के लिए बहुत लाभप्रद है।

अण्डकोष और शुक्राशय की वातवाहिनियों या सूक्ष्म रक्तवाहिनियों में विकृति होने से उत्पन्न हुई नपुंसकता इस योग के प्रयोग से दूर हो जाती है। इसके सेवन से वीर्य की अशुद्धि, उष्णता व तरलता दूर होती है और वीर्य शुद्ध, शीतल एवं गाढ़ा होता है, जिससे सहवास के समय स्तम्भन अवधि बढ़ती है और शीघ्रपतन की स्थिति समाप्त हो जाती है।

स्त्री वर्ग- इस वटी के सेवन से गर्भाशय और प्रजनन प्रक्रिया संस्थान को बल मिलता है, शरीर पुष्ट और सुडौल बनता है, चेहरा तेजस्वी और दमदमाता हुआ रहता है और शरीर में जल्दी थकावट नहीं आती। स्नायविक दौर्बल्य दूर होता है, मानसिक शक्ति बढ़ती है तथा शरीर चुस्त-दुरुस्त बना रहता है। यदि स्त्री शिशु को दूध पिलाती हो तो शिशु भी इस योग के गुण लाभ से लाभान्वित होगा, इसलिए नवप्रसूता महिलाओं को 2-3 माह इस योग का प्रयोग करना चाहिए। प्रौढ़ आयु की तरफ बढ़ रही महिलाएँ यदि इस वटी का सेवन करें तो प्रौढ़ता के लक्षण दूर होंगे, उनका शरीर देर तक युवा बना रहेगा और चेहरा कान्तिपूर्ण बना रहेगा।

मानसिक तनाव, अवसाद या आघात से उत्पन्न मानसिक दुर्बलता, मादक द्रव्यों के सेवन से उत्पन्न निर्बलता, निद्रानाश, स्मरणशक्ति की कमी, मन में कुविचार और आशंका का भाव आना, उदासीनता, अरुचि, उच्चाटन और मलावरोध होना आदि दोष दूर करने के लिए इस योग का प्रयोग करना अति उत्तम है। यह योग आयुर्वेदिक औषधि निर्माता कम्पनियों द्वारा बनाया हुआ इसी नाम से बाजार में दवा की दुकानों पर मिलता है।