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Written By भाषा

अँगरेजी ताबूत में आखिरी कील था 'भारत छोड़ो'

अगस्त क्रांति दिवस पर विशेष

अँगरेजी ताबूत में आखिरी कील था ''भारत छोड़ो'' -
अँगरेजों के भारत से भागने की कोई उम्मीद न देख महात्मा गाँधी ने 'करो या मरो' के नारे के साथ अगस्त 1942 में 'अँगरेजों भारत छोड़ो' आंदोलन के नाम से आजादी की अंतिम और निर्णायक लड़ाई छेड़ने का आह्वान किया, जिसने अंग्रेजों की नींव हिलाकर रख दी।

अगस्त की यह क्रांति लगभग तीन साल तक चलती रही, जिससे ब्रितानिया हुकूमत भारत में आर्थिक रूप से कमजोर हो गई और उसे यह अहसास भी हो गया कि हिन्दुस्तान में उसके दिन अब गिनती के बचे हैं।

इतिहासकार वीरेंद्र शरण के अनुसार नौ अगस्त 1942 से शुरू हुए इस आंदोलन का असर जलजले जैसा था, क्योंकि गाँधीजी के आह्वान पर हर भारतवासी स्वतंत्रता की जंग में कूद पड़ा।

बात आठ अगस्त 1942 की है, जब गाँधीजी के आह्वान पर कांग्रेस के मुम्बई सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। गाँधीजी ने क्योंकि इसे आजादी की अंतिम लड़ाई बताया था, इसलिए उन्हें इस बात का अहसास था कि गोरी सरकार आंदोलन शुरू होने से पहले ही सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लेगी, इसलिए उन्होंने देशवासियों से यह कह दिया कि आज से हर आदमी अपना नेता खुद है और वह शांतिपूर्ण तरीके से अपने हिसाब से आजादी की लड़ाई लड़े।

गाँधीजी का अनुमान सही निकला और उन्हें तथा कांग्रेस के अन्य सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। आंदोलन की शुरुआत नौ अगस्त से होना थी, लेकिन बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों के चलते लोगों का नेतृत्व करने के लिए कोई बड़ा नेता नहीं बचा। गाँधीजी को पुणे के 'आगा खान पैलेस' में कैद कर दिया गया।

ऐसे में अरुणा आसफ अली ने गजब का साहस दिखाया और नौ अगस्त के दिन उन्होंने भीड़ का नेतृत्व करते हुए मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहराकर अँगरेजों को खुली चुनौती दे डाली। इस मैदान को अब 'अगस्त क्रांति मैदान' के नाम से जाना जाता है।

नेताओं की गिरफ्तारी से पूरे देश में आजादी की ख्वाहिश का जलजला उठा और महात्मा गाँधी द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन चलाने के आह्वान के बावजूद देश के कई भागों में अँगरेजों के खिलाफ हिंसा भड़क उठी।

बहुत से सरकारी प्रतिष्ठानों को आग के हवाले कर दिया गया और देशव्यापी हड़ताल के चलते विद्युत संचार तथा परिवहन व्यवस्थाएँ बुरी तरह चरमरा गईं। उत्तरप्रदेश के बलिया में लोगों ने जिला प्रशासन को उखाड़ फेंका और जेल तोड़कर गिरफ्तार किए गए आजादी के मतवालों को मुक्त करा लिया।

दूसरी ओर अँगरेजों का दमन चक्र भी पूरी ताकत से चला और देशभर में कम से कम एक लाख गिरफ्तारियों के साथ ही आजादी के सैकड़ों दीवानों को गोलियों से भून दिया गया। इसके बावजूद आंदोलन तूफान की तरह जारी रहा। भूमिगत हुए नेता गुप्त रेडियो स्टेशनों से लोगों के दिलों में आजादी की उमंग भरते रहे।

नौ अगस्त 1942 से शुरू हुआ भारत छोड़ो आंदोलन तीन साल तक अनवरत चलता रहा। इस दौरान जेल में गाँधीजी का स्वास्थ्य काफी खराब हो गया और उनकी पत्नी कस्तूरबा गाँधी तथा निजी सचिव माधव देसाई भी चल बसे, लेकिन इसके बावजूद वे नहीं झुके। इस अवधि में उन्होंने 21 दिन का अनशन रखा।

अँगरेज आंदोलन को दबाने के उद्देश्य से गाँधीजी और अन्य नेताओं को दक्षिण अफ्रीका तथा यमन की जेलों में भेजना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह डर भी था कि कहीं ऐसा करने से विद्रोह और अधिक न भड़क उठे, इसलिए वे अपनी इस योजना को अंजाम नहीं दे पाए।

वर्ष 1944 में गाँधीजी को रिहा कर दिया गया और धीरे-धीरे भारत छोड़ो आंदोलन की चिंगारी भी थम गई। कुछ इतिहासकार इस आंदोलन को असफल कहते हैं, लेकिन फिर भी अगस्त की यह क्रांति अँगरेजों की कमर तोड़ने में कामयाब रही।

भारत छोड़ो आंदोलन नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व वाली आजाद हिन्द फौज के हमले द्वितीय विश्व युद्ध और 1946 के नौसैनिक विद्रोह जैसी परिस्थितियों ने अँगरेजों को बुरी तरह से तोड़कर रख दिया और अंततः उन्हें भारत छोड़ने की घोषणा करना पड़ी।

भारत छोड़ो आंदोलन का शुरुआती दिन होने के कारण नौ अगस्त के दिन को अगस्त क्रांति दिवस के नाम से जाना जाता है।