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Written By WD

मध्यप्रदेश चुनाव : हारेंगे या हराएंगे!

-अनिल सौमित्र

मध्यप्रदेश चुनाव : हारेंगे या हराएंगे! -
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बात अजीब-सी है, लेकिन सच है। मामला मध्यप्रदेश भाजपा से संबंधित है। विधानसभा चुनाव के महज 3 हफ्ते ही बचे हैं, लेकिन पार्टी में असंतोष, बगावत और विरोध अपने चरम पर है।

भाजपा के नेता अपनी-अपनी दावेदारी के लिए नेताओं, खासकर प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर, संगठन महामंत्री अरविंद मेनन और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दरवाजों पर लगातार, अहर्निश दस्तक दे रहे हैं। वर्तमान विधायकों के विरोधी भी दल-बल के साथ अपना असंतोष व्यक्त कर रहे हैं।

इस विरोध और असंतोष में अनुशासन और मर्यादा नदारद है। विधायकी का टिकट पाने के लिए दावेदार किसी भी हद तक जाने को तैयार है। भले ही दल में दल-दल हो जाए, दल में दरार पड़ जाए। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतारू हैं।

इस बीच भाजपा ने अपने सारे नीति-नियमों को ताक पर रख एक ही कसौटी रखा है- टिकट उसे ही मिलेगा, जो जीत सकेगा अर्थात पार्टी की एकमात्र कसौटी है जिताऊपन हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता जरूर संतान-मोह से ग्रस्त होकर धृतराष्ट्र की तरह व्यवहार कर रहे हैं। संगठन और विचारधारा पर उनका संतान-मोह हावी हो गया है। इस मामले में कई नेता मानसिक संकीर्णताओं से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं।

यह सच है कि पार्टी में सबकुछ तिकड़ी कहे जाने वाले चौहान, तोमर और मेनन के इर्द-गिर्द सिमट गया है बाकी नेता या तो उपेक्षित हैं या असंतुष्ट। पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष साध्वी उमाश्री भारती की उपेक्षा और उनका असंतोष भाजपा के लिए महंगा सिद्ध हो सकता है। ऐसे ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और वर्तमान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा की उपेक्षा संगठन के नुकसान की कीमत पर की जा रही है।

पार्टी में प्रदेशव्यापी असंतोष और बगावत को शांत करने के लिए पूर्व संगठन महामंत्री माखन सिंह चौहान और सह-संगठन मंत्री रहे भागवत शरण माथुर को मोर्चे पर लगाया गया है, लेकिन वे मोर्चे पर तब आए हैं, जब समस्याएं फैल चुकी हैं।

सच बात तो यह है कि उनके पास असंतोष और बगावत से निपटने के लिए न तो अधिकार है और न ही कोई साजो-सामान! दोनों के मन में संगठन से बेदखली की टीस जरूर है। इस टीस को लेकर वे बगावत प्रबंधन में कितने सफल हो पाएंगे, यह तो समय ही बताएगा।

क्या कर सकते हैं उमा और प्रभात झा... पढ़ें अगले पेज पर...


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ऐसे ही उमाश्री भारती और प्रभात झा भी बहुत कुछ कर सकते हैं, बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन फिलहाल प्रदेश भाजपा उनको इसकी इजाजत नहीं देता। संभव है आने वाले दिनों में दोनों अपनी-अपनी शर्तों पर सक्रिय हों भी, लेकिन तब तक समय और परिस्थितियां उनकी जद से बाहर जा चुकी होंगी! तब वे चाहकर भी कुछ नहीं पाएंगे।

इन सबके बीच जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो है भाजपा प्रत्याशियों की दावेदारी। दावेदारों का हुजूम अपने-अपने क्षेत्रों को छोड़ भोपाल में भाजपा कार्यालय, प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के बंगले पर नजरें गराए, डेरा डाले बैठा है।

दावेदारों के समर्थक और विरोधी एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। हर दावेदार स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य को निकृष्ट सिद्ध करने में लगा है। हर दावेदार अपने को लायक और अन्य को नालायक बता रहा है। वर्तमान विधायकों और मंत्रियों में से अनेक के खिलाफ उनके क्षेत्र में हारने लायक माहौल तैयार है।

मध्यप्रदेश भाजपा के लिए सबसे बड़ा खतरा विधायकों और मंत्रियों के प्रति पैदा हुई सत्ता-विरोधी भावना है। ऐसे तकरीबन 60-70 विधायक हैं जिनका हारना तय है। पार्टी के तमाम सर्वे, संघ का फीडबैक, खुफिया और मीडिया रिपोर्ट इन विधायकों के खिलाफ है।

यही कारण है की भाजपा के रणनीतिकारों ने इन विधायकों को टिकट न देने और किसी कारण से टिकट काटना संभव न होने पर क्षेत्र बदलने का नीतिगत फैसला किया है, लेकिन इस फैसले को लागू करने में पार्टी के प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व को पसीना छूट रहा है।

ऐसे 50 से अधिक विधायकों को लेकर पार्टी की हालत यह हो गई है कि या तो हारेंगे या हराएंगे। मतलब साफ है पार्टी ने इन्हें टिकट दिया तो ये हार जाएंगे, अगर नहीं दिया तो ये हरा देंगे।

पार्टी की स्थिति सांप-छछूंदर की-सी हो गई है। ये हारने-हराने वाले पार्टी के गले में अटक गए हैं। भाजपा ने इसे ही 'डैमेज-कंट्रोल' का नाम दिया है। भाजपा इसी डैमेज कंट्रोल में चोट खाए नेताओं को लगाने वाली है।

भाजपा दोहरे संकट में है। जिस विधानसभा में जीत पक्की है वहां दावेदारों की संख्या परेशानी का सबब है। जहां वर्तमान विधायक की हालत पतली है लेकिन नए चहरे को सफलता मिल सकती है, वहां विधायक अपनी दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं है।

इसलिए फेल हो रहा है भाजपा का तंत्र... पढ़ें अगले पेज पर...


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दावेदार धमकी, भयादोहन और विद्रोह की चाल चल रहे हैं। तवज्जो न दिए जाने से तिलमिलाए नेताओं ने अपने समर्थकों को त्रिदेव (शिव-मेनन-तोमर) की ओर हकाल दिया है। भाजपा का संगठन सबसे मजबूत है, लेकिन टिकट वितरण की गलत पद्धति के कारण जिले और संभाग का तंत्र फेल हो गया है।

सारा दारोमदार त्रिदेव पर ही आ टिका है। केंद्रीय नेतृत्व भी सांसत में है। विधानसभा का परिणाम, लोकसभा के परिणाम का निर्धारक होगा। अब मोदी का भविष्य शिवराज के भविष्य से जुड़ा है।

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या 230 है। इसमें जनशक्ति पार्टी को मिलाकर भाजपा की संख्या 143 है, जो 2003 की विधानसभा के मुकाबले 30 कम है। इसी प्रकार मतों के प्रतिशत के मामले में 2003 और 2008 में 4.86 प्रतिशत का अंतर हो गया।

कांग्रेस की निष्क्रियता और अयोग्यता के बावजूद उसके मतों और सीटों में वृद्धि हुई। कांग्रेस की संख्या विधानसभा में 38 से बढ़कर 71 हो गई और मतों में .79 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

मतलब साफ है कि भाजपा जनता का मन जीतने में असफल रही। 2003 में कांग्रेस को भाजपा की तुलना में 10.89 प्रतिशत कम मत मिले थे, जबकि 2008 में यह अंतर कम होकर 5.24 प्रतिशत हो गया।

मध्यप्रदेश भाजपा के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण आंकड़े उल्लेखनीय हैं- 2003 के चुनाव में बसपा को 7.26 प्रतिशत, जबकि 2008 में 8.97 प्रतिशत मत मिले। बसपा की सीटें 2 से बढ़कर 7 हो गईं जबकि सपा के साथ उलटा हुआ।

सपा को 2003 में 3.71 प्रतिशत मत और 7 सीटें मिली थीं, जो घटकर 2008 में 1.99 प्रतिशत मत और 1 सीट पर सिमट गई। भाजपा भले ही महत्व दे या न दे, लेकिन उमाश्री भारती के नेतृत्व में बनी भाजश को 2008 के चुनाव में मिले 4.71 प्रतिशत मत और 5 सीटों को नकारा नहीं जा सकता।

गौरतलब है कि भाजश के ये विजयी प्रत्याशी तब भाजपा और कांग्रेस दोनों को हराकर विधानसभा की दहलीज तक पहुंचे थे। इसके अलावा पिछोर, टीकमगढ़, जतारा, चांदला, पवई, बोहरीबंद और मनासा ऐसे क्षेत्र थे, जहां मामूली अंतर से भाजश की हार हुई थी।

राजनीति का सामान्य तकाजा तो यही है कि भाजश के सभी विजयी और हारे किंतु दूसरे नंबर पर रहे प्रत्याशियों को पुन: उम्मीदवार बनाया जाए, लेकिन प्रदेश भाजपा नेतृत्व इस तकाजे को नजरअंदाज करता दिख रहा है।

लब्बोलुआब यह है कि भाजपा ने अपनी मनमर्जी की राजनीति के कारण एक तरफ जहां अपना वोट बैंक खोया है, वहीं अनीति और अनियोजन के कारण बसपा और कांग्रेस को बढ़त बनाने का मौका दिया है।

बुंदेलखंड, विंध्यप्रदेश और ग्वालियर-चंबल में उमा भारती का सुनियोजित उपयोग बसपा के बढते प्रभाव को रोक सकता था लेकिन नेतृत्व की जिद, संगठन की उदासीनता और राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण भाजश के नेताओं का विलय तो भाजपा में होने के बावजूद भाजश के मतदाताओं और समर्थकों का विलय नहीं हो पाया। वे अब भी अनिर्णय की स्थिति में हैं।

प्रदेश भाजपा में मुख्यमंत्री का व्यक्तित्व इतना बड़ा हो गया कि सभी नेता बौने हो गए। संगठन, विचारधारा और देश भी पीछे छूट गया। राजनीति में व्यक्ति का विकास आनुपातिक न हो तो ईर्ष्या, द्वेष, छल-प्रपंच और कटुता बढ़ती ही है।

नेता और नेता में, नेता और कार्यकर्ता में तथा कार्यकर्ता और कार्यकर्ता में एक निश्चित दूरी तो जायज है, लेकिन दूरी अगर नाजायज हो जाए तो उसके दुष्परिणाम होते ही हैं। भाजपा के नेता अपनी श्रेष्ठता का बखान करते हुए कहते हैं- भाजपा कार्यकर्ता आधारित पार्टी है, जबकि कांग्रेस नेता आधारित।

इसलिए कांग्रेस से भिन्न है भाजपा... पढ़ें अगले पेज पर...


भाजपा संगठन आधारित है, जबकि कांग्रेस सत्ता आधारित। भाजपा विचारधारा आधारित है, जबकि कांग्रेस विचारविहीन। भाजपा का कैडरबेस है, जबकि कांग्रेस कैडरलेस। कांग्रेस के लिए सत्ता साध्य है, जबकि भाजपा के लिए साधन। कांग्रेस में एकानुवर्ती संगठन संचालन है, भाजपा अनेकानुवर्ती अर्थात लोकतांत्रिक है। भाजपा में व्यक्ति से बड़ा दल है और दल से बड़ा देश, जबकि कांग्रेस में इसका उलटा है।

ऐसे अनेक विशेषण हैं जिनका उल्लेख कर भाजपा स्वयं को अन्य दलों, खासकर कांग्रेस से भिन्न बताती रही है। लेकिन जब इन कसौटियों पर राजनीतिक दलों की तुलना की जाती है तो अंतर शून्य मिलता है। यह एक बड़ा कारण है जो भाजपा के मतों और सीटों में वृद्धि को स्थायित्व नहीं देता।

अब जबकि 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव सर पर हैं और इसके परिणामों के आधार पर ही लोकसभा का चुनाव लड़ा जाना है। देश की जनता सचमुच कांग्रेस से ऊब गई है, उसके विरोध में है। लेकिन कांग्रेस से ऊब और उसके विरोध का मतलब भाजपा का समर्थन नहीं हो सकता।

भाजपा को परेशान, त्रस्त, असंतुष्ट, दुखी और आक्रोशित जनता का समर्थन पाने के लिए सुपात्र बनना होगा। इसके लिए एक समग्र नीति-रणनीति और योजना की जरूरत होगी। इन योजनाओं को लागू करने के लिए सुयोग्य, सक्षम, सरल, सहज, सुलभ, शांत, संयमित, सहिष्णु, सजग और सक्रिय नेताओं-कार्यकर्ताओं का होना जरूरी है।

वांछित सफलता के लिए यह जरूरी है कि नेताओं-कार्यकर्ताओं द्वारा ईमानदार प्रयास किया जाए, लेकिन फिलहाल मध्यप्रदेश भाजपा में यह सब होता हुआ नहीं दिख रहा। विरोध, विवाद और असंतोष को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा कहकर नजरअंदाज किया जा रहा है। सरेआम लोकतांत्रिक प्रक्रिया को महज औपचारिकता कहकर मजाक बनाया जा रहा है। ये सब अशुभ लक्षण हैं। अशुभ लक्षण, शुभ परिणाम नहीं दे सकते।

भाजपा नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस का जनाधार हो न हो, देशभर में उसका आधार पुराना है। बुरी से बुरी स्थिति में वह भाजपा से उत्तराखंड, कर्नाटक और हिमाचल की सत्ता ले चुकी है। जर्जर स्थिति में भी पिछले 10 सालों से देश पर शासन कर रही है। मप्र सहित छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में वह सत्ता से बहुत दूर नहीं है। राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में तो वे पहले से ही सत्ता में है।

वक्त भले ही कम हो, लेकिन भाजपा के पास कार्यकर्ताओं, शुभचिंतक संगठनों और समर्थकों की संख्या आज भी ज्यादा है। बेहतर समन्वय और सद्भाव का लाभ भाजपा को मिल सकता है, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ होता हुआ नहीं दिख रहा।

कांग्रेस के लिए यह फायदे की स्थिति है। अगर मध्यप्रदेश की बात है तो कांग्रेस गत चुनाव से इस बार बेहतर तैयारी में है। वहां नेताओं में फूट भले हो, लेकिन उनके कार्यकर्ता अपेक्षाकृत अधिक अनुशासित और उत्साहित हैं।

भाजपा में उठे असंतोष के उबाल का लाभ भी कांग्रेस को ही मिलेगा। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की निष्क्रियता और नकारात्मक सक्रियता कांग्रेस के लिए वरदान साबित होगी। कांग्रेस और बसपा का प्रत्यक्ष-परोक्ष समझौता भाजपा की सत्ता संभावनाओं पर पानी फेर सकता है।

मध्यप्रदेश में नई सरकार के गठन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। नामांकन की अंतिम तिथि 8 नवंबर है। मतदान 25 नवंबर को होगा। 8 नवंबर को मतगणना और 12 के पहले सरकार का गठन होना तय है। इस कम समय में भाजपा के लिए नया राजनीतिक इतिहास रचने की चुनौती है।

कांग्रेस अपनी खोई सत्ता पाने की जद्दोजहद कर रही है। सफल वही होगा, जो जन-मन को जीत पाएगा। जन-मन पल-पल बदल रहा है। कुशल रणनीति और सफल क्रियान्वयन से ही सफलता सुनिश्चित होगी। इतिहास ने पछताने का मौक़ा खूब दिया है। इतिहास वही बदल पाता है, जो इन पछताने के अवसरों से सीख लेता है।
(लेखक मीडिया एक्टिविस्ट और स्टेट न्यूज टीवी के सलाहकार संपादक हैं।)