वह 'नीम की मां' थी
जीवन के रंगमंच से
ननिहाल का नाम सामने आते ही आंखों के सामने एक तस्वीर उभरती है, उस छोटे से कस्बानुमा शहर 'झालावाड़' (राजस्थान) की, जिसकी यादें अभी तक जेहन में वैसी की वैसी ताजा हैं। राजस्थान का यह छोटा-सा शहर ज्यादा विकास नहीं कर पाया, क्योंकि रेलवे लाइन वहां से बहुत दूर रही। बस एक मामले में यह कस्बा बादशाह है, वह है वहां का प्राकृतिक सौंदर्य, जो वहां भरपूर है। तीन बड़े तालाब, तीन छोटी-मोटी नदियां (चंबल, कालीसिंध व आहू) और एक झरना (बिजलिया भड़क) कस्बे की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं। शहर के मध्य में पुराना किला है, जहां अब छविगृह है और विभिन्न दफ्तर लगते हैं।शहर के बाहर गागरोन का ऐतिहासिक किला है, जो दो नदियों के किनारे पर बना है। किले में अभी भी ऐतिहासिक महत्व की चीजें जैसे तोप, राजाओं के पहनने वाले वस्त्र और लिखने-पढ़ने की सामग्री सुरक्षित रखी है। किले पर खड़े होकर देखो तो लगता है, प्रकृति अपने सजीव रूप में सामने खड़ी हो। हम बचपन में किला देखने बड़े ही चाव से जाते थे, क्योंकि हमें तो लालच था अजीब-सी आकृति वाले (बिच्छू जैसी कौड़ी) कांटेदार दानों का, जो पेड़ से जमीन पर गिरते रहते थे। हम इकट्ठा करके ले आते थे और कई दिन तक उनसे खेलते रहते थे। नानाजी अक्सर सैर-सपाटे पर सबको ले जाते। चांदनी रात में सबको नहाने में बहुत मजा आता। मुझे पानी से बहुत डर लगता था, इसलिए तैरना कभी सीख नहीं पाई। सब नहाते और मैं व नानीजी किनारे पर बैठे रहते। नानीजी का व्यक्तित्व भी ऐसा कि जिस पर गर्व महसूस हो, हर एक के लिए दया और ममता की हिलोरे उमड़ती रहतीं। सबके सुख-दुख की साझीदार।नानाजी राजा लोगों के साथ (राजाओं का जमाना खत्म होने को था) शिकार पर जाते और कुछ न कुछ शिकार करके लाते। नानीजी दिन भर कुछ न कुछ बनाने में लगी रहतीं, क्योंकि नानाजी अपने यार-दोस्तों को निमंत्रित जो कर लेते थे दावत पर। नानी चूंकि बंगाल (ढाका, जो अब बांग्लादेश में है) की थीं, इसलिए मांसाहार चलता था। नानाजी उनके लिए मांसाहारी हो गए, ताकि नानी को अपना मनपसंद भोजन मिल सके। नानाजी को दोनों समय नाश्ता और भोजन व दवाई समय से देना पड़ती, क्योंकि बचपन में संग्रहणी रोग हो गया था, उसके कारण परहेजी खाना खाते थे। नानाजी के दबंग स्वभाव होने के बावजूद कभी उनमें आपस में बहस या टकराव होते नहीं देखा। खामोशी के अस्त्र से नानीजी, नानाजी को ठंडा कर देतीं। नानीजी के घर के सामने ही एक वृद्धा 'जीजी' रहती थीं। जीजी पूरे मोहल्ले की जीजी थीं और सब उन्हें जीजी ही कहते। जीजी असमय ही वैधव्य का शिकार हो गईं थी। उनकी कोई औलाद नहीं थी। उनके घर के सामने एक कच्चा चबूतरा था, जिस पर उन्होंने नीम का पेड़ लगा रखा था। नीम को बच्चे की तरह मानकर उसकी सार-संभाल की थी जीजी ने।