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Written By DW
Last Modified: गुरुवार, 15 नवंबर 2012 (16:40 IST)

बचपन से ही टिकाऊ जीवन

Childhood Life | बचपन से ही टिकाऊ जीवन
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जितनी जल्दी बच्चे जान जाएं कि टिकाऊ तरीके से रहने में हर इंसान बदलाव ला सकता है उतना ही बेहतर है। बॉन में एक स्कूल छोटे छोटे बच्चों को पर्यावरण का राजदूत बना रहा है।

बॉन का गॉटफ्रीड किंकेल स्कूल दुनिया को बचाने की कोशिश में बड़ी गंभीरता से जुटा है और इस मामले में भारत के स्कूलों से इसकी सोच बिल्कुल अलग है। जर्मनी की तरह भारत ने भी जान लिया है कि बच्चों को यह बताना जरूरी है कि उनकी पसंद नापसंद कितना बदलाव ला सकती है। टिकाऊ तरीके से रहने में हर इंसान पर्यावरण को बचाने के लिए योगदान दे सकता है।

भारत में फर्क यह है कि सब कुछ किताबों में सिमटा है। छोटी छोटी चीजों का व्यवहारिक ज्ञान जिसे हर किसी को जानना चाहिए, उस पर कोई ध्यान ही नहीं। किसी को नहीं पता कि क्या नहीं करके वह पर्यावरण के लिए मददगार साबित हुआ जा सकता है।

भारत सरकार ने 1980 में ही पर्यावरण विभाग बना दिया। 1986 से पर्यावण के बारे में जानकारी ज्यादातर स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल है। किताबें लिखी गई हैं, परिक्षाएं होती हैं और बच्चे पर्यावरण को बचाने के बारे में सब कुछ सीखते हैं।

भारत के ज्यादातर स्कूलों में पर्यावरण से जुड़े प्रोजेक्ट भी शुरू किए गए हैं और बच्चों के साथ इको क्लब भी बनाए गए हैं। इन सब के बावजूद छोटे बच्चों को पर्यावरण के हिसाब से सोचना नहीं आया। आधिकारिक नीति छठी क्लास से बच्चों को पर्यावरण के बारे में सिखाना शुरू करती है।

पर्यावरण बचाने की कोई उम्र नहीं : बॉन क्लाइमेट एम्बेसडर्स नाम के संगठन ने ऐसा कार्यक्रम तैयार किया है जो बच्चों या बड़ों दोनों के लिए एक जैसा फायदेमंद है। इसका मकसद बॉन के ज्यादा से ज्यादा लोगों, कंपनियों और संगठनों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाना और उन्हें पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रेरित करना है। इस मामले में शहर के नन्हे मुन्ने नागरिकों की भी बड़ी भूमिका है।

गॉटफ्रीड किंकेल स्कूल इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहा है। स्कूल में पर्यावरण कार्यक्रम की जिम्मेदारी संभाल रही एल्के बटगेराइट बताती हैं, 'पिछले वसंत में हमने हमने कार्यक्रम शुरू किया जिसमें तीसरी और चौथी क्लास के बच्चे पर्यावरण राजदूत बनने के लिए पर्यावरण लाइसेंस हासिल कर सकते थे।'

एल्के और उनकी सहयोगी अलेक्सा श्मिट ने बॉन के प्राथमिक स्कूलों की त्रैमासिक पत्रिका बोनीलाइव में पर्यावण से जुड़ा एक संदेश देने की शुरुआत की। कॉमिक आर्टिस्ट ओएजी ने बोनी और बो नाम के दो कार्टून किरदारों को जन्म दिया और उनके जरिए पर्यावरण से जुड़ी जटिल बातों को आसान और रुचिकर तरीके से समझाया जाने लगा।

इस जानकारी और क्लास में मिले निर्देशों के आधार पर बच्चे खुद ही वर्कबुक तैयार करने लगे जिनमें ऊर्जा और परिवहन से लेकर पानी और रिसाइक्लिंग तक के मुद्दे हैं। बच्चों को इन मुद्दों के आधार पर ही अपनी रोजमर्रा की जिंदगी भी जीनी पड़ती है।

हंसते खेलते बच्चे यह देखने लगे कि कहीं कोई बत्ती बिना काम के तो नहीं जल रही, कचरे को छांट कर कूड़ेदान में डाला जा रहा है कि नहीं, वॉशिंग मशीन चलने से पहले पूरी तरह भरी जाने लगी या फिर यह कि पानी खुला छोड़ कर कितना नुकसान हुआ। एक बार वर्कबुक भर जाती तो बच्चों को पर्यावरण लाइसेंस मिल जाता।

रोजमर्रा के जीवन में इन बातों को शामिल करा कर बच्चों की आदतों और रुख में काफी बड़ा बदलाव दिखने लगा। बच्चों की पसंद नापसंद में पर्यावरण का महत्व भी शामिल हो गया। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली आदतें धीरे धीरे कम और फिर गायब होने लगीं। बच्चे सिर्फ अपने आप को ही नहीं बल्कि परिवार और आस पास के लोगों को भी इनके बारे में बताने और सुधारने लगे।

राष्ट्रपति को सिखाया : स्कूल का यह कार्यक्रम इतना सफल रहा कि जर्मन राष्ट्रपति योआखिम गाउक भी जब इसी साल अगस्त में आधिकारिक दौरे पर बॉन आए तो इसे करीब से देखने स्कूल पहुंचे।

इस दौरान उन्होंने बच्चों से पर्यावरण की रक्षा में अपने लिए कुछ बातें सीखीं जैसे कि अपने आधिकारिक आवास की बत्तियों को बुझाना और ब्रश करते वक्त नल की टोंटी बंद करना। सिर्फ इतना ही नहीं छोटी दूरियों के लिए साइकिल का इस्तेमाल करने की सीख भी राष्ट्रपति को इन बच्चों से मिली।

सब कुछ सिखाने के बाद बच्चों ने गाउक से कहा, 'हमें उम्मीद है कि आप हमारी बात दुनिया में फैलाएंगे क्योंकि आपकी आवाज हमसे ज्यादा तेज है।'

रिपोर्टः अंजलि इस्टवाल, सारा अब्राहम, एनआर
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी