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Written By WD

पर्थ में भी कटी 'उम्मीदों की पतंग'

- सीमान्त सुवीर

Perth Test | पर्थ में भी कटी ''उम्मीदों की पतंग''
पर्थ टेस्ट में टीम इंडिया की ऐसी शर्मनाक हार हुई कि हार भी 'शरमा' जाए। रविवार का दिन भारतीय क्रिकेट के लिए 'मातम' मनाने का दिन है। भारत ने पिछली दो हारों से कोई सबक नहीं सीखा और तीसरे टेस्ट में मकर संक्रांति के दिन जिस तरह से खेलप्रेमियों की 'उम्मीदों की पतंग' कटी, उसने कई नामी और महान क्रिकेटरों को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

* स्टार क्रिकेटरों ने कटाई नाक
* आखिर कब जागेंगे चयनकर्ता
* अब तो युवा क्रिकेटरों को दें मौका

बेशर्म 'टीम इंडिया' को छोड़कर आज क्रिकेट को पसंद करने वाला हर भारतीय गमजदा है, वह भी ऐसे मौके पर जब देश संक्राति का पर्व मना रहा है। पर्थ टेस्ट के परिणाम ने गुड़ की मिठास को कसैला बना दिया है। क्या टीम इंडिया में ऐसा एक भी योद्धा नहीं था, जिसकी बाजुओं में ऐसा फौलाद भरा हो जो हार को डेढ़ दिन के लिए टाल सकता? यदि ऐसा होता तो हम नजरें नीची करके यह तो कह सकते थे कि पिछले दो टेस्टों की तर्ज पर हमारी टीम 4 दिन में हारी।

विदेशी जमीन पर लगातार सातवें टेस्ट में भारत को ‍जिस तरह हार मिली है, उसकी टीस न जाने कितने दिनों तक सालती रहेगी। हर टेस्ट के बाद कप्तान धोनी का यह बयान बहुत हास्यास्पद लगता है कि हमने हार से सबक सीखा है। क्या उनके गुर्गो ने यह सबक लिया कि चार दिन का टेस्ट महज ढाई दिन में खत्म कर दें?

असल में भारतीय क्रिकेट को चलाने वाले संगठन बीसीसीआई के लिए क्रिकेट खेल नहीं बल्कि व्यापार बन गया है। खिलाड़ियों का ध्यान भी प्रतिस्पर्धात्मक क्रिकेट से कहीं अधिक उन टूर्नामेंटों पर केन्द्रित है, जहां से उन्हें पैसों की बरसात होने की उम्मीद रहती है।

वक्त आ गया है, जब बीसीसीआई अपनी प्राथमिकता तय करे कि उसे ट्‍वेंटी-20 क्रिकेट पर ध्यान देना है या फिर वनडे क्रिकेट पर या फिर उसके लिए टेस्ट मैच अहम हैं। घरेलू क्रिकेट को नजरअंदाज करने वाले क्रिकेटरों को आराम देना ही होगा, साथ ही टीम पर बोझ बन चुके सीनियर क्रिकेटरों को भी बाहर का रास्ता दिखाना होगा, तभी भारतीय क्रिकेट का कल्याण होगा।

वर्तमान ऑस्ट्रेलियाई दौरे में सचिन, सहवाग, लक्ष्मण, द्रविड़, जहीर, ईशांत शर्मा ने क्या गुल खिलाए, उसका जिक्र करना भी अब बेकार की बातें लगती हैं। सचिन, लक्ष्मण और द्रविड़ तो 8 दिसंबर को ही ऑस्ट्रेलिया इस गरज के साथ पह‍ुंच गए थे‍ कि यहां की परिस्थितियों में खुद को ढाल सकें, लेकिन इन सूरमाओं ने क्या कुछ सीखा, वह तो मैदान में नजर आ ही गया।

सचिन 1992 से ऑस्ट्रेलिया दौरे पर आ रहे हैं और लक्ष्यण का यह तीसरा ऑस्ट्रेलियाई दौरा था। इतना अनभुव होने के बाद भी इन दोनों ने लजा देने वाला प्रदर्शन किया। ईशांत शर्मा ने तो टीम इंडिया को अपनी जागीर समझ लिया है और ऐसा भ्रम पाल लिया है कि उनके बगैर पत्ता तक नहीं हिल सकता। जहीर खान जो चोट को छिपाए फिरते रहते हैं, वे मान क्यों नहीं लेते कि उनकी गेंदबाजी बेदम हो चुकी है।

तीनों टेस्ट मैचों में धोनी ने कोई रणनीति नहीं बनाई या फिर कहें कि गुटबाजी (जैसी कि खबरें हैं) के चलते अमल नहीं हो पाया, जबकि दूसरी तरफ ऑस्ट्रेलियंस रणनीति बनाकर मैदान पर उतरते रहे और भारत की 'चकाचक धुलाई' करते रहे। भारत के खिलाफ तीन टेस्ट खेली ऑस्ट्रेलियाई टीम को इन मुकाबलों के ठीक पहले न्यूजीलैंड ने 26 साल बाद उसे अपनी ही जमीं पर हराया था, लेकिन इस टीम ने भारत की 'तथाकथित मजबूत' टीम को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर करते हुए अपनी गिरती हुई साख बचा ‍ली।

भारतीय क्रिकेटरों ने तीसरे टेस्ट मैच में जब पर्थ के वाका की पिच पर हरी घास देखी तो वे बिदक गए क्योंकि संभावित परिणाम का भय उन्हें सताने लगा था। इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया की पिचों में यही तो अंतर है कि वहां के विकेटों पर गेंद तेजी के साथ उछाल लिए रहती है, जबकि ऑस्ट्रेलियाई विकेटों पर गेंद सीम लिए रहती है, जिनका सामना करना भारतीयों के बस में नहीं होता है।

तीनों टेस्ट मैच में सहवाग और गंभीर की सलामी जोड़ी फ्लॉप रही और लक्ष्मण को हताशा के बीच बार-बार मौके दिए गए, जबकि रोहित शर्मा ड्रेसिंग रूम में मुंह लटकाकर टीम की हार का तमाशा देखते रहे। क्या उन्हें मौका नहीं दिया जाना चाहिए था? अब वक्त आ गया है जब टीम चयनकर्ताओं को आत्ममंथन करने की जरूरत है।

किसी समय 'पारस' के नाम से मशहूर रहे धोनी के लिए यह सबसे बुरा वक्त है। इस दौरे में जितनी फजीहत उनकी हुई है, शायद ही किसी दौरे में हुई हो। जो कप्तान मैच से 10 घंटे पूर्व 2015 के पहले संन्यास लेने की बात कहता हो उसके क्या मायने निकाले जाए? क्या धोनी को भी लगने लगा है कि उनका 'पतन' शुरू हो गया है?

बीसीसीआई के चयनर्ताओं के लिए अब भी वक्त है। भारत को अगले 7 माह में कोई भी विदेशी दौरा नहीं करना है और सभी मैच अपने ही घर में खेलने हैं। ऐसे में अच्छा होगा कि सीनियर्स को पूरी तरह आराम देकर युवाओं की एक ऐसी टीम खड़ी की जाए जो 'भविष्य की भारतीय टीम' हो। उसमें अजिंक्य रहाणे से लेकर वरुण आरोन जैसी क्रिकेट प्रतिभाओं को और अधिक तराशा जाए। घरेलू क्रिकेट से निकल रही प्रतिभाओं को और अधिक मौके दिए जाएं, जैसा अवसर उमेश यादव को दिया गया है और उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में खुद को साबित करके भी दिखाया।

अब टीम इंडिया में बोझ बन चुके बूढ़े क्रिकेटर यदि खुद संन्यास नहीं लेते तो ऐसी परिस्थितियां निर्मित करनी होंगी, जिससे वे खुद ही भूतपूर्व हो जाएं। राष्ट्रीय चयनकर्ताओं ने यदि ऐसा हिम्मत भरा कदम नहीं उठाया तो हमें पर्थ जैसी शर्मनाक पराजय के दर्द को सहन करने की आदत डाल लेनी होगी।