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Written By आलोक मेहता
Last Updated : सोमवार, 20 अक्टूबर 2014 (16:26 IST)

क्रिकेट में लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण

क्रिकेट में लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण -
यह कैसी खेल भावना है? यह कौन-सी परंपरा और संस्कृति है? चकाचौंध कर देने वाली यह कैसी पत्रकारिता है? पूरा देश ही नहीं दुनियाभर में विश्वकप क्रिकेट को उत्साह और जोश के साथ देखा जा रहा है।

इंग्लैंड से ही नहीं, सुदूर अफ्रीकी देशों से भारत के खिलाड़ियों के श्रेष्ठ प्रदर्शन पर मेरे पास फोन भी आ रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान के साथ सेमीफाइनल के पहले या बाद में भी महायुद्ध में विजय की तरह अट्टहास तथा अब फाइनल से पहले लंका दहन, रावण के नाश जैसे नारों की गूँज सुनकर क्या किसी भारतीय का सिर शर्म से नहीं झुकने लगता?

मनमोहनसिंह भले ही अपनी सरकार की दीवार पर लगे भ्रष्टाचार के धब्बों को 'क्रिकेट कूटनीति' के रंग और धूमधाम से छिपाना चाहते हों या असम, केरल, बंगाल के मुस्लिम मतदाताओं का मन जीत सकने की गलतफहमी पाल रहे हों, लेकिन भारत का मुस्लिम समुदाय अब बहुत बदल चुका है।

वास्तव में पिछले 64 वर्षों के दौरान मुसलमानों की दो पीढ़ियों के लोगों का दिल-दिमाग नेताओं से कई गुना बेहतर और भारत के लिए प्रतिबद्ध हो चुका है। इसीलिए मोहाली क्रिकेट में पाकिस्तान की पराजय पर मुस्लिम बस्तियों में बड़ी खुशी से आतिशबाजी होती रही। कोई खेल हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई समुदाय का कतई नहीं होता।

फाइनल में श्रीलंका की ओर से खेल रहे शानदार खिला़ड़ी रावण की संतान बिलकुल नहीं हैं। सच यह है कि भारतीय मूल के तमिल और प्राचीनकाल से इस संस्कृति से जुड़े सिंहली-श्रीलंका को गौरवान्वित करते हैं। तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में श्रीलंका में बसी तमिल मूल की जनता के संरक्षण का मुद्दा निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है।

ऐसी स्थिति में श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे को बीच में रखे बिना भी श्रीलंका के तमिलों को अन्य देशवासियों की तरह सम्मान-प्यार का संदेश भारत की जनता की ओर से मिल सकता है। इस नाजुक घड़ी में क्रिकेट खिलाड़ियों की बाउंड्री और बैटिंग की तरह राजनीति और मीडिया से जु़ड़े हर वर्ग को अपनी लक्ष्मण रेखा का भी ध्यान रखना चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट काउंसिल और उसके वर्तमान अध्यक्ष शरद पवार की 'चंडाल चौकड़ी' अवश्य इसे 'धंधा' बनाकर हजारों करो़ड़ रुपया कमा रही है। संभव है कुछ महीनों बाद सुरेश कलमा़ड़ी की मंडली की तरह वे भी 'सींखचों' के पीछे दिखाई दें। लेकिन इस बार भी कॉमनवेल्थ खेलों की तरह क्रिकेट मैच के नाम पर करोड़ों के 'काले धन' पर सरकार के मौन और अनदेखी पर कोई महात्मा, बाबा और प्रतिपक्ष चुप क्यों है? सट्टे और टिकटों की कालाबाजारी में क्रिकेट के नेता, अधिकारी तथा दलाल ही तो लगे रहे हैं।

क्या सरकार फाइनल के बाद 4 अप्रैल की सुबह इसी काली कमाई पर जाँच का आदेश देगी अथवा इसे बंगाल-तमिलनाडु के चुनावी फंड के बहाने रफा-दफा करवा देगी। दाऊद इब्राहीम या हसन अली के अपराधों को बढ़ाने और छिपाते रहने की गलतियाँ कब तक होती रहेंगी? खेल के असली धार्मिक अनुष्ठान में दानवी लूटपाट का पाप किसके मत्थे पड़ेगा?