बुधवार, 24 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. खबर-संसार
  2. व्यापार
  3. समाचार
Written By विट्‍ठल नागर
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:26 IST)

बैंकों की जोखिम बढ़ेगी!

बैंकों की जोखिम बढ़ेगी! -
शेयर बाजार या कंपनियों व बैंकों के लिए नकारात्मक खबरों का सिलसिला जारी है। इसी कॉलम में देश के वित्तीय बाजार पर डेरीवेटिव्ज सौदों के संकट की बात कही गई थी एवं इस बात का भय व्यक्त किया गया था कि अगर डॉलर के मुकाबले येन (जापान की मुद्रा) अधिक मजबूत हुआ तो विदेशी मुद्रा के डेरीवेटिव्ज सौदों में कंपनियों व बैंकों को मार्केट की व्यवस्था अपने लाभ-हानि खाते में करना पड़ेगी व इससे उनके निवल लाभ का प्रतिशत घटेगा।

इसी भय की वजह से बैंकिंग क्षेत्र के शेयरों में कारोबारियों की दिलचस्पी घट गई थी एवं जनवरी माह से बैंकों के शेयरों में बेचान बढ़ गया था। हालाँकि ये शेयर निवेश के लिहाज से अच्छे हैं बावजूद उनके भावों का उच्चतम स्तर घटने की संभावना के अर्थात उनके भाव की ऊपरी सीमा अब घट गई है। फिर वैसे ही बढ़ती मुद्रास्फीति व औद्योगिक मंदी की वजह से बैंकिंग क्षेत्र को कर्ज की घटी हुई माँग का सामना भी करना पड़ सकता है। सबप्राइम का संकट यथावत है एवं अमेरिका व योरप में मंदी की स्थिति उभर रही है।

डेरीवेटिव्ज के सौदे वस्तु बाजार के कामकाज में होते हैं। उसी तरह बैंकों द्वारा दिए गए उधार के स्वाप्स सौदे भी होते हैं। बाजार की चर्चा के अनुसार एलएंडटी को वस्तु बाजार के डेरीवेटिव्ज कामकाज में 90 करोड़ रु. की हानि हुई है। कहा जा रहा है कि दिए गए उधार के स्वाप्स सौदों में आईसीआईसीआई को 26 करोड़ डॉलर के कामकाज को मार्क टू मार्केट के तहत घाटे में दर्शाना पड़ता है।

वास्तव में विदेशी मुद्रा व वस्तु बाजार के डेरीवेटिव्ज कामकाज में कई कंपनियाँ आहत हुई हैं। चर्चा के अनुसार एम्टेक ऑटो (मार्क टू मार्केट) का घाटा 1.80 करोड़ डॉलर का, इसी तरह हैक्सावेयर कंपनी पर भी मार्क टू मार्केट के घाटे की जिम्मेदारी आ पड़ी है। अभी तो बाजार में कई तरह की अफवाहें हैं और उनमें हर रोज नई-नई कंपनियों के नाम जुड़ रहे हैं।

विश्लेषकों का कहना है कि कंपनियाँ जब तक डेरीवेटिव्ज के कामकाज के घाटे को जाहिर नहीं करेंगी, तब तक अफवाहों का बाजार अधिक से अधिक गर्म होता जाएगा। भारतीय रिजर्व बैंक के नियमों के तहत इस घाटे को छिपाना या हिसाब-किताब के नए तरीकों का उपयोग करना गलत होगा।

डेरीवेटिव्ज के सौदे एक मायने में जोखिम घटाने हेतु किया जाने वाला हैजिंग का कामकाज है एवं एक हैजिंग के कामकाज की जोखिम का दूसरे हैजिंग में उपयोग नहीं किया जा सकता। भारतीय रिजर्व बैंक भी बाजार की स्थिति से अवगत है एवं वह हर बैंक व कंपनियों के डेरीवेटिव्ज के कामकाज के आकलन में व्यस्त है। डेरीवेटिव्ज के कामकाज में जिन छोटे दर्जे की कंपनियों को घाटा हुआ है, वे बैंकों के विरुद्ध कोर्टों में जा रही हैं। इस वजह से बैंकों पर दोहरी मुश्किल आ गई है।

एक ओर कोर्ट का दबाव रहेगा एवं दूसरी ओर भारतीय रिजर्व बैंक का। भारतीय रिजर्व बैंक ने यह स्पष्ट किया है कि सरकारी क्षेत्र की बैंकों ने डेरीवेटिव्ज का बहुत कम कामकाज किया है। जो भी किया है, वह उनके नियमित ग्राहक कंपनियों के साथ किया है। इसलिए उनके सामने परेशानियाँ कुछ कम हैं। किंतु निजी क्षेत्र की बैंकों व विदेशी बैंकों ने अधिक कामकाज किया है।

अपनी शुल्क की आय बढ़ाने के लिए उन्होंने कई कंपनियों को विदेशी मुद्रा के डेरीवेटिव्ज के सौदे करने के लिए प्रेरित किया। देश में इस क्षेत्र में हुए कुल कामकाज में 50 प्रतिशत हिस्सा विदेशी बैंकों का है, किंतु ये बैंकें भारत के शेयर बाजार से सूचीबद्ध नहीं हैं इसलिए कंपनी द्वारा उनके विरुद्ध मुकदमे दायर नहीं किए जा रहे हैं। इसलिए विदेशी बैंकों से डेरीवेटिव्ज के करार करने वाली भारतीय कंपनियों के नाम बाजार में फैली अफवाह में अधिक शुमार नहीं हैं।

देश में इस संबंध में हुए कामकाज में निजी क्षेत्रों की बैंकों का हिस्सा 30 प्रतिशत है। कहा जाता है कि निजी क्षेत्र की बैंकों ने अपनी शुल्कगत आय बढ़ाने के लालच में गैर ग्राहकों के साथ भी विदेशी मुद्रा के डेरीवेटिव्ज के सौदे किए हैं। ऐसे सौदे में हुए घाटे को वसूलना इन बैंकों के लिए मुश्किल होगा। बाजार की चर्चा के अनुसार ऐसे सर्वाधिक सौदे निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी बैंक आईसीआईसीआई एवं यश बैंक जैसी निजी क्षेत्र की छोटी बैंकों ने किए हैं।

इन सौदों में छोटी व मझौली कंपनियों को भारी घाटा हुआ है। इसलिए तिलमिलाकर वे या तो मामले को बैंक के विरुद्ध कोर्ट में ले जा रही हैं अथवा तुलनपत्र में मार्क टू मार्केट का घाटा जाहिर न करना पड़े, इसके तरीके खोज रही हैं एवं चार्टर्ड अकाउंटेंट से सलाह ले रही हैं। कुछ का प्रयास है कि जितना घाटा हुआ है, उसे नए कर्ज के रूप में दर्शाया जाए। इसलिए वे बैंकों से नए कर्ज लेकर उसके लिए हिदायतें माँग रही हैं।

ग्राहकों का कहना है कि विदेशी मुद्रा के डेरीवेटिव्ज करार एकदम नए हैं और बैंकों ने उन्हें ऐसे करार की न तो तकनीकी जानकारियाँ दीं और न ही घाटे के बारे में कोई चेतावनी दी।

डेरीवेटिव्ज के सौदे मुख्यतया विदेशी मुद्रा की जोखिम या ब्याज की जोखिम से बचने के लिए किए जाते हैं। भारतीय बैंकों से ऊँचे ब्याज पर लिए गए कर्जों में ब्याज का भार हल्का करने के लिए रुपए के कर्ज को येन या स्विस फ्रेंक में बदला जाता है, क्योंकि इन देशों की बैंकों पर ब्याज दर सबसे कम होती है। विदेशी मुद्रा में लिए गए कर्जों में विदेशी मुद्रा की विनिमय दर (डॉलर की तुलना में महँगी) होने का भय रहता है।

लिहाजा, विदेशी मुद्रा में लिए गए कर्ज का भार अधिक न बढ़े इसके लिए स्वाप्स के सौदे किए जाते हैं। डेरीवेटिव्ज के सौदे करने वाले ग्राहकों का आरोप है कि बैंकों ने ही उन्हें येन या स्विस फ्रेंक में स्वाप्स के सौदे करने की सलाह दी थी, क्योंकि बैंक अधिकारियों की राय थी कि येन व स्विस फ्रेंक के भाव नहीं बढ़ेंगे।

किंतु जनवरी 2008 से दुनियाभर में डॉलर की विनिमय दर में तेज गिरावट आने से येन व स्विस फ्रेंक की विनिमय दर भी अधिक बढ़ गई जिससे सौदे करने वाले भारी घाटे में आ गए। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी जनवरी माह से ही विदेशी मुद्रा के स्वाप्स (क्रॉस करंसी डेरीवेटिव्ज अनुबंध) के सौदे में होने वाले घाटे के प्रति विदेशी मुद्रा बाजार के कारोबारियों को सचेत किया था।

आज ये सौदे पूरी तरह नकारात्मक स्थिति में आ गए। इससे कंपनियों की प्रवाहिता पर दबाव पड़ रहा है। कंपनियों के सामने प्रश्न यही है कि उस जिम्मेदारी का निर्वाह कैसे किया जाए एवं किस तरह पुनर्संरचनात्मक प्रयासों को अंजाम दिया जाए।

दूसरी ओर सरकारी व निजी क्षेत्र की जिन बैंकों की विदेशों में शाखाएँ हैं, उन्हें 30 मार्च 2008 से बेसेल-2 के मानक का पालन करना है। इसके तहत सर्वोच्च साख दर (क्रेडिट रेटिंग) वाली कंपनियों को दिए गए कर्ज की 20 प्रतिशत रकम का प्रावधान जोखिमभारिता (रिस्कवेटेज) के तहत एवं कमतर साख दर वाली कंपनियों को दिए गए कर्ज की 1.50 प्रतिशत रकम जोखिमभारिता के तहत अलग रखना है।

ऐसे प्रावधानों से उनकी कर्ज देने की क्षमता घटेगी, वहीं पूँजीगत पर्याप्तता अनुपात भी घटेगा। इसलिए बेसेल-2 मानक उनके लिए बहुत भारी पड़ेगा एवं उन पर नई पूँजी जुटाने की भारी बाध्यता आ पड़ेगी। डेरीवेटिव्ज के घाटे के उस दौर में विदेशी शाखाओं वाली बैंकों को कम से कम 2009 तक बेसेल-2 मानक से राहत दी जाए तो बेहतर है। इस संबंध में बड़ी बैंकों ने रिजर्व बैंक के अधिकारियों के साथ चर्चा भी की है।