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Written By ND
Last Modified: रविवार, 1 जून 2008 (19:28 IST)

कंपनियों पर ब्याज का भार 38 प्रश बढ़ा

प्रवाहिता के मूल्य में वृद्धि के संकेत उभरे

कंपनियों पर ब्याज का भार 38 प्रश बढ़ा -
- विट्ठल नागर

वित्तमंत्री पी. चिदंबरम पर चारों ओर से दबाव बढ़ रहा है। एक ओर महँगाई कम करने के लिए जबर्दस्त राजनीतिक दबाव बढ़ रहा है तो दूसरी ओर तेल (पेट्रोल-डीजल) वितरण करने वाली कंपनियों की माँग है कि तेल पर से सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क की दर घटाई जाए।

वैश्विक अनुपात में देखा जाए तो भारत में तेल पर कर की दर अधिक नहीं है।
  अनेक वित्तीय दबावों की झलक बजट में नजर नहीं आती अर्थात यह वित्तीय अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है- लिहाजा सरकार को अपने वित्तीय कामकाज को शीघ्र पारदर्शी बनाना चाहिए      
अगर करों की दर घटाई जाती है तो बजट घाटा बढ़ता है- जबकि बजट व राजस्व घाटा न बढ़ाने के लिए वित्तमंत्री कानूनी रूप से बँधे हुए हैं। अब तो भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर वायवी रेड्डी ने भी नपे-तुले शब्दों में कह दिया है कि देश का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात में विश्व में सबसे अधिक है।

यहीं नहीं, उन्होंने यह भी कह दिया है कि अनेक वित्तीय दबावों की झलक बजट में नजर नहीं आती अर्थात यह वित्तीय अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है- लिहाजा सरकार को अपने वित्तीय कामकाज को शीघ्र पारदर्शी बनाना चाहिए। रिजर्व बैंक के गवर्नर को यह कहने की जरूरत इसलिए पड़ी कि इस अनुशासनहीनता से मुद्रास्फीति बढ़ती है एवं मुद्रास्फीति घटाने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है।

अगर सरकार अपने वित्तीय दबावों को पारदर्शी नहीं बनाएगी तो रिजर्व बैंक के पास मुद्रास्फीति को कम करने के लिए बैंकों पर अधिक भार डालने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं रहेगा। अगर ऐसे भार से देश के आर्थिक विकास की वृद्धि दर रुँधती है तो उसके लिए रिजर्व बैंक को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकेगा?

आज रिजर्व बैंक की नीतियों की वजह से देश में तरलता का दोहन महँगा होता जा रहा है अर्थात कंपनियों को कोष महँगे भाव पर जुटाना पड़ रहा है, क्योंकि तरलता घटने की आशंका बढ़ती जा रही है। तरलता घटने के संकेत अब स्पष्ट रूप से उभरने लगे हैं और अंतर बैंक माँग मुद्रा बाजार का कामकाज इसका बेहतर उदाहरण है। दूसरा उदाहरण कंपनियों के चौथी तिमाही के परिणाम हैं, जिसमें ब्याज भार हनुमान की पूँछ की तरह बढ़ रहा है एवं उसे कवर करने में कंपनियों का निवल लाभ घट रहा है।

अगर 1,500 कंपनियों (बैंकों व वित्तीय संस्थाओं को छोड़कर) के चौथी तिमाही (जनवरी 2008 से मार्च 2008) तिमाही के परिणामों को सम्मिलित करके देखा जाए तो उनके कामकाजी लाभ में महज 11.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है (जनवरी 2007 से मार्च 2007 की तुलना में), जबकि इसी अवधि में ब्याज के भार में 38.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका मतलब यही है कि ब्याज की बढ़ती हुई लागत की वजह से कंपनियों के सामने अन्य कामकाज के लिए कोष कम पड़ रहा है एवं उनके विकास कार्य अब ठप पड़ सकते हैं।

घटता कामकाजी लाभ एवं बढ़ता ब्याज भार इसी बात को इंगित करता है कि तरलता जुटाना महँगा होता जा रहा है और कंपनियों के समक्ष तरलता जुटाने के मार्ग सीमित हो गए हैं, क्योंकि प्राथमिक बाजार की हालत खस्ता है, जिससे कंपनियाँ इक्विटी या अन्य पत्रों के पब्लिक इश्यू नहीं ला सकतीं। विदेशी पूँजी बाजार से सस्ते में कोष जुटाए जा सकते हैं। सरकार ने विदेशी व्यावसायिक कर्ज (ईसीबी) पर लगे प्रतिबंध पर आंशिक शिथिलता दी है। पूर्ण शिथिलता बाद में दी जाएगी।

यह प्रतिबंध तब लगाया गया था, जब देश में डॉलर की आवक तेजी से बढ़ रही थी। डॉलर की हर बढ़ती आवक देश में रुपए की प्रवाहिता तेजी से बढ़ा रही थी एवं बढ़ती प्रवाहिता की वजह से मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिल रहा था। अब न केवल डॉलर की आवक कम पड़ गई है, वरन्‌ एफआईआई के बढ़ते बेचान की वजह से डॉलर देश के बाहर भी अधिक जा रहा है- इस वजह से प्रणाली में रुपए की प्रवाहिता घट रही है।

इसी कारण से छोटी व मध्यम दर्जे की कंपनियों को कर्ज महँगी दर पर मिल रहे हैं। अब बदली परिस्थिति में (डॉलर की आवक घटने की वजह से) सरकार ने केवल तेल कंपनियों के लिए ईसीबी की सुविधा का लाभ उठाने एवं विदेशी व्यावसायिक कर्ज में प्राप्त डॉलरों को देश में लाने की अनुमति दी है। ऐसा होने पर बैंकों की तरलता भी बढ़ेगी एवं वित्तमंत्री आज जिन दबावों का सामना कर रहे हैं, उससे उन्हें कुछ राहत भी मिल सकेगी।

आज अंतर बैंक माँग मुद्रा बाजार (कॉल रेट मनी मार्केट) का कामकाज यह बता रहा है कि बैंकों के सामने संकट की स्थिति बन रही है।
  विश्लेषकों का कहना है कि अगर मानसून बेहतर रहता है तो अक्टूबर-नवंबर माह से तरलता की स्थिति में कुछ सुधार आ सकता है। हालाँकि रिजर्व बैंक तरलता घटाने के उपाय करती रहेगी      
मार्च व अप्रैल माह में व्यावसायिक बैंकें प्रतिदिन 20 हजार से 30 हजार करोड़ रु. रात्रिपर्यंत के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को उधार देती थीं, 6 प्रतिशत ब्याज पर। यह आधिक्य की रकम होती थी, जिसका कि बैंकें उपयोग नहीं कर पा रही थीं, किंतु 28 मई को बैंकों के पास केवल 185 करोड़ रु. की आधिक्य की रकम थी, जो उन्होंने रिजर्व बैंक को रात्रिपर्यंत की अवधि के लिए कर्ज में दी थी।

इसका मतलब यही है कि बैंकों की तरलता घट गई है और आधिक्य का कोष सीमित होता जा रहा है। जब आधिक्य का कोष कम होगा तो बैंकों को कंपनियों को कर्ज स्वीकृत करने की उतावली नहीं होगी एवं वे छोटी व मध्यम दर्जे की कंपनियों से प्रधान ब्याज दर (पीएलआर) से कुछ अधिक ब्याज माँगेंगी अर्थात प्रवाहिता महँगी होने लगेगी।

बात यहीं खत्म नहीं होती। गत कई माहों से माँग मुद्रा बाजार में भारतीय रिजर्व बैंक की रेपो (अल्प अवधि के लिए बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक से 7.75 प्रतिशत ब्याज पर लिया जाने वाला उधार) खिड़की बंद पड़ी रहती थी और कोई कामकाज नहीं होता था, किंतु 27 मई 2008 को रेपो में 13,000 करोड़ रु. बैंक ने भारतीय रिजर्व बैंक से उधार लिए एवं 26 मई 2008 को 5,000 करोड़ रु. उधार लिए। इससे जाहिर होता है कि बैंकों के सामने तरलता का संकट बढ़ गया है एवं वे सरकारी प्रतिभूतियाँ रिजर्व बैंक में रेहन रखकर उधार प्राप्त कर रही हैं।

भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने 3 से 10 वर्ष के लिए जमा खातों की ब्याज दर में 15 से 20 बिंदुओं की वृद्धि की है। यह वृद्धि बताती है कि बैंक के सम्मुख कोष की भारी कमी है। मार्च 2008 को समाप्त वर्ष में बैंकों की स्थिति बेहतर रही है, क्योंकि उनकी ब्याज की आय में 23 प्रतिशत की उल्लेखनीय वृद्धि हुई एवं गैर ब्याज आय (बगैर एनपीए) में 61 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

किंतु अब सीआरआर बढ़ने, जमा रकमों पर ब्याज दर बढ़ने, कर्ज की माँग घटने से बैंकों के निवल लाभ प्रभावित हो सकते हैं, किंतु बैंकिंग क्षेत्र का कहना है कि बैंकों के कामकाज पर कुछ खास असर नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि अभी भी देश में बचत दर 34 प्रतिशत से अधिक है यानी विकास दर बढ़ रही है एवं निवेश दर भी 36 प्रतिशत के करीब है। रियल एस्टेट एवं विकास क्षेत्र को बैंकें लंबी अवधि के बड़े कर्ज दे रही हैं।

सीमेंट, इस्पात, कंपोजिट शकर मिलों का कामकाज बेहतर है। रुपए की विनिमय दर घटने से गारमेंट एवं आईटी कंपनियों का कामकाज बेहतर हो रहा है। निर्यात में भी बैंक कर्ज की माँग बढ़ रही है। विश्लेषकों का कहना है कि अगर मानसून बेहतर रहता है तो अक्टूबर-नवंबर माह से तरलता की स्थिति में कुछ सुधार आ सकता है। हालाँकि रिजर्व बैंक तरलता घटाने के उपाय करती रहेगी।