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Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:32 IST)

कब होगा रिएक्टर ठंडा

परमाणु दुर्घटना होने की दी थी चेतावनी

कब होगा रिएक्टर ठंडा -
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जापान में शुक्रवार 11 मार्च को भूकंप के भारी झटके लगते ही फुकूशिमा परमाणु बिजलीघर के रिएक्टर अपने आप ठहर गए थे। इन झटकों ने बिजलीघर की बिजली ऐसी गुल की कि डीजल जनरेटर भी चालू नहीं हो पाए। वह सारा तंत्र ठप्प पड़ गया, जो इस तरह के आपातकाल को झेलने के लिए होता है। तब भी, ऐसा क्यों है कि फुकूशिमा के रिएक्टर न केवल अब भी गरम हैं, इस तरह और भी गरम होते जा रहे हैं कि उनके पिघल कर बह निकलने और भारी मात्रा में रेडियोधर्मी विकिरण फैलाने की आशंका से सारी दुनिया आतंकित है? सारी दुनिया प्रार्थना कर रही है कि नौबत यहाँ तक न पहुँचे

जापान से बाहर इस समय संभवतः जर्मनी में ही सबसे ज्यादा बेचैनी और घबराहट देखने में आ रही है। जर्मनी की सरकार ने अभी छह ही महीने पहले के अपने एक निर्णय को पलटते हुए देश के सात पुराने परमाणु बिजलीघरों को अस्थाई तौर पर फिलहाल तुरंत बंद करने और शेष 10 की अच्छी तरह जाँच-परख करने के बाद उनके भाग्य का फैसला करने की घोषणा की है।

जर्मनी के वैज्ञानिक और परमाणु विशेषज्ञ जापान में हो रही नाटकीय घटनाओं पर पैनी नजर रख रहे हैं। अपनी प्रयोगशालाओं में और कंप्यूटरों पर सारे घटनाक्रम का अनुकरण (सिम्युलेशन) कर रहे हैं।

इन जानकारियों के आधार पर जो तस्वीर बनती है, वह सचमुच काफी चिंताजनक है। दो रिएक्टर -नंबर 3 और 4 सबसे अधिक सिरदर्द पैदा कर रहे हैं। दोनों के भीतर नाभिकीय विखंडन की क्रिया तो शायद नहीं चल रही है, पर उनसे निकली यूरेनियम वाले ईंधन की पुरानी छड़ें समस्या पैदा कर रही हैं। इन छड़ों को ठंडा करने और लंबे समय तक ठंडा रखने के लिए रिएक्टर-भवन में ही सैकड़ों टन पानी से भरे रहने वाले टैंक बने हुए हैं।

छड़ें तो हैं, पर पानी नदारद
रिएक्टर नंबर 4 के टैंक में 250 टन और नंबर तीन के टैंक में 90 टन पुरानी छड़ें रखी हुई हैं। छड़ें तो हैं, पर पानी नदारद है। परमाणु ईंधन की छड़ें ईंधन खर्च हो जाने और रिएक्टर से अलग कर देने के बाद भी लंबे समय तक तपती रहती हैं। इसलिए उन्हें पानी के विशेष टैंक में रख कर ठंडा करना पड़ता है।

पानी को लगातार इस तरह बदलते रहना पड़ता है कि उसका तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से ऊपर न जाए, क्योंकि उसमें रखी छड़ें वॉटर हीटर की तरह उसे गरम करती रहती हैं। टैंक में लगातार ठंडा पानी पंप नहीं होने पर उसका तापमान इतना बढ़ सकता है कि पानी उबलने लगे और भाप बन कर उड़ जाए। दोनों रिएक्टरों के कूलिंग टैंकों में यही हुआ।

बिजलीघर की बिजली गुल
भूकंप आने के साथ ही बिजलीघर की बिजली गुल हो जाने के बाद से दोनो कूलिंग टैंकों के पंप ठप्प पड़ गए। उनमें नया पानी पहुँचना बंद हो गया। जो पानी पहले से था, वह इस बीच भाप बन कर अधिकांशतः या शायद पूरी तरह उड़ चुका है। यह भाप लगातार गरम हो रहे रिएक्टर की इमारत के नीचे पहले तो जमा होती रही। लेकिन, जब उसका दबाव इतना बढ़ गया कि इमारत की छत और दीवीरें उसे सह नहीं पायीं, तो वह धमाके के साथ उन्हें तोड़ कर हवा में फैल गई।

हाथबत्ती से काम चलाया
स्वयं रिएक्टर भी जब चल रहा होता है, तो उसका तापमान कुछेक सौ डिग्री सेल्सियस होता है। बंद होने के बाद भी उसे ठंडा होने में काफ़ी समय लगता है। उसकी इस समय स्थिति क्या है, कोई नहीं जानता। बिजलीघर की बत्तियाँ गुल होने से वे उपकरण, कंप्यूटर और अनेक प्रकार के मीटर भी काम नहीं कर रहे हैं, जिन्हें देख कर सही स्थित का पता चल सके। शेष बचे कर्मचारियों को हाथबत्ती (टॉर्च) से काम चलाना पड़ रहा था।

अनुमान यही है कि दोनो कूलिंग टैंकों का पानी लगभग सूख गया है। पुराने ईंधन की छड़ें तपने लगी हैं। हेलीकॉप्टरों से पानी गिराने और दमकलों से पानी डालने के प्रयास ऊँट के मुँह में जीरे के समान ही रहे।

बहुत कम समय है
जर्मन विशेषज्ञों का मानना है कि अगले कुछ घंटों में कूलिंग टैंकों में पर्याप्त नया पानी पहुँचाने में यदि सफलता नहीं मिली, तो उनमें रखी यूरेनियम ईंधन की छड़ों में या तो आग लग जाएगी या विस्फोट होगा। दोनों ही स्थितियों में कई-कई टन रेडियोधर्मी धूल और राख हवा में जा कर दूर- दूर तक फैलेगी।

इस बीच खबरें आ रही हैं कि रिएक्टर 3 वाले ब्लॉक से सभी कर्मचारियों को हटा लिया गया है। उस रिएक्टर में प्लूटोनियम की ईंधन-छड़ें रखी हैं और वहाँ से धुआँ निकल रहा है। लगता है,स्थिति तेजी से बिगड़ रही है।

नया पानी इस स्थिति को टाल सकता है। लेकिन, उसके साथ कुछ जोखिम भी जुड़े हैं। तपती छड़ों पर पड़ते ही पानी शुरू-शुरू में तुरंत भाप बन कर उड़ जाएगा और रेडियोधर्मी बदल का रूप ले लेगा। यदि छड़ों के बाहरी आवरण का तापमान 1200 डिग्री से ऊपर हुआ, तो पानी (और भाप भी) उसके साथ रासायनिक क्रिया द्वारा उसे भुरभुरा बना देगा।

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सब कुछ पिघलने की नौबत
ईंधन-छड़ें यदि समय रहते ठंडी नहीं की जा सकीं, और भी गरम होती गईं, तो उनका तापमान 2000 डिग्री से भी ऊपर जा सकता है। तब, ज़िर्कोनियम धातु का बना उनका बाहरी आवरण पिघलना शुरू हो जाएगा। तापमान 2800 डिग्री पहुँचने पर इस आवरण से लिपटे यूरेनियम के पेलेट भी पिघलने लगेंगे। यह सारा पिघला हुआ पदार्थ टैंक की पेंदी में जमा होने लगेगा और उससे न्यूट्रॉन कणों तथा अत्यंत रेडियोधर्मी गामा किरणों का विकिरण निकल कर चारो तरफ़ फैलने लगेगा। गामा किरणों की नौबत आ जाने पर बिजलीघर के आस-पास सारे राहत और बचाव कार्य तुरंत रोक देने पड़ेंगे।

परमाणु बम-जैसी अंतिम अवस्था
यही नहीं, कूलिंग टैंकों में फैल रही इस भीषण गर्मी से उनकी सीमेंट-कॉन्क्रीट की पेंदी और दीवारें भी पिघलने और भाप बनने लग सकती हैं। स्वयं बंद रिएक्टर में लगी धातुएँ भी पिघल सकती हैं या रिएक्टर में विस्फोट हो सकता है। यही परमाणु रिएक्टर में दुर्घटना की परमाणु बम-जैसी अंतिम महाविनाशक अवस्था है।

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भविष्यवाणी की अनदेखी की
आशा और प्रार्थना करनी चाहिए कि ऐसा नहीं होगा। वैसे, एक जापानी वैज्ञानिक ने 14 साल पहले, 1997 में ही जापान में भूकंप के बाद परमाणु दुर्घटना होने की आशंका जताई थी। उसने सरकारी अधिकारियों के लिए तैयार की गई एक रिपोर्ट में उन्हें आगाह भी किया था।

प्रोफ़ेसर डॉ. इशीबाशी कात्सुहिको भूगर्भशास्त्री हैं और जापान के कोबे विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। जर्मन रेडियो 'डोएचलांडफ़ुंक' पर 2005 में प्रसारित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था: 'गेन्पात्सु-शिन्साई' एक ऐसा नया जापानी शब्द है, जिसे मैंने 1997 में गढ़ा था। यह शब्द परमाणु दुर्घटना और भूकंप के बीच संबंध को अभिव्यक्त करता है। वह प्राकृतिक आपदा और मनुष्य-जनित विपदा के मेल से बने एक ऐसे अनिष्ट का पर्याय है, जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं झेला।'

कात्सुहिको ने 1997 में ही भविष्यवाणी की थी कि जापान में भूकंप और परमाणु दुर्घटना की दोहरी मार संभव है और 50 हजार से एक लाख तक प्राणों की बलि ले सकती है।

सन् 2005 में प्रसारित जर्मन रेडियो कार्यक्रम में उन्हें शिकायत थी कि सरकारी नौकरशाहों ने उनकी बात अनसुनी कर दी। आज प्रो. कात्सुहिको यही कहेंगे कि अधिकारियों ने यदि उस वक्त चेतावनी सुनी होती, आज जैसा दुर्दिन हमें नहीं देखना पड़ता।