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Written By WD

ग्वालियर गौरव - गोपाचल

ग्वालियर गौरव - गोपाचल -
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भूमंडलीयकरण एवं विश्वजनीयता के विकसित नारों के बीच जातीय पहचान की तलाश हो रही है। जातीय पहचान के लिए जातीय इतिहास और इसके लिए प्रमाणों की जरूरत होती है। अधिकांश विकसित राष्ट्र अपनी जातीय पहचान की तलाश में हैं। विश्व में प्रभुता और संस्कृति संपन्न देश भी अपनी जातीय संस्कृति का उत्स भारत में खोजने लगे हैं।

अँगरेज इतिहासकारों ने हमारी संपूर्ण जातीय संस्कृति के इतिहास को पाँच हजार साल पुराना घोषित किया है जबकि ग्वालियर की गुप्तेश्वर पहाड़ी और मुरैना के पहाड़गढ़ में प्राप्त साक्ष्यों ने यहाँ की संस्कृति को ही प्रागैतिहासिक माना है। इन पर्वत श्रृंखलाओं के भित्तिचित्र पाँच लाख वर्ष पुराने माने गए हैं।

वर्तमान ग्वालियर का इतिहास अनन्तकाल पुराना है। किंवदंती है कि गोकुल के श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ गोचारण करते हुए यहाँ स्थित पहाड़ी पर रुके थे। मार्कण्डेय पुराण में इस पहाड़ी और क्षेत्र को गोवर्धन पुरम्‌ कहा गया है।

यहाँ के एक मातृचेट (525 ई.) शिलालेख में इसे गोवर्धन गिरि मिहिर कुल राज्य के समय (527 ई.) गोपमूधर, गुर्जर प्रतिहारों के समय के शिलालेख में गोपाद्रि गोपगिरि, कच्छपघात (1115 ई.) के समय के शिलालेख में गोपाचल, गोप क्षेत्र, गोप पर्वत तथा विक्रम संवत्‌ 1161 के शिलालेख में ग्वालियर खेड़ा उद्धृत है। इस पहाड़ी पर ग्वालियर दुर्ग और इस दुर्ग में पत्थर की बावड़ी तुलसीदास की गुफा है।

किंवदंती है कि गोपाचल पर्वत पर ग्वालिय नामक साधु रहता था। उसने सूर्य सेन का चर्मरोग दूर कर दिया था। सूर्य सेन ने यह दुर्ग बनवाया। इतिहासकारों ने इसे अस्वीकार कर दिया है। ग्वालिय को ही कालांतर में गालव कहा जाने लगा।

इस गोपाचल पर्वत पर पालवंश (989 वर्ष), परिहार वंश (102 वर्ष), प्रतिहार (932 वर्ष), कच्छपघात (30 वर्ष), तोमर (138 वर्ष), लोदी (105 वर्ष), सिंधिया वंश (150 वर्ष) ने राज किया। लोदी और सिंधिया काल के मध्य शेरशाह सूरी तथा अकबर का अधिकार रहा है।

राजा डूंगरसिंह तथा कीर्तिसिंह के 55 साला शासनकाल में गोपाचल पर्वत (ग्वालियर दुर्ग) में सृष्टि को अहिंसा का पुनः संदेश देने तथा हिंदू धर्म में आई बलिप्रथा, रूढ़ियों तथा आडम्बरों में सुधारक जैन धर्म के तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उकेरी गईं। इनमें छह इंच से लेकर 57 फुट तक की मूर्तियाँ हैं। इनमें आदिनाथ भगवान की बावनगजा तथा भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा शामिल है।

जैन मूर्तियों की दृष्टि से ग्वालियर दुर्ग जैन तीर्थ है, इसलिए इस पहाड़ी को जैन गढ़ कहने में संकोच नहीं होना चाहिए। डूंगरसिंह ने जिस श्रद्धा एवं भक्ति से जैन मत का पोषण किया था, उसके विपरीत आक्रमणकारी शेरशाह शूरी ने पर्वत की इन मूर्तियों को तोड़कर खंडित किया।

किंवदंती है कि उसने स्वयं पार्श्वनाथ की प्रतिमा को खंडित करने के लिए घन उठाया था, लेकिन उसकी भुजाओं में शक्ति नहीं बची थी। इस चमत्कार से भयभीत होकर वह भाग खड़ा हुआ था। अकबर ने चंद्रप्रभु की मूर्ति हटवाकर, बाबर की सेना की मदद करने वाले मोहम्मद गौस के शव को वहाँ दफना दिया, जिसे आज मोहम्मद गौस का मकबरा कहा जाता है। इसका प्रमाण महाकवि खड़्‌गराय की ये पंक्तियाँ हैं-

विधिना विधि ऐसी दई, सोई भई जु आइ ।
ंद्र प्रभु के धौंहरे, रहे गौस सुख पाइ ॥