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Written By WD

रवींद्रनाथ ठाकुर का ऐतिहासिक पत्र

अपने धर्म के रक्षण में मृत्यु भी श्रेयस्कर है

Ravindranath Thakur letter | रवींद्रनाथ ठाकुर का ऐतिहासिक पत्र
संकलित

विश्व कवि श्री रवींद्रनाथ ठाकुर ने ‍ित्रपुरा के महाराज कुमार बृजेन्द्र किशोर देव वर्मा को लिखे अपने पत्र में पश्चिमी सभ्यता के मोह में फँसे भारतवासियों की स्थिति का वर्णन किया है। तथाकथित शिक्षित मनुष्य भारत का उपहार करने में अपना गौरव समझते हैं। वे बर्बरता को ही सभ्यता समझ बैठे हैं। गुरुदेव का कहना है कि हम लोग पृथ्वी पर प्राचीनतम देश की संतान हैं। पराये धर्म को स्वीकार करने की अपेक्षा मृत्यु स्वीकारना श्रेष्ठ है। यह पत्र गुरुदेव ने शांति निकेतन से दिसंबर 1902 में लिखा -

शांति निकेतन,
बोलपुर

जिस अवस्था जिसके साथ, जिस शिक्षा के अंदर ही क्यों न हो भारतवर्ष के आदर्श को किसी भी रूप में हृदय में ग्लान नहीं होने देना। यह हमेशा याद रहे कि यूरोपीय बर्बर जातियाँ भारत वर्ष का सही मूल्यांकन न कर इसका उपहास करती है। इस उपहास की पूर्ण रूप से उपेक्षा करना। तुम्हारे शिक्षक यदि भारत वर्ष की निंदा करें तो तुम उस निंदा को मौन रूप से ठुकरा देना। हो सकता है मेरे विद्यालय में तुम्हारा न आना ही ठीक हो क्योंकि मैं मनुष्य की आलोचना के बाहर, अकेले में, काम करना चाहता हूँ। तुम्हारे यहाँ आने से अनेक प्रश्न उठ सकने के कारण शोर-शराबा होने से मेरे कार्य की शांति भंग होने की संभावना है।

मैं भारत वर्ष की ब्रह्मचर्याश्रम की परंपरा के अनुसार अपने शिष्यों को निर्जन में, पवित्र, निर्मल भाव से मनुष्य बनाना चाहता हूँ। इन लोगों को सब प्रकार के विदेशी भोग विलास व विदेशी अंधानुकरण से दूर रखकर भारतवर्ष की ग्लानि हीन पवित्र दरिद्रता में शिक्षित होने देना चाहता हूँ।

तुम भी ब्रह्म रूप से, बल्कि हृदय से, यही दीक्षा ग्रहण करो। मन में ऐसा दृढ़ निश्चय कर लो‍ कि दरिद्रता अपमान नहीं है। लंगोटी धारण करने में लज्जा नहीं है, चौकी टेबल का अभाव लेशमात्र भी असभ्यता का द्योतक नहीं है। जो लोग धन-संपदा व्यवसाय, भौतिक सुख-साधनों इत्यादि की प्रचुरता को सभ्यता कहते रहते हैं। शांति में, संतोष में, मंगल में, क्षमा में, ज्ञान में, ध्यान में ही सभ्यता है।

सहिष्णु, संयमित तथा पवित्र होकर, अपने अंदर स्वयं को समाहित कर बाहरी समस्त आकर्षण एवं कलरव को परे कर, संपूर्ण श्रद्धा से, एकाग्र साधना द्वारा, पृथ्वी के ऊपर प्राचीनतम देश की संतान होने के कारण, प्रथम सभ्यता के अधिकारी होने के कारण, बंधन से मुक्ति लाभ के आस्वादन को प्राप्त करने हेतु तैयार हो जाओ। तुम मौखिक रूप से वाद-प्रतिवाद कर, अकारण संघर्ष कर अपनी शक्ति नष्ट न करें।

नितांत मौन रहकर, अटल निष्ठा सहित, एकांत चित्त से संपूर्ण रूप से आत्म समर्पण करो। तुम्हारी वर्तमान शिक्षा के उपरोक्त भावों के प्रतिकूल होने के बावजूद इस संघर्ष में तुम्हारी दृढ़ता और भी द्विगुणित होगी। यह विरोध ही तुम्हारी शिक्षा का कारण होगा। मैं जानता हूँ कि तुम्हारे हृदय में भारतवर्ष का सहज गौरव स्वयं ही विराजमान है, इतने समय तक अनेक समस्याओं से तुम्हारी रक्षा की है एवं अभी भी वह तुम्हारा परित्याग नहीं करेगा।

अँग्रेजी शिक्षकगण तुम्हारे इस स्वाभाविक तेज को ग्लानकर अपनी ओर आकृष्ट करने की अनेक चेष्टाएँ करेंगे। इस प्रतिकूल प्रयास में तुम्हारा तेज और निखरकर तुम्हें इस दुरूह परीक्षा में उत्तीर्ण करे। भारत माँ का आशीर्वाद तुम्हारी रक्षा करे, ईश्वर के अभय हाथों से तुम्हारी रक्षा हो।

तुम्हारी अपनी प्रतिभा तुम्हारी रक्षा करे। दूसरे धर्म को ग्रहण करने की अपेक्षा अपने धर्म की रक्षा में मृत्यु वरण करना ही श्रेयस्कर है - यह परम सत्य है। इसे अपने हृदय में बैठा लो।

बीच-बीच में पत्र लिखकर मुझे आनंदित करते रहना। अगले वर्ष तुम नवीन तेज, नवीन बल से भारत की संतान होने का व्रत ग्रहण करो और इस व्रत को प्राणों से भी बड़ा मानकर मृत्युपर्यन्त पालन करो।