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Written By WD

दृढ़ संकल्प प्राप्त करने का सूत्र

पुस्तक 'सकारात्मक सोच की कला' से अंश...

दृढ़ संकल्प प्राप्त करने का सूत्र -
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तैतरीय उपनिषद में एक शांति पाठ है, जो साधकों में दृढ़ संकल्प विकसित करने की प्रेरणा देता है। यह ऋषि त्रिशंकु की आध्यात्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति है।

ॐ अहम् वृक्षस्यरेरिया कीर्ति: पृष्ठम् गिरेरिया।
उर्ध्वापवित्रो वाजिनीवा स्वमृतमस्मि।
द्रविणं सुर्वचसाम्, सुमेधा, अमृतोक्षित:।
इति त्रिशंकोर्वेदानुवचनम्। ॐ शांति:, शांति:, शांति:।- तैतिरीयोपनिषद 1/10/1

'मैं सांसारिकता के इस वृक्ष को निर्मूल करने वाला हूँ। मेरी महिमा शैलशिखर से भी अधिक ऊँची है। मेरी प्रज्ञा स्वर्ग को प्रकाशित करने वाले सूर्य से भी अधिक ज्योतिर्मय है। मैं अमरता का जीवंत स्वरूप हूँ। मेरी श्री, समृद्धि और वैभव चमकती हुई निधि है। मेरी बुद्धि अमरत्व के जल से परिशुद्ध हो चुकी है। अपने आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर त्रिशंकु ने उद्‍घोषित किया। ॐ शांति:, शांति:, शांति:।'

जीवात्मा में जब अनंत शक्ति की चेतना हो जाती है तब वह भी त्रिशंकु के समान घोषित करता है, 'मैं इस सांसारिक प्रपंच के चक्र को गति‍शील करने वाला हूँ।' संकल्प शक्ति विकसित करने का उद्देश्य अपनी चेतना से सांसारिकता को निर्मूल कर यह अनुभव करना है, 'मैं यह नश्वर व्यक्ति नहीं, वरन अद्वैत, शाश्वतात्मा हूँ।'

माया के कारण सांसारिकता की भावना व्यक्ति की चेतना में एक गाँठ या रसोली की तरह है, जिससे मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। पहले सांसारिक प्रपंच के वृक्ष को हिलाना होगा और फिर जड़ से निकालकर फेंकना होगा। जब तक सांसारिकता के इस वृक्ष को उखाड़ फेंकने का संकल्प नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति का संकल्प दुर्बल और महत्वहीन रहता है।

उदाहरण के लिए मान लें कि आप रेफ्रिजरेटर, घर, सम्पत्ति अथवा किसी मित्र का पत्र प्राप्त करने का संकल्प करते हैं। जब ये चीजें आपको मिल जाती हैं, तो आप यह सोचकर अध्यधिक प्रसन्न हो जाते हैं कि आपका संकल्प पूरा हुआ परंतु अन्तत: आपके संकल्प को इतना परिशुद्ध हो जाना चाहिए कि यह ईश्वरीय संकल्प के साथ तादात्म्य बना ले। दोनों एक हो जाएँ।

संत-महात्मा उस अवस्था में आ जाते हैं जहाँ वे अहंकारिक संकल्प को पूरी तरह से नियंत्रित कर उसे निष्क्रिय बना देते हैं। इसके विपरीत के अनुभव करते हैं, 'यह मेरी इच्छा नहीं, ईश्वरेच्छा बने।' अपने अंदर अत्यंत संकल्प शक्ति प्राप्त करने के लिए उपरोक्त के आधार पर आपको कुछ निर्देश दिए जा रहे हैं।

अहम् वृक्षस्यरेरिया :
'मैं इस सांसारिक प्रपंच के वृक्ष को निर्मूल करने वाला हूँ।' आप जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ने वाले दुर्बल व्यक्ति नहीं हैं। सद्ग्रंथों के स्वाध्याय और उसके अर्थ पर चिंतन करते हुए अपने वास्तविक स्वरूप का अन्वेषण कीजिए। संसार आपको नहीं हिला सकता परंतु आप ऐसी शक्ति हैं कि चेतना में विद्यमान सांसारिकता के वृक्ष की जड़ों को हिलाकर हमेशा-हमेशा उखाड़ सकते हैं।

कीर्ति: पृष्म् गिरेरिवा :
'पर्वतों से भी ऊँची हमारी महिमा है।' इस संसार में किसी नश्वर महिमा और यश प्राप्ति की आवश्यकता नहीं क्योंकि आत्मा की महिमा पर्वतों की तुंग ऊँचाई से भी अधिक भव्य है। आपकी अंतरात्मा ही ब्रह्म है।

उर्ध्वापवित्रो वाजिनीवा : 'स्वर्ग से ऊपर चमकते सूर्य से भी अधिक प्रकाशवान हमारी अंत:प्रज्ञा है।' आत्मानुभूति के पश्चात साधक स्वर्ग की सापेक्ष धारणा से ऊपर उठ जाता है। सद्‍कर्मों के परिणामस्वरूप स्वर्ग इत्यादि की प्राप्ति परमानंद की तुलना में नगण्य और तुच्छ है।

द्रविणं सुर्वचसाम् : 'मेरी समाधि चमकती निधि है।' यह आत्मानुभूति की निधि है। जब आप अपने ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तो जो कुछ भी है, उसके स्वामी आप स्वयं बन जाते हैं। आने-जाने वाला यह कोई साधारण खजाना नहीं है। जब आपको आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है तो हमेशा-हमेशा आपके पास रहने वाली अनंत निधि आपको मिल जाती है।

सुमेधा अमृतोक्षित: : 'मेरी बुद्धि अमरत्व के जल से परिशुद्ध हो गई है।' इसका अर्थ है कि आपकी बुद्धि समाधि के जल से परिशुद्ध हो चुकी है। अब यह कोई सामान्य बुद्धि नहीं रही बल्कि इसका रूपांतरण अंत:प्रज्ञा में हो चुका है।

इति त्रिशंकोर्वेदानुवचनम् : 'जब ऋषि त्रिशंकु गहन ध्यान में डूब गए तो यही उनकी अभिव्यक्ति थी।'

तीन बार शांति का उच्चारण तीन प्रकार के दु:खों को समाप्त करने के लिए किया जाता है।
1. मन और शरीर से संबंधित आत्मनिष्ठ दैहिक दु:ख।
2. दूसरे लोक और संसार द्वारा प्रदत्त वस्तुनिष्ठ भौतिक दु:ख।
3. व्यक्ति की शक्ति से परे तूफान, भूकंप, प्राकृतिक प्रकोप इत्यादि के रूप में दैविक दु:ख।

इस शांति पाठ के अर्थ का चिंतन कर सांसारिकता के वृक्ष को निर्मूल कर भव्यता की असीम ऊँचाई पर आसीन हो परमानंद का अनुभव कीजिए।

साभार : Tha Art of positive Thinking (समारात्मक सोच की कला। लेखक स्वामी ज्योतिर्मयनंद। अनुवादक योगिरत्न डॉ. शशिभूषण मिश्र)
सौजन्य : इंटरनेशनल योग सोसायटी (गाजियाबाद)