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Written By WD

गुरुदेव आचार्य उमेशमुनिजी

जीवनपर्यंत समझाई मोक्ष की महत्ता

Acharya Umeshmuniji | गुरुदेव आचार्य उमेशमुनिजी
जन्म : 7 मार्च 1932
अवसान : 18 मार्च 2012
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60 वर्ष पूर्व मुनिश्री उमेशमुनिजी ने मोक्ष पाने के लिए पुरुषार्थ करते रहने का संदेश संपूर्ण मानव जाति को देने के लिए जिस कठिन यात्रा की शुरुआत की थी, उस यात्रा के स्थायी विश्राम हेतु उनके ही नाम का पर्याय महादेव की नगरी उज्जैन से ज्यादा उचित स्थान और कोई नहीं हो सकता था।

झाबुआ जिले के थांदला अंचल में धन संपदा की दृष्टि से शीर्ष पर मौजूद घोड़ावत परिवार में 7 मार्च 1932 को जन्मे उमेशमुनिजी ने सारे सुख और वैभव को पूरी निष्ठुरता से ठुकरा दिया था, वह भी मात्र 23-24 वर्ष की आयु में।

उन्होंने जीवनपर्यंत मनुष्य जीवन तथा मोक्ष की महत्ता व सार्थकता को समझने का अथक प्रयास किया। आप जैन से परे जन-जन की आस्था के केंद्र बन गए थे। प्रत्येक आत्मा निर्दोष बने और कपट-कषाय के मेल से मुक्त हो, इसके लिए मुनिश्री ने न केवल अपना जीवन अर्पित कर दिया, अपितु उन्होंने 'मोक्ष पुरुषार्थ' के नाम से 7 पुस्तकों का ऐसा अभिनव दिव्य संसार रचा, जो सदियों तक भौतिकता की निरर्थकता व मोक्ष की सार्थकता को हर युग में स्थापित करता रहेगा।

मृत्यु का आभास कुछ दिनों पूर्व हो जाने की तो अनेक घटनाएं देखी व सुनी जाती रही हैं, लेकिन संपूर्ण स्वस्थ अवस्था में 4 वर्ष पूर्व मृत्यु के आभास की सूचना दे देना किसी दिव्य आत्मा के लिए ही संभव हो सकता है। उमेशमुनिजी ने अपनी संयम यात्रा में पहली बार एक साथ अपने लिए तीन वर्षावास धार, करही व ताल में करने की घोषणाएं कर दी थीं।

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इतना ही नहीं, इन वर्षावासों के पूरा होने के बाद अपने लिए स्थिरवास के रूप में बदनावर की भी घोषणा उन्होंने अग्रिम रूप में कर दी थी और यह भी कि 'मेरा अंतिम समय विहार के बीच रास्ते में ही होगा।' ये सभी घटनाएं एक के बाद एक ठीक सिलसिलेवार रूप में घटती चली गईं।

कहा जाता है कि अंधेरे का चरम बिंदु अमावस्या होती है। अमावस्या से आगे प्रकाश यात्रा शुरू होती है।

गुरुदेव के रूप में विख्यात उमेशमुनिजी के जन्म ने इस सत्य को साक्षात किया है। उनका जन्म अमावस्या में ठीक रात 12 बजे हुआ था। बाद में उनके जीवन ने प्रकाश की शाश्वत यात्रा से साक्षात्कार करवाया। उनकी संपूर्ण संयम यात्रा समाधान की यात्रा है।

अंदर की ओर, आत्मा की ओर लौटने की यात्रा है। उनकी यात्रा शरीर को साधक बनाकर ईश्वर तक पहुंचने की, मोक्ष तक जाने की साधना की यात्रा है। उनकी इस यात्रा में साधक उनके साथ केवल चलता ही नहीं बहता भी है। और आत्मा की मलिनता को दूर करने का अत्यंत कठिन उपक्रम पल-पल देखता व महसूस करता है।

लाखों साधकों के लिए ज्योति-पुंज बन चुके उमेशमुनिजी पूरे जीवन सरलता, सादगी व शास्त्रोक्त जीवन के प्रतिमान बने रहे। प्रतिदिन व्याख्यान, प्रवचन व उपदेश देने वाले उमेशमुनिजी के जीवन में प्रतिदिन खामोशी का भी स्थान रहा है।

वे नियमित रूप से दिन में प्रवचन के पश्चात व रात्रि में स्वाध्याय से पूर्व प्रशस्त ध्यान क्रिया करते थे। इस ध्यान प्रक्रिया में हजारों साधक उनसे जुड़ते थे। उन्होंने संयम-साधना में सच कहने की पहली आवश्यकता का हमेशा पालन किया।

उमेशमुनिजी जब तक सांसारिक जीवन में रहे, औच्छव लाल के रूप में उन्होंने उस युग के सुश्रावक लालचंद कांकरिया को और संयम-जीवन के लिए प्रख्यात जैन संत सूर्यमुनिजी को अपना गुरु बनाया। शरीर उनके लिए केवल साधना का साधन था।

आत्मा से अलग हुए उनके शरीर को देखकर लगता है कि वे अपनी खामोशी के माध्यम से किसी महान शक्ति से खूब वार्तालाप कर रहे हैं। किसी पिंड से ऊर्जा प्राप्त कर रहे हैं। उनकी खामोशी पूरी तल्लीनता से समय के साथ आध्यात्म के राजमार्ग को चैतन्यता प्रदान कर रही है।

- सुरेन्द्र कांकरिया