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Written By WD

पुण्‍यतिथि पर विशेष

बलवंत से लोकमान्‍य तक...

पुण्‍यतिथि पर विशेष -
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नूपुर दीक्षित
1 अगस्‍त लोकमान्‍य तिलक की पुण्‍यतिथि है। लोकमान्‍य तिलक का वास्‍तविक नाम बलवंतराव था। बलवंतराव से लोकमान्‍य बनने का उनका सफर चुनौतियों, मुश्किलों और विसंगतियों से भरा था। फौलादी दिल और मजबूत इरादों वाले तिलक के आगे और कोई मुश्किल, कोई चुनौती सर उठाकर खड़ी नहीं हो सकी।

तिलक सिर्फ एक स्‍वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे, वो भारतमाता के एक ऐसे सपूत थे जो अकेले ही कई मोर्चों पर लड़ रहे थे। अँग्रेजों की कैद में उन्‍होंने 'गीता रहस्‍य' नामक ग्रंथ की रचना की, इस ग्रंथ के माध्‍यम में उन्‍होंने भगवत् गीता का संदेश सरल भाषा में समझाने का प्रयास किया। केसरी और मराठा का संपादन किया।

आज उनकी पुण्‍यतिथि के अवसर पर प्रस्‍तुत है, उनके जीवन का एक ऐसा प्रसंग जो उनके फौलादी मन की दास्‍तान कहता है। इस प्रसंग के साक्षी रहें एक अँग्रेज का मन भी तिलक का स्‍वाभिमान और हठ देखकर पिघल गया और उसने यह स्‍वीकार किया कि इस व्‍यक्ति का दिल और दिमाग किसी खास मिट्टी से बना है।

अँग्रेज सरकार ने 14 सितंबर 1897 को राजद्रोह के आरोप में उन्‍हें गिरफ्तार किया और मुकदमा भी चलाया। वे किसी भी तरह उन्हें अपने लोगों व हिन्दुस्तान से दूर रखना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी सरकारी मशीनरी को उनके खिलाफ लगा दिया था।

उधर उनकी पत्नी बीमारी के चलते बहुत कमजोर हो चली थी। घर की दुनियादारी का तकाजा और राजनीति, इस भागमभाग में घर की देखभाल के लिए तिलक ने भानजे विद्वांस को अपने घर का भार सौंप रखा था। ताजिंदगी मामा का एक पैर हमेशा जेल में होने से विद्वांस भी इस जिम्मेदारी को संभालने की हरसंभव कोशिश कर रहा था।

एक दिन गोरे सार्जेट को मुंबई से एक गुप्त संदेश मिला- 'कैदी बाल गंगाधर तिलक को राजद्रोह के इल्जाम में दोषी करार देकर हिन्दुस्तान से दूर मंडाला जेल में बची जिंदगी गुजारनी होगी। सजा के लिए रवाना होने से पूर्व सरकार ने कैदी को पुणे में अपने घर जाकर 2 घंटे परिवारजनों से आखिरी मुलाकात और जरूरत का सामान ले जाने की सुविधा जरूर दी थी। अँग्रेज अधिकारियों ने कड़ी नजर रखते हुए पुणे मेघर पमुलाकात के पश्चात रातभर कड़े बंदोबस्त में रखने का सख्त आदेश जारी किया था।'

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आधी रात गुजर चुकी थी। पथरीली राह पर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आवाज न हो, बग्घी धीरे-धीरे चलाने का आदेश था। परदे इस तरह से बंद किये गए थे कि अंदर कौन है, इसका पता चाँदनी रात में भी किसी को न चले, बग्घी नारायणपेठ के गायकवाड़ बाड़े की ओर बढ़ी जा रही थी, जिसके साथ 10-15 पुलिस के जवान हाथ में बंदूक लिए नंगे पैर दौड़ रहे थे। अंदर बीमार तिलक की कमजोर कलाई अपने मजबूत पंजे में पकड़े गोरा सार्जेंट बैठा था।

राह का अँधेरा चाँद डूबने के साथ बढ़ता जा रहा था। बाड़े की ड्यौढ़ी का दरवाजा सिपाही ने खटखटाया। चौकीदार के दरवाजा खोलते ही दो सिपाही अंदर दाखिल हुए। तब तक तिलक और गोरा सार्जेंट भी बग्घी से उतर चुके थे 'यह आपका घर है?' धमकाते हुए सार्जेंट ने पूछा।

तिलक कुछ कहते उसने पहले ही पुलिस के जवान सार्जेंट के कान में फुसफुसाया। तिलक सहित सार्जेंट दरवाजे से भीतर गया। हवलदार ने जल्दी से आगे बढ़ घर के लोगों को जगाया। 'बलवंतराव (तिलक का वास्तविक नाम) को लाया है' सामने सिर को रुमाल लपेटते आगे आते विद्वांस को देख भारी आवाज में बोला। बरामदा चढ़ बलवंतराव अंदर आए। पुलिस ने दूरी कायम रखते हुए उन्हें अपने परिवारजनों से मिलने की इजाजत दी तब तक 'कालापानी', 'मंडाले' लफ्ज विद्वांस के कानों पर पड़ चुके थे।

'ईश्वर इच्छा' इतना ही विद्वांस के मुँह से निकला और अंदर को मुड़ते उसने पुकारा ताई... ताई! अपने दादा आए हैं। दादा आए हैं, बच्चों को जगाकर बाहर लाओ। तिलक दो कदम आगे आए। भांजे के कंधे पर अपना कमजोर हाथ रखते गंभीर स्वर में बोले- 'इसकी कोई जरूरत नहीं। समय इम्तहान का है। बच्चों को नींद से जगाना ठीक नहीं। एक न एक दिन तो यह होना ही था।'

पीछे मुड़ सार्जेंट को देखते बोले- रहम दिल अँग्रेज सरकार ने मुझे यहाँ मुलाकात के लिए आधे घंटे की इजाजत दी है, सो मैं जो कह रहा हूँ उसे ध्यान से सुनो। मुझे कुछ किताबें और जरूरत का सामान बाँधकर दो। सफर बहुत लंबा है उसे कैसे पूरा करना है मैं देखूँगा, पर यहाँ की सारी जिम्मेदारी तुम पर है, वक्त जाया मत करो। बलवंतराव ब्यौरेवार हिदायतें दे रहे थे। भानजा भौंचक अंदर-बाहर आ जा रहा था। गठरी बाँधी जा चुकी थी।

...तभी अंदर की दहलीज में दीये के लगने का अंदाजा तिलक को हुआ, चूड़ियों की खनक कानों पर पड़ी। सख्त चेहरे का गोरा सार्जेंट कोने ही में खड़ा था। उसके कमर में अटकी पिस्तौल का सिरा दीवार के स्पर्श के साथ लोहे की आवाज कर रहा था। अपनी वर्दी में हाथ डाल घड़ी बाहर हाथ में पकड़ रखी थी। उसकी कंजी आँखें तेजी से इधर-उधर घूम रही थीं। वह भी अंदर के दरवाजे की ओर देख ही रहा था।

किताबों के गट्ठे बाँधे गए, कुछ दवाइयाँ भी जतन से अँगोछे में बाँधी गईं। सत्तू के आटे की एक गठरी भी साथ में तैयार थी। इसी दौरान अंदर के दरवाजे से बच्चे के रोने की आवाज ही के साथ दबी आवाज में उसे किसी ने डाँटकर चुप किया। यह सब बाहर भी पता चल रहा था। और कुछ? भानजे ने गमगीन स्वर में बुदबुदाते पूछा- 'लेकिन यह सजा खत्म कब होगी?'

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तिलक ने बगैर कुछ कहे आसमान की तरफ इशारा किया। लेकिन फिर तुरंत पीछे मुड़ सार्जेंट से बोले- 'चलें, मेरा यहाँ का काम खत्म हुआ, मैं तैयार हूँ। सार्जेंट ने हाथ घड़ी को देखते अंदर नजर दौड़ाई। अपने लफ्जों को आहिस्ता गिनते वह बोला- 'मिस्टर तिलक, सरकार द्वारा आपको दिया वक्त खत्म हो चुका, लेकिन मैं अपनी इजाजत से आपको थोड़ा वक्त देता हूँ। आपने अपनी पत्नी से अभी बिदाई नहीं ली है। बच्चों से भी तो मिलना बाकी है। मैं 10 मिनट ठहरता हूँ।

'नॉट नेसेसरी!' मैं यह जरूरी नहीं समझता। जिंदगी भर मैं आपसे लड़ता रहा। और अब इस उतरती उम्र में भी मुझे आपसे किसी रियायत की उम्मीद नहीं है।

धीमे-धीमे कदमों से बलवंतरावजी ने आँगन को पार किया, अब दरवाजा पूरा खुला था। दहलीज पर बलवंतराव के कदम पड़े। और आँगन में धुँधले उजाले के खेल में पीछे बरामदे में उन्होंने किसी के होने के अहसास को महसूस किया। पलभर को तो मन भी बेचैन हुआ। अंदर ही अंदर कहीं लगा, महसूस हुआ एक बार पीछे मुड़कर तो देख ले, पर नहीं! यही तो इम्तहान की घड़ी है। लोकमान्य बनना है तो दिल फौलादी होना ही चाहिए।

बग्घी में चढ़ने के लिए तिलक ने सीढ़ियों पर एक कदम आगे बढ़ाया। पीठ पीछे गोरा सार्जेंट खड़ा ही था। इस बीच नियति ने जाने कैसे बलवंतरावजी के फौलादी दिल पर अपनी मोहिनी डाल ही दी बोली- 'अरे पीछे धर्मपत्नी है। तुम्हारी चिंता में बेचारी अभी से अपनी मौत पुकार रही है। कम से कम एक नजर तो! पीछे मुड़कर देखो।

सीढ़ियों पर रखा पैर पीछे लेकर बलवंतरावजी ने उस खुले दरवाजे से अंदर निहारकर देखा। बरामदे की सीढ़ी पर भानजा हाथ में दीया पकड़े खड़ा था। उसी के नजदीक सिर पर पल्ला लपेटे बलवंतरावजी की धर्मपत्नी तिरछी खड़ी थी। उनकी कमर को बच्चों ने जकड़ रखा था। एक हाथ से बच्चों को थपथपाती, दूसरे हाथ पल्ले से आँसू पोंछ रही थी...

दोनों की नजरें मिलें, इसके पहले पता नहीं क्यों आँखों ने किस जनम का बैर साधा और ...आँसू के सैलाब में नजरें मिल न सकीं जुदा हो गईं। पलभर में लोकमान्य तिलक ने खुद को सहेजा हमेशा की ऊँची गरजदार आवाज में सार्जेंट से बोले- 'चलो देर हो रही है'। और बुदबुदाए 'वासासि जीर्णानी यथा विहाय'।

उस रात सार्जेंट ने रोजनामचे की डायरी में लिखा-

'हुक्म की तामील आदेश के मुताबिक ही हुई। कैदी को अगले सफर के लिए सुबह रवाना कर रहा हूँ। मगर एक बात खासतौर से दर्ज करने की इजाजत चाहूँगा। यह कैदी कोई सामान्य कैदी नहीं। इसका दिल और दिमाग किसी खास मिट्टी से बना है। ऐसा एक और तैयार हो गया तो ब्रिटिश साम्राज्य का अस्त दूर नहीं।'