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Written By WD
Last Modified: मंगलवार, 13 अगस्त 2013 (20:12 IST)

आम आदमी के लिए आजादी के मायने...

आम आदमी के लिए आजादी के मायने... -
आजादी के इतने सालों बाद आज भी आम आदमी के मन यह सवाल उठता है उनके लिए आजादी के मायने क्या हैं? एक तरफ सरकार आम लोगों को भोजन और रोजगार की गांरांटी दे रही है तो दूसरी तरफ देश के कई इलाकों में अब भी बहुसंख्य जनता भुखमरी की शिकार है। देश का किसान आत्महत्या करने को मजबूर है।

हर तरफ लूट खसोट मची है, घोटालों और भ्रष्याचार से देश की जनता त्रस्त हो चुकी है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या हमारे देश के वीर शहीदों ने इसी भारत का सपना देखा था? बिल्कुल नहीं...। देश के अमर सेनानियों ने जिस भारत की कल्पना की थी वो आत्मनिर्भर था। वह समानता और भाईचारे पर आधरिता था।

पिछले कई सालों की तरह इस साल भी हम अपना स्वतंत्रता दिवस पूरे तामझाम के साथ मनाएंगे। जाहिर सी बात है, भव्य कार्यक्रम होंगे नई घोषणाएं होंगी और देशवासियों के सामने फिर से तमाम बड़े-बड़े वायदे होगें।

उपलब्धियों की वाहवाही होगी और आतंकवादियों, चरमपंथियों को फिर एक कड़ी चेतावनी दी जाएगी। फिर जैसे ही आयोजन खत्म होगा, फिर से सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा। तमाम वादे भुला दिए जाएंगे और सबकुछ बेखौफ चलता रहेगा। यही वजह है कि आजादी की 67वीं वर्षगांठ के हर्षोल्लास के माहौल में भी मन पूरी तरह खुशी का आनन्द महसूस नहीं कर पा रहा है, मन में एक खिन्नता है, लगता है जैसे आज भी कुछ अधूरा है। कहने को तो हम आजाद हो गए हैं, लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर जरा खुद से पूछिए क्या आपका मन इस बात की गवाही देता है, नहीं..तो क्यों?

...ये समस्याएं और फिर भी हम आजाद हैं?


आजाद देश उसे कहते हैं जहां आप खुली साफ हवा में अपनी मर्जी से सांस ले सकते हैं, कुदरत के दिए हुए हर तोहफे का अपनी हद में रहकर इस्तेमाल कर सकते हैं, जहां अधिकारों और कर्तव्यों का बराबरी से निर्वाह किया जाए। लेकिन अपने यहां तो कहानी ही उलटा है। आम आदमी के लिए यहां न पीने का साफ पानी है न खुली साफ हवा, न खाने को भोजन है, न सोने को घर, कर्तव्यों पर अधिकार हावी है, फिर भी हम आजाद हैं?

याद होगा नक्सलवाड़ी आंदोलन का वह दिन। यह कहने की जरूरत नहीं कि सन् 1969 में नक्सलवाड़ी का विद्रोह आम जनता द्वारा आजादी को लेकर पाले गए उसके सपनों के टूटने की पहली प्रतिक्रिया थी। हमारा शासक वर्ग जिस तरह से दिन-प्रतिदिन आम आदमी पर काले कानून लाद रहा है, ठीक उसी तरह पीड़ित और उपेक्षित समुदाय अपने-अपने तरीके से संघर्ष कर रहा है। जिसे देश के कई भागों में देखा जा सकता है। कहीं आरक्षण की मांग हो रही है तो कहीं आरक्षण के अंदर आरक्षण की, कहीं अलग राज्य की मांग की जा रही है रही है तो कहीं दूसरे अधिकारों की। देश का काई भी इलाका इस तरह की मागों से अछूता नहीं है।

बात यहीं तक सीमित नहीं है। आजादी के बाद कई चीजें आम आदमी से दूर हो गई, जो उनके मूल अधिकारों में शामिल होनी चाहिए थी। आजादी के 67 साल बाद भी देश की 76 फीसदी जनता 20रूपये से कम पर गुजारा कर करने को मजबूर है। हम आज भी करोड़ों लोगों को उनके सिर पर एक अदद छत तक मुहैया नहीं करा पाए हैं।

प्रशासन और आम आदमी के बीच एक खतरनका स्तर तक की गैपिंग हो चुकी है जिससे हर तरफ भ्रष्टाचार का दानव विकराल रूप धारण कर चुका है। लोग आज भी भूख से मर रहे हैं। जनता आज भी कमरतोड़ महंगाई से पिस रही है। लेकिन सरकार के पास कोई योजना नहीं है इससे निपटने के लिए। साफ है कि दिन ब दिन अमीर होते भारत में आम जनता अपनी हालत पर आंसू बहाने को आज भी मजबूर है।

दरअसल आजादी के इतने सालों तक हमारे शासक वर्ग ने आज तक हमसे सिर्फ झूठे वादे किए और झूठी कसमें खाईं। समस्या के समाधान के नाम पर एक के बाद एक नई समस्या खड़ी की गई। साल दर साल आम आदमी हाशिए पर खड़ा होता गया। आज आम आदमी के पास आजादी का जश्न मनाने को कुछ भी नहीं बचा है। वह किस चीज पर गर्व करके आजादी का जश्न मनाए?

वास्तव में किसी भी देश की जनता की खुशहाली उस देश की प्रगति एवं संपन्नता का एक मात्र सूचकांक है। लेकिन इन सबसे बेखबर हमारा शासक वर्ग खुद के बनाए विकास के आंकड़ों से वाहवाही लूट रहा है। इन सबसे यह साफ जाहिर होता है कि अब हमारे आत्ममंथन का दौर आ गया है। ऐसे में मुझे धूमिल की एक कविता याद आती है,जिसमें उन्होंने कहा है...'क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है...जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है?'