शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By ND

कर्मों का ही फल है दुख-सुख

Gita Jayanti | कर्मों का ही फल है दुख-सुख
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मनुष्य का मन अभ्यास के वश में रहता है जिस को जैसा अभ्यास हो जाता है वह उसके अंतकाल तक रहता है। यदि भगवान के नाम का अभ्यास हो जाता है तो जीवन का अंत होने पर मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है।

ऋषि मुनियों ने सर्वप्रथम मन की वृत्तियों को वश में करने को इसीलिए कहा है कि इन्द्रियों का जाता मन ही है यदि वह संसार की वासनाओं में लग जाएगा तो मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ता। इन्द्रियों में लगाम लगाने के लिए मन पर सर्वप्रथम अंकुश लगाना होगा। यह तभी संभव है जब मन में काम के स्थान पर विराजमान होंगे।

सामान्यतः लोगों के मुँह से यह सुनने में आता है कि हम कष्ट में है तो इसको देने वाला भी भगवान ही है, लेकिन ऐसा नहीं है दुनिया में व्यक्ति अपने कर्मों के कारण ही दुःख या सुख पाता है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कर्म, अकर्म और विकर्म के बारे में अर्जुन को समझाते हैं कि सबसे अधिक कष्टदायक विकर्मों अर्थात्‌ प्रकृति विरुद्ध कर्मों को फल होता है।

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भोग वृत्ति से मनुष्य पहले तो महाभोगी बनता है उसके बाद महाभोगी बनकर दुःखों से घिर जाता है। शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी यदि विवेक की जागृति नहीं होती तो वह परिश्रम व्यर्थ चला जाता है। अतः विवेक की जागृति संत महापुरुषों की सन्निधि एवं स्वाध्याय से ही हो सकती है।

जिस तरह अँधेरे पर प्रकाश की जीत होती है, ठीक उसी तरह हमें भी अपने जीवन में अंधियारा मिटाते हुए प्रकाश की ओर अग्रसर होना चाहिए, ताकि हमारा जीवन भी प्रकाश की तरह उदयमान हो सके।

जिस तरह पानी की एक बूँद जमीन पर पड़ने से जमीन गिली होने लगती है, ठीक उसी तरह अच्छे विचार रखने से मनुष्य का मन भी पाप रहित हो जाता है। जिस तरह पानी की एक बूँद से आशा कि किरणें जागती हैं, ठीक उसी तरह परम सहितार्थ करने से मनुष्य को परम शांति का अनुभव होता है।

इसीलिए संत-महापुरुष भी भगवान के बताए गए मार्गों पर चलकर ही आमजन को गीता महात्म्य, रामकथा, हनुमान कथाओं आदि समस्त विषयों पर संत्सग करवाते हैं, ताकि लोगों द्वारा परामर्थ कार्य करने से लोगों का भला हो सके, खासतौर से वैसे लोग जिन्हें वास्तविकता में मदद की आवश्यकता है, उन्हें लोगों द्वारा लाभ मिल सके।