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Written By ND

मुझे सत्यजीत रे की फिल्में न्यूयॉर्क में देखने को मिलीं

मुझे सत्यजीत रे की फिल्में न्यूयॉर्क में देखने को मिलीं -
सूनी तारापुरवाला की लिखी पहली पटकथा पर बनी फिल्म 'सलाम बॉम्बे' को अकादमी पुरस्कार मिला। यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी और इसके बाद पटकथा लिखवाने वालों का उनके दरवाजे पर कतार लगाना कोई अनपेक्षित बात नहीं थी। बहरहाल अब तक वे करीब 15 पटकथाएँ लिख चुकी हैं जिनमें से पाँच पर फिल्में बनी हैं। सद्विचार, सद्वचन, सत्कर्म और अच्छी किताबों में यकीन करने वाली यह प्रतिभाशाली पारसी छायाकार और पटकथा लेखिका अपने भविष्य को लेकर काफी आशान्वित है।

मैं मुंबई शहर और इसकी बेतकल्लुफी से प्यार करती हूं। मैं यहीं जन्मी और यहीं पली-बढ़ी। मुंबई बहुजनीन महानगर है। यहां सभी संस्कृतियों के लोग खप जाते हैं। दूसरे बचपन से मैं जिन जगहों पर जाती रही हूं, वे जगहें मुझे बिल्कुल अपनी-सी लगती हैं और मुंबई का यही अपनापन मुझे बहुत अच्छा लगता है।

मुझे पिताजी के साथ फ्लोरा फाउंटेन जाना याद आता है।

पिताजी मुझे अक्सर फ्लोरा फाउंटेन घुमाने ले जाते थे जहां मुसलमान, हिन्दू, पारसी...सभी समुदायों के लोग मिला करते थे। मुझे वह जगह आज भी शहर की सबसे अच्छी जगह मालूम होती है।

मेरे स्कूल क्वीन मेरी में कॉन्वेंट स्कूलों से भी ज्यादा सख्त अनुशासन था।
मैं अपनी सारी जिंदगी ग्वालियर टैंक में रही और क्वीन मेरी स्कूल में पढ़ने जाती थी जो मेरे घर से महज दस मिनट की दूरी पर है। लेकिन मेरे स्कूल में सख्ती बहुत होती थी। अगर हम यूनिफॉर्म में पानी-पूरी खाते पकड़े जाते तब भी हमें डांंट पड़ जाती थी!
जेके रावलिंग से पहले ही हम हैरी पॉर्टर के बारे में सोचने लगे थे।

मुझे याद है कि चुड़ैलों और यात्री पर आधारित यह नाटक मैंने अपने दोस्त के साथ खेला था। हमारे जिम में घोड़े की एक बड़ी-सी प्रतिमा थी और हम चुड़ैल और यात्री के रूप में उसके गिर्द चक्कर काटा करते थे। मैं जब भी हैरी पॉटर को पढ़ती हूंं, वह मुझे अपने ऊपर घटित होता नजर आता है।

हमें मजबूर करके स्कूल में स्क्रिप्ट लिखवाई जाती थी।
हमारे अंगरेजी के अध्यापक अक्सर कहा करते थे कि अगर हम नाटक करना चाहते हैं तो हमें अपनी स्क्रिप्ट लिखनी चाहिए। मैंने एक बार आधे घंटे के एक नाटक के लिए गन ऑफ आर्क के आधार पर एक पटकथा तैयार की थी। भगवान ही जानता है कि मैंने वह काम कैसे किया था। लेकिन वह नाटक खूब चला। मैंने प्रमुख भूमिका निभाई थी। आज मैं उसी अनुशासन की वजह से थिएटर में कामयाबी से काम कर रही हूं।

मैं उन लोगों में से हूं जो अपनी पसंद की चीजों के साथ बड़े तरीके से पेश आते हैं।

और जो चीजें मुझे नापसंद होती हैं, उनके प्रति मेरा बर्ताव बहुत ही बुरा होता है। यही वजह थी कि जहां मुझे भाषा, साहित्य और भूगोल में 95 फीसदी अंक मिलते थे, वहीं विज्ञान और गणित में मेरे अंक बहुत कम होते थे यानी यह स्पष्ट था कि क्या मैं कर सकती हूं और क्या नहीं। इससे मुझे अपना करियर तय करने में काफी मदद मिली।

हार्वर्ड मेरे घर से काफी दूर था और मुझे अपने घर से मोह था।

बारहवीं पास करने के बाद मुझे हार्वर्ड विश्वविद्यालय की छात्रवृत्ति मिली। मैं साहित्य पढ़ने वहां गई लेकिन जब बता चला कि वहां फिल्म और फोटोग्राफी के कोर्स भी उपलब्ध थे तो मैंने उनमें भी नाम लिखा लिया। साहित्य के बारे में मुझे लगा कि वहां साहित्य में जो काम हो सकता था, हो चुका है। अलबत्ता, फिल्म में मुझे गुंजाइश नजर आई। मुझे कतरनें जमा करने का बड़ा शौक है।
मैं बहुत ही भावुक हूं। मैं चीजों को बेदर्दी से फेंक नहीं पाती। मैं अमेरिका गई थी तो अक्सा बीच से रेत उठा लाई थी। हम सागर तट पर ऐसे जाते हैं जैसे अपने परिवार के लोगों से मिलने जा रहे हों।

मैं न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय गई।

हार्वर्ड के बाद एम.ए. करने न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय गई सिनेमा में अपनी रुचि की वजह से मैंने सिनेमा में दाखिला लिया। मजे की बात यह थी कि सत्यजीत राय जैसे भारतीय फिल्मकारों की कितनी ही फिल्में वहां मुझे देखने को मिलीं।

न्यूयॉर्क में मैं मीरा नायर से मिली और फौरन हमारी दोस्ती हो गई।

मीरा नायर से मिलकर मैंने बहुत सारी चीजों पर बात की जिन पर फिल्में बनाई जा सकती थी। उस समय विदेशों में पढ़ने के लिए बहुत कम भारतीय युवतियां जाती थीं। इसलिए वहां एक देश की माटी से जुड़े होने के नाते हम काफी करीब आ गए।

विदेशों में रहकर यथार्थ से और अपनी जन्मभूमि से मेरा लगाव बढ़ा।
विदेशों में रहकर मुझे पता चला कि पारसी होने का मेरे लिए क्या मतलब था। सबसे बड़ी बात यह कि मेरा लालन-पालन कोई खास भारतीय ढंग से नहीं हुआ था। यहां रहकर भी हम अक्सर विदेशियों के संपर्क में रहते, हमारे घर की ड्योढ़ी पर ही मानो न्यूयॉर्क खड़ा था। मुंबई में रहने वाले पारसियों के फोटोग्राफों पर मेरी किताब इसी भावना से प्रेरित थी।

लेकिन फोटोग्राफर बनना कोई आसान काम न था।
भारत लौटकर मैंने स्वतंत्र छायाकार के रूप में काम शुरू किया। मुझे याद है, बेहराम कंट्रैक्टर ने मेरी पहली तस्वीर छापी थी। लेकिन शुरू करने के बाद मुझे पता चला कि फोटोग्राफर बनना बहुत ही कठिन काम था। कीमत पाने के लिए आपको चक्कर पर चक्कर लगाने पड़ते हैं। मैं तो थक गई।

'सलाम बॉम्बे' की अपनी भूमिका से मुझे बहुत लगाव है।

मीरा और मैंने दो विषयों को छोड़कर अंततः 'सलाम बॉम्बे बनाने का फैसला किया था। उनमें से एक विषय मुंबई के 1977 के दंगे थे और दूसरा उड़ीसा में बच्चों का रहन-सहन। उसके बाद मैंने मीरा नायर के साथ मिसी सिपी मसाला और 'माय ओन कंट्री' पर भी काम किया। लेकिन 'सलाम बॉम्बे' मुझे हमेशा प्रिय रहेगी क्योंकि उस फिल्म के ज्यादातर लोगों के लिए वह पहली फिल्म थी।
मैंने कम से कम 15 पटकथाएं लिखी हैं।

मुझे लेखन से विशेष लगाव है। मुझे पटकथाओं के पुनर्लेखन में बहुत मजा आता है। हालांंकि मेरी लिखी सिर्फ पांच पटकथाओं को ही दिन की रोशनी नसीब हुई, उनमें से एक पर मीरा नायर ने और दो पर दूसरे निर्माताओं ने फिल्में बनाई हैं। 'डॉक्टर आम्बेडकर और 'सच एक लांग जर्नी' को लेकर मैं अब भी बहुत आशान्वित हूं।

मैं 'ताजमहल' पर भी एक पटकथा तैयार कर रही हूं।
मैं एक इतिहासकार की दृष्टि से ताजमहल पर एक कहानी लिख रही हूं। इसे मैंने महाकाव्यात्मक शैली में किया है। लेकिन अभी उसका पहला चरण चल रहा है।

मेरा यकीन है कि....
सद्वचन और सद्विचारों का पारसी दर्शन हमें सत्कर्मों की ओर ले जाता है। इसे अपने शब्दों में हूं तो 'अच्छी किताबों' की ओर ले जाता है।