गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By ND

मनुष्य को मनुष्य बनाए रखना चाहते हैं तो साहित्य को सम्मान देना होगा

मनुष्य को मनुष्य बनाए रखना चाहते हैं तो साहित्य को सम्मान देना होगा -
इंडिया टुडे के एसोसिएट एडीटर अशोक कुमार से संजय मिश्र की बातचीत

प्रश्न : क्या आपको लगता है कि हिन्दी में अच्छा पढ़ने वाले समाप्त हो गए हैं? या पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों से संबंधित प्रकाशनों ने अपने स्रोतों की दिशा बदल दी है?
उत्तर : हिन्दी में अच्छा पढ़ने वाले कतई समाप्त नहीं हुए हैं। ऐसा होता तो आज इतनी लघु पत्रिकाएं न निकल रही होतीं जिनमें साहित्य के अलावा गंभीर विषयों पर आलेख प्रकाशित होते हैं और उन पर पाठकों की गंभीर प्रतिक्रियाएं भी आती हैं। यह जरूर हुआ है कि हिन्दी समाजमें एक नया मध्य और उच्च मध्य वर्ग नब्बे के दशक में उभरा है, जिसे कुछ हल्की-फुल्की या साहित्येतर चीजें पढ़ने का शौक है। लेकिन उनमें भी परिष्कृत रुचि के पाठक उभर रहे हैं। आज बेशक साहित्येतर विषयों के बारे में जानकारी की भूख बढ़ी है, जिसे शांत करने की कोशिश हिन्दी का प्रकाशन जगत कर रहा है, लेकिन वह कोशिश कुछ सतही, चलताऊ किस्म की ही लगती है।

प्रश्न : अक्सर लोग यह कहते हैं कि उनके भीतर कुछ भावानात्मक पढ़ने की प्यास है, लेकिन कुछ मिलता नहीं, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाएं भी बंद कर दी गई हैं?
उत्तर : लोग धर्मयुग या साप्ताहिक हिन्दुस्तान या दिनमान जैसी पत्रिकाओं की याद करते हैं, यह अपने आप में साबित करता है कि वे उत्कृष्ट किस्म की चीजें चाहते हैं। अफसोस की बात है कि बड़े प्रकाशन घरानों ने हिन्दी के प्रति उदासीनता का रुख अपना रखा है, बेशक आजप्रकाशन का आर्थिक तंत्र जटिल हो गया है। खास तौर से हिन्दी के लिए, लेकिन ऐसा पहले भी था। लेकिन तब हिन्दी के प्रति लगाव ज्यादा था और उसे एक मिशन भी माना जाता था। आज जब सब कुछ व्यापार हो गया है तब व्यापार में घाटा उठाना भला कौन चाहेगा?

जहां तक पुस्तकों की बात है, प्रकाशकों की शिकायत होती है कि पाठक नहीं है। पुस्तक प्रकाशन का आर्थिक तंत्र ऐसा हो गया है कि प्रकाशक खरीददारों की कमी को कारण बताकर पुस्तकों की ऊंची कीमत रखते हैं। दूसरी ओर स्थिति यह भी है कि कई शहरों में आपदेख लीजिए, हिन्दी के उत्कृष्ट साहित्य की पुस्तकें बेचने वाली दुकानें ही नहीं मिलेंगी। पाठक पुस्तकें चाहते हैं मगर वे मिलेंगी कहां, यह नहीं समझ पाते। नतीजतन आप देखें कि पटना या दूसरे छोटे शहरों में लगे पुस्तक मेलों में अच्छी-खासी बिक्री हुई।

प्रश्न : राजनीति सामाजिकता पर हावी हो गई। कहीं इसलिए तो यह स्थिति नहीं बनती?
उत्तर : राजनीति ने तो सचमुच बुरा हाल कर दिया है समाज का। जातिवाद, सांप्रदायिकता, अपसंस्कृति, आदर्शों से विलगाव वगैरह सब इसी राजनीति की ही तो 'देन' हैं। और जब समाज में यह सब चल रहा हो तो पुस्तक-संस्कृति कैसे नहीं प्रभावित होगी।

प्रश्न : ज्ञान के नाम पर लोग सिर्फ सूचना आग्रही हो गए हैं। वे पूछते हैं- कथा साहित्य पढ़कर हमें क्या मिलेगा? इन्हें क्या जवाब देना चाहिए?
उत्तर : बेशक यह सूचना के विस्फोट का दौर है। संचार माध्यमों के विस्तार ने यह घटाटोप बनाया है। भारत में यह इसका शुरुआती दौर है इसलिए हमें लग रहा है कि यह क्या हो रहा है। लेकिन स्थितियां बदलेंगी। अमेरिका जैसे अति विकसित देश में पाठकों की संख्या घटी नहीं है। बेशक यह हमारे मीडिया तंत्र की जिम्मेदारी है कि वह पुस्तकों, साहित्य के प्रति रुचि बढ़ाए। वैसे आजकल इसका उल्टा ही हो रहा है। साहित्य को निकाल बाहर किया जा रहा है। यह वैचारिक दरिद्रता का मामला है। प्राथमिकताएं तय करने का मामला है- हम मनुष्य कोक्या बनाना चाहते हैं, यह तय करने का मामला है। अगर हम मनुष्य को सब कुछ होते हुए मनुष्य भी बनाए रखना चाहते हैं तो साहित्य को सम्मानजनक स्थान देना होगा।

प्रश्न : लोग कहते हैं किताबें महंगी हैं। क्या यही एक कारण हो सकता है पाठक से किताबों की दूरी बढ़ने का?
उत्तर : किताबें बेशक महंगी हैं, लेकिन बाकी चीजें क्या सस्ती हैं? पुस्तकों से लोगों की दूरी के लिए इसे एक बहाना माना जा सकता है। आज लोग डेढ़ सौ रुपए का टिकट लेकर सिनेमा देखने जा सकते हैं, तो ढाई सौ रुपए में एक अच्छा सा उपन्यास या कोई और पुस्तक क्यों नहीं खरीद सकते! यह एक बार फिर हमारी प्राथमिकताओं का मामला है, लेकिन दूसरे भी कई बड़े कारण हैं जो आज लोगों को किताबों से विमुख कर रहे हैं।

प्रश्न : क्या इस मामले में आज के हिन्दी लेखकों को भी आप दोषी पाते हैं?
उत्तर : हिन्दी साहित्य बिरादरी की राजनीति को बेशक इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दें तो सार्थक लेखन भी कम नहीं हो रहा। अफसोस यही है कि उसे अच्छी तरह सामने नहीं लाया जा रहा, उसका प्रसार सीमित है।

प्रश्न : भारत में पुस्तक-संस्कृति विकसित हो सके, इसके लिए क्या उपाय हो सकते हैं?
उत्तर : देश में पुस्तक-संस्कृति के विकास के लिए मनुष्य, समाज, संस्कृति, राजनीति आदि तमाम बातों पर सोच में बदलाव जरूरी है। स्कूल के स्तर से ही इसकी शुरुआत करनी होगी। बच्चे अगर आज टीवी के प्रति आसक्त हो रहे हैं तो हमें टीवी को ही माध्यम बनाकर उनमें पुस्तकों के प्रति उत्सुकता जगाने के प्रयास करने चाहिए। यह एक बुनियादी काम है जो अपने आप में महत्वपूर्ण है। पुस्तकों, लेखकों, आदि के बारे में जानकारियां देने के काम में आज के तमाम संचार साधनों का उपयोग बखूबी किया जा सकता है, लेकिन पुस्तकों की कीमतों का भी कुछ करना चाहिए। इसके लिए सरकार और प्रकाशन जगत को ही मिलकर रास्ता निकालना होगा। लेकिन पुस्तकों की डाक दरों के बारे में सरकार का नया फैसला पुस्तक-संस्कृति को और चोट ही पहुंचाने वाला है।

प्रश्न : आपकी पसंदीदा पुस्तकें कौन-सी हैं, किन लेखकों ने आपको जीवन में सर्वाधिक प्रभावित किया?
उत्तर : मेरी पसंद की पुस्तकों में मैला आंचल, राग दरबारी, शेखर : एक जीवनी, आधा गांव, काला जल, माई एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ, फ्रीडम एट मिडनाइट, डॉक्टर जिवागो, कलिकथा वाया बाइपास आदि कई पुस्तकें शामिल हैं। रेणु और अज्ञेय मुझे अच्छे लगते हैं, अपने लेखनऔर अपने जीवन के कारण भी।