हिंदी के साथ उर्दू का भी विकास
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भारतेंदु हरिश्चंद्र बेशक, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ जैसी रचानाएँ लिखीं और अपनी भाषा के प्रसार के लिए बहुत काम भी किया। लेकिन भारतेंदु हिंदी के साथ-साथ उर्दू भाषा के भी उतने ही हिमायती थे। बहुत कम लोग ये जानते हैं कि भारतेंदु ने खुद भी उर्दू में रचनाएँ लिखी हैं। उनकी उर्दू रचनाएँ अब ज्यादा उपलब्ध नहीं हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र उर्दू और हिंदी भाषा को समकक्ष मानते थे और उन्होंने कई गजलों की भी रचना की। यहाँ प्रस्तुत है, उनकी एक गजल। यह गजल ‘भारतेंदु ग्रंथावली’ में भी सम्मिलित है।
गजलफिर बहार आई है, फिर वही सागर चले,फिश्र जुनं ताजा हुआ, फिर जख्म दिल के भर चले।तिरुए दीदार हूँ उस अब रूए खमदार का, क्यों न गर्दन पर मेरे रुक-रुक के यों खंजर चले।माल दुनिया वक्ते रेहतल सब रहा बालाए ताक,हम फकत बारे गुनाह को दोष पर लेकर चले।खाकसारी ही है माजिब सखलंदी की मेरे,काट डालूँ सिर अगर मनजूँ मेरा तनकर चले।मौत पर मेरे फरिश्ते भी हसद करने लगे, दोश पर अपने मेरा लाश वो जब लेकर चले।दागे दिल पस पर सूरते लाला मेरा तमजा हुआ, वह चढ़ाने के लिए जब फूल मसकद पर चले।खानए जंजीर से एक शोरागुल बरपा हुआ, दो कदम भी जब दरे जिंदा से हम बाहर चले। दम लबों पर है तुझे मुतलक नहीं आता दयाल,काम अब तो खंजरे खूँख्वार गर्दन पर चले। इस कदर है जाकै ताली हम पै फुरकत में तेरी,बैठ जाते हैं अगर दो गाम भी उठकर चले। गर्दिशे किस्मत से हम मायूस होकर ऐ 'रसा',कूचए जानाँ में मिस्ले आस्माँ फिर कल चले।