मेरे खुदा! आज जादू कर दे
- सहबा जाफरी
वो पर्बतों की खामोश वीरानी में, चुपके-चुपके ख़याल बुनता हैवो धीमे-धीमे से खुद से बात करे, वो सहमा-सहमा सा खुद को सुनता है वो सुर्ख फूलों से शबनम चुरा कर, एक लिफाफे में बंद करके रखे,अपने बचपन पर फिर खुद ही, शर्म से खिलखिला के हँसता हैवो दिल-ए-इन्सां जो इतना भोला है, फिर वो कैसे फसाद करता है। कौन बस्ती जला के हट जाए, कौन शहरों में नाग रखता हैहीर गाते हुए मासूम होंठों में कौन सिगरेट की आग रखता हैनन्हे हाथों से शफ़क़त की अँगुली छुडा कर, कौन संगीन हाथों पे रखता हैकैसे बनता है क़तरा-ए-लहू, वो कतरा जो आँखों से गिरता है। एक तितली ओ चाँद फूलों, झील सुबहों ओ नील शामो इनको कैसे गहन लग गया हैएक रंग-ओ खुश्बू की रोशनी का वो चाँद शायद छुप गया हैवो पर्बतों की वीरानियों का चुपके-चुपके ख़याल बुननावो धीमे-धीमे खुद से कहना, वो सहमा-सहमा सा खुद को सुननाऐ खुदा! वापस इन्सां का खाली दामन इससे भर देमेरे खुदा! मेरी नेकी के बदले, एक शाम छोटा सा जादू ही कर दे कोई सुबह मेरे आँगन में ऐसी भी हो, जो रातों को सोए तो हो मुतमईनऔर लम्हे-लम्हे की कटती हुई ज़िंदगी, मुड़ के देखें तो हमको लगें मुतमईनबारूदों-शोलों का हैवान फिर मेरी बस्ती की राहों को भूल जाएमेरे दौर के इंसा की मासूम आँखें ख़याल बुनना कुबूल जाए....!