शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By स्मृति आदित्य

तुम आए छाँव बन कर

फाल्गुनी

Love poem | तुम आए छाँव बन कर
ND
एक नदिया थी मैं चंचल सी
तुम आए सुनहरा बाँध बन कर

एक बगिया थी मैं बरसों की उजड़ी हुई
तुम आए महकती बहार बन कर

एक चिडि़या थी मैं भटकती हुई
तुम आए मेरे घरौंदे की छाँव बन कर

एक बिन्दिया थी मैं रात के माथे पर सजी
तुम आए बिखरे सितारों का श्रृंगार बन कर

एक चिट्ठिया थी मैं कोरी तरसती हुई
तुम आए धड़कते शब्दों का आगाज बन कर।