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कामयाबी का भी नशा न रहा
योगेन्द्र दत्त शर्मा घर से घर का-सा वास्ता न रहा,अब वो टूटा-सा आइना न रहा।अब मैं अपने निशाँ कहाँ ढूँढूँ,शहर में कोई मक़बरा न रहा।सोचकर बोलता हूँ मैं सबसे,बात करने का अब मज़ा न रहा।चल कि अब रास्ता बदल लें हम,अब कोई और रास्ता न रहा।मोड़ हैं, मरहले भी हैं, लेकिनवो तग़ाफ़ुल, वो हादसा न रहा।अब चला है वो तोड़ने चुप्पी,जब कोई उस पे मुद्दआ न रहा।हाय वो जुस्तजू, वो बेचैनी,बीच का अब वो फ़ासला न रहा।जब ज़मीं पर उतर ही आए, तो कामयाबी का भी नशा न रहा।ज़िंदगी का नहीं रहा मक़सद,अब कोई मुग़ालता न रहा। साभार: समकालीन साहित्य समाचार