और अभी कितने हैं दूर किरणों में डूबे वे गाँव जहाँ सभी इच्छा के पुत्र खोज रहे अपना अस्तित्व बहुरंगी दृष्टि के चक्र परिवर्तित अर्थों के बीच, अपने को कहते जो पूर्ण लगते हैं बोने-भयग्रस्त बीत रहे सारे दिन व्यर्थ सिमट रहे सूर्यमुखी द्वार, कुछ भी कह पाने से पूर्व चुक जाते सारे युगमान
पश्चिम के बिखेर रहे सूत्र रक्त सने समया संकेत, धुंधले जब पड़ते विस्तार सीमित हो जाती है सृष्टि चिंतन जब थके हुए हों परिभाषा बदलेगा कौन, अविरल कोलाहल के बीच उभर नहीं पाते दायित्व और अभी कितने हैं दूर महकते गुलाबों के स्वर जहाँ सभी इच्छा के पुत्र खोज रहे कस्तूरी गंध।