शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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क्या है प्राइमल थैरेपी?

क्या है प्राइमल थैरेपी? -
-राधेलाल शर्म

प्राइमल थैरेपी यानी प्रति-प्रसव प्रक्रिया। प्रति-प्रसव एक सुंदर शब्द है। बच्चे के जन्म को प्रसव कहते हैं। प्रति-प्रसव का अर्थ है- स्मृति जगाकर बचपन के अनुभवों को पुनः जीकर जन्म के क्षण तक पहुँचना। दूसरे अर्थों में कार्य को कारण तक यानी मूल स्रोत तक लौटाना ताकि जड़ तक उतरकर समस्या सुलझाई जा सके। प्रत्यावर्तन की इस प्रक्रिया में अद्भुत अनुभव होता है।

बीसवीं सदी में पश्चिम ने मनोविज्ञान के क्षेत्र में बड़ी ऊँचाइयाँ छुई हैं। इस सदी में मन की उलझनों, समस्याओं व मनोरोगों पर काफी चिंतन, विश्लेषण व मनोचिकित्सकीय प्रयोग हुए हैं। फ्रायड, जुंग, एडलर, अब्राहम मेस्लो, विलिहेम रेक, मेसागोली विलियम जेम्स जैसे मनोविज्ञानी व मनोविश्लेषकों ने अपने क्रांतिकारी दर्शन व प्रयोगों द्वारा सारे विश्व में तहलका मचा दिया है। इसी परंपरा के एक और ख्यातिनाम मनोविज्ञानी जेनौव ने एक अति महत्वपूर्ण मनोचिकित्सा विश्व के सम्मुख रखी है, जिसका नाम है- प्राइमल थैरेपी।

प्राइमल थैरेपी यानी प्रति-प्रसव प्रक्रिया। प्रति-प्रसव एक सुंदर शब्द है। बच्चे के जन्म को प्रसव कहते हैं। प्रति-प्रसव का अर्थ है- स्मृति जगाकर बचपन के अनुभवों को पुनः जीकर जन्म के क्षण तक पहुँचना। दूसरे अर्थों में कार्य को कारण तक यानी मूल स्रोत तक लौटाना ताकि जड़तक उतरकर समस्या सुलझाई जा सके। प्रत्यावर्तन की इस प्रक्रिया में अद्भुत अनुभव होता है।

प्रति-प्रसव की मनोचिकित्सा में व्यक्ति पुनः बच्चा बन जाता है। वर्तमान का प्रौढ़ या युवा व्यक्ति बचपन के 'बबलू' को फिर से जीकर उस चीख तक लौट जाता है, जहाँ से उसकी जिंदगी की शुरुआत हुई थी। इस प्रयोग में व्यक्ति गुड्डे-गुड्डियों व खिलौनों का भी सहारा लेते हैं। पीछे लौटने में वे हाथ-पैर मारते, चिल्लाते व रोते-चीखते हैं। मनोविज्ञान की खोजें कहती हैं कि जीवन की कोई भी अवस्था कभी गुम नहीं होती। बच्चा जब युवा होता है तो भी 'बच्चा' उसके भीतर गहरे में मौजूद रहता है। केवल युवा उस पर आरोपित हो जाता है। इसी प्रकार वृद्धावस्था की एक और पर्त उसके ऊपर आ जाती है। प्याज की नाईं व्यक्ति के भीतर सभी पर्तें मौजूद रहती हैं। इन पर्तों में उतरने से व्यक्ति उस कालखंड में पुनः जीने में समर्थ हो जाता है।

इस संबंध में पश्चिम के एक अन्य वैज्ञानिक रान हुब्बार्ड की महत्वपूर्ण खोज की चर्चा करना भी प्रासंगिक होगा। उनकी कीमती खोज है- 'टाइम ट्रेक' की। हुब्बार्ड मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जहाँ भी जिया है, चाहे पृथ्वी पर या अन्य ग्रह पर, आदमी की तरह या जानवर, पौधे या पत्थर की भाँति- इस अनंत यात्रा में समय की पूरी धारा यानी 'टाइम ट्रेक' उसके भीतर हमेशा संरक्षित रहती है। यह धारा खोली जा सकती है। इस धारा में व्यक्ति को पुनः प्रवाहित किया जा सकता है। इस 'टाइम ट्रेक' पर आदमी के भीतर 'इन्ग्रेन्स' यानी पक्के रंग की तरह गहरेस्थान मौजूद होते हैं। ये भीतर गहरे में दबे पड़े रहते हैं। इन्हें खोला जा सकता है। 'टाइम ट्रेक' को समय में पीछे लौटना कह सकते हैं।

हुब्बार्ड ने हजारों लोगों की सहायता की है। जैसे एक आदमी बचपन की किसी स्मृति में अटक गया है और ठीक से बोल नहीं पाता तो टाइम ट्रेक के जरिए उसके 'इन्ग्रेन्स' खुलेंगे और वह छः वर्ष का हो जाएगा। इस तरह रुकी धारा का सिलसिला चालू हो जाएगा और वह सही अर्थों में युवा या प्रौढ़ हो सकेगा। हैरानी की बात तो यह है कि जहाँ सैकड़ों दवाइयाँ उस आदमी को बोलने में समर्थ नहीं बना सकती हैं वहाँ वह टाइम ट्रेक पर लौटकर बोलने में समर्थ हो सकता है। भारत में ओशो ने जेनौब की प्राइमल थैरेपी को और भी परिष्कृतकर 'ओशो प्राइमल थैरेपी' की रचना की है। ओशो कम्यून पुणे में इसके प्रयोग पिछले 24 वर्षों से नियमित हो रहे हैं। इसका मूल उद्देश्य जहाँ व्यक्ति के बचपन के मानसिक घावों व कटु अनुभवों के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ संस्कारों से मुक्त कराना है वहीं उसके भीतर के बालक को उघाड़कर आनंद, जीवंतता, सहजता व आश्चर्य विमुग्धता जैसे गुणों को वापस लौटाना है। इस प्रक्रिया से बचपन के अधूरे कृत्यों व अनुभवों से भी छुटकारा मिलता है।

स्वामी आनंद देवपथ ओशो मल्टीवर्सिटी पुणे में प्राइमल थैरेपी ग्रुप के संचालक हैं। उनका कहना है कि यदि हम भावों को दबाते चले जाते हैं तो वे बीमारी पैदा कर सकते हैं। गुस्से का दमन करने से बरसों बाद हार्ट अटैक की संभावना हो सकती है। परंतु वर्तमान युग की आपाधापी व महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में व्यक्ति इतना मशगूल रहता है कि वह अपने आंतरिक विकास की ओर कतई ध्यान नहीं दे पाता। चालीस की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते उसे जीवन खाली-खाली व निरर्थक महसूस होने लगता है। जीवन का यह मध्य अवस्था संकट उसमें छटपटाहट व असंतोष पैदा करके कुछ सोचने-समझने को मजबूर कर देता है। यही सही समय है प्राइमल थैरेपी प्रक्रिया में उतरने का। पुणे में इस समूह मनोचिकित्सा में विभिन्न संस्कृतियों एवं सामाजिक संस्कारों वाले कई देशों के लोग हिस्सा लेते हैं। विभिन्ना तकनीकों द्वारा व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व की पर्तों को उघाड़कर उसके बचपन तक लौटाया जाता है। यह मनोचिकित्सा ध्यान में गहरे डूबने के लिए एक छलाँग या सेतु की तरह उपयोग में लाई जा सकती है।

प्राइमल फीलिंग ग्रुप थैरेपी से गुजरी लॉरेन माली नामक तैंतीस वर्षीय एक विदेशी युवती की कहानी उसी की जुबानी सुनिए- 'मेरा बचपन पिट्सबर्ग में गुजरा। मैं अपने पिता से बहुत डरती थी क्योंकि वे शराबी थे। धीरे-धीरे मेरे पिता इतना नशा करने लगे कि मेरी माँ ने न केवल उनका व्यवसाय संभाला वरन उनकी चार बहनों के साथ उनका भी लालन-पालन किया। पिता के प्रति मेरा अनादर धीरे-धीरे घृणा में बदल गया। वे भी मुझे नहीं चाहते थे व अक्सर डाँटते रहते थे। बचपन की एक घटना को मैं आज भी नहीं भूल पाई हूँ। मैं अपनी बहनों के साथ टीवी पर ओलिंपिक खेल देख रही थी। सहसा मेरे पिता ने कमरे में प्रवेश किया। मुझे देखते ही उन्होंने मुझे झिड़का और कमरे के बाहर जाने को कहा और गरजकर कारण बताया कि मेरी उपस्थिति में वे ओलिंपिक खेलों का आनंद नहीं ले सकते। घर में इस वातावरण के चलते मुझे स्कूल में भी अच्छा नहीं लगता व मैं वहाँ भी तिरस्कृत होती चली गई। चौदह की उम्र आते-आते मुझे भी ड्रग व शराब की लत पड़ गई। किसी तरह मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की और कुआलालंपुर में नौकरी कर ली। तैंतीस वर्ष की उम्र में मुझे ओशो प्राइमल थैरेपी की जानकारी मिली और मैं भागकर पूना आ गई।

लॉरेन माली को विश्वास नहीं था कि ओशो कम्यून के पाँच दिवसीय प्राइमल थैरेपी ग्रुप में वह अपने त्रासद बचपन के घावों से कैसे मुक्त होगी? परंतु चिकित्सक देवपथ के सुझावों पर ईमानदारी से अमल करने पर वह अपने व्यक्तित्व की पर्तों को पार कर नन्ही, निष्कलुष बच्ची से साक्षात्कार कर सकी। सर्वप्रथम तो रेचन की कसरतें करने से क्रोध, प्रतिशोध व नफरत के नकारात्मक भाव सतह पर आ गए व इस धक्के से वह हिल-सी गई, परंतु बाद में वह सामान्य व शांत हो गई। उसे अनुभव हुआ कि जैसे उसका नया जन्म हो गया है। हेम्बर्ग, जर्मनी के न्यूरोलॉजिस्ट एवं मनोचिकित्सक प्रोफेसर डॉ. मिचेल हॉलर ने भी 4 वर्ष पूर्व ओशो कम्यून पुणे में प्राइमल थैरेपी ग्रुप में भाग लिया और अनुभव किया कि इस मनोचिकित्सा से गुजरने के बाद आंतरिक विकास व माता-पिता के संबंधों में एक नई दिशा मिलती है।