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Written By ND

स्त्री शक्ति की प्रतीक थीं निर्मला बहन

स्त्री शक्ति की प्रतीक थीं निर्मला बहन -
-नरेन्द्र दुब

निर्मला बहन के पिता पीवाय देशपांडे कांग्रेस समाजवादी दल में जयप्रकाश नारायण के साथ थे। माता विमलाताई भी कांग्रेस की नेता थीं और पंडित द्वारकाप्रसाद मिश्र के मंत्रिमंडल में संसदीय सचिव थी। निर्मला बहन नागपुर कॉलेज में प्राध्यापक थीं और विनोबाजी के साथ भूदान यज्ञ की पदयात्रा में 1952 में उत्तरप्रदेश में चार माह रहीं। उन चार माहों के विनोबा के प्रवचन और उनके विचारों का उन पर ऐसा प्रभाव हुआ कि कॉलेज की अपनी नौकरी छोड़कर पूरी तरह भूदान-आंदोलन में सम्मिलित हो गईं।

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उनकी पहली पुस्तक 'विनोबा के साथ चार माह' जब प्रकाशित हुई तब देशभर के लोगों को विनोबा के विचारों का प्रथम परिचय हुआ। इसके बाद तो विनोबाजी की पदयात्रा के उन दिनों के अधिकांश प्रवचन उनके लिखे हुए हैं जो बाद में 'भूदान गंगा' के नाम से आठ भागों में प्रकाशित हुए। मैं कहा करता था कि जो काम बापू के साथ महादेव भाई ने किया वैसा ही कार्य निर्मला बहन ने विनोबा के साथ रहकर किया। आज विनोबाजी का जितना साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसका अधिकांश निर्मला बहन की देन है।

वे स्वयं एक स्वतंत्र विचारक और लेखक थीं। उनकी दो स्वतंत्र कृतियाँ है। 'चिंगलिग' उन्होंने 1962 के चीन के हमले के पहले लिखी थी। हमारा तो बाद में हुआ लेकिन उसमें हमला हुआ है यह मानकर उन्होंने उपन्यास लिखा है। इस पुस्तक में विनोबाजी ने स्वयं निर्मला बहन के गुणों का परिचय दिया है। उनका दूसरा उपन्यास है 'पुस्तक है सीमांत'। यह भारत-पाक के संबंधों को लेकर बांग्लादेश के भविष्य को लेकर लिखा गया है।

जब बांग्लादेश बना भी नहीं था तब उन्हें इसका आभास हो गया था। साहित्यकार क्रांतदर्शी होता है। ऐसा लगता है कि निर्मला बहन को भावी का आभास होता था। हम लोग चंबल घाटी में मुरैना-श्योपुर में पहुँचे। विनोबाजी के समक्ष लुक्का का गैंग समर्पण कर चुका था, लेकिन अन्य गैंग वहाँ सक्रिय थे।

कस्तूरबा ग्राम की महिमा शांतिसेना के साथ ग्राम दान के लिए हमारी टोली वहाँ पहुँच गई। उस समय क्षेत्र में बहुत भय था लेकिन हमारी टोली की बहनें गाँव-गाँव पदयात्रा करने लगीं। गाँव-गाँव में रात्रि सभाएँ होने लगीं। जब गाँव के लोग रात में निर्भयतापूर्वक बहनों को घूमते देखते तब स्वाभाविक ही उनमें भी निर्भयता का संचार होगा। हमारी सभाओं में बागी लोग भी आते और हमारे विचार सुनते। इसका असर सन्‌ 1973 में देखने को मिला जब जयप्रकाशजी के समक्ष 475 बागियों ने समर्पण किया और चंबल घाटी की डाकू समस्या का समाधान हुआ।

जयप्रकाशजी के बिहार आंदोलन के समय सर्वसेवा संघ के हम लोग मैं और निर्मला बहन बिहार आंदोलन से सहमत नहीं थे। विनोबाजी का एक वर्षीय मौन चल रहा था। उन्होंने हम दोनों के पहले अक्षर जोड़ कर हमें एक संयुक्त नाम दिया था 'ननि।' उनसे जब कभी कोई राजनेता मिलने आता तब वे ननि लिखकर हमसे संपर्क के लिए कहते। इस समय नजदीक संपर्क प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से आया।

निर्मला बहन उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुई। एक तरह से वे उनके परिवार का हिस्सा जैसी बन गई। तब मैं उनसे मजाक करता कि क्या फिर से हृदय परिवर्तन हो गया है। इस पर वे कहती कि भारत जैसे देश में एक महिला का प्रधानमंत्री बनना बड़ी बात है। इसका असर कुल दुनिया पर हो रहा है।

बांग्लादेश के निर्माण में उन्होंने जो भूमिका निभाई है वह ऐतिहासिक है। वे स्त्री शक्ति की प्रतीक हैं। आज नहीं तो कल उनकी प्रतिभा का लोहा दुनिया मानेगी। उन्होंने यह उस समय कहा जब इंदिराजी के नजदीक के राजनीतिक साथी उनका साथ छोड़ चुके थे। वे अकेली थी तब भी निर्मला बहन उनके साथ थीं। यहाँ तक कि जब वे गिरफ्तार हुई तब भी निर्मला बहन उनके साथ रहीं।

विनोबाजी ने एशिया में शांति के लिए एक सूत्र दिया था, एबीबी का त्रिभुज बनाओ।' अर्थात ए यानी अफगानिस्तान, बी यानी बर्मा और सी यानी सीलोन। इन तीन देशों के बीच जितने भी देश आते हैं वे अपना एक महासंघ बनाएँ। इसके लिए
विनोबाजी ने इंदिराजी से कहा था कि वे राजनीति छोड़कर इस महान कार्य में लगे। यही बात उन्होंने सीमांत गाँधी बादशाह खान से कही। इस कार्य को निर्मला बहन ने अपना जीवन कार्य बनाया। इसका प्रारंभ उन्होंने जम्मू-कश्मीर से किया। वहाँ सभी दलों के और अलगाववादी नेताओं से भी प्रेम संबंध बनाए।

वे सामान्यजनों और सत्ताधीशों के बीच करुणा का सेतु थीं। भूदान ग्रामदान आंदोलन के द्वारा भी उन्होंने उपेक्षित खेत मजदूरों और हरिजन आदिवासियों की सेवा की। बाद में हरिजन सेवक संघ की अध्यक्ष होने के नाते भी उनकी सेवा की। उन्होंने अपने जीवन व्यवहार से सांप्रदायिक एकता की मिसाल पेश की थी। विनोबा विचार का प्रचार-प्रसार करना उनका जीवन कार्य था।

वे एक बुद्धिजीवी थी। लेखक थीं। नित्य नूतन नाम की पाक्षिक का संपादन भी कर रही थीं लेकिन अपने साथी कार्यकर्ताओं के सुख-दुख में सदा उनके साथ रहती थीं। उनके बच्चों के विवाह में भी सम्मिलित होतीं और उनके अस्वस्थ होने पर अस्पताल में जाकर मदद भी करती थीं। (लेखक गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)