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Written By शरद सिंगी
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:21 IST)

सोने की चमक और रुपयों की दमक में गिरावट क्यों

सोने की चमक और रुपयों की दमक में गिरावट क्यों -
अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोना इस वर्ष में करीब 25 प्रतिशत तक लुढक चुका है। भारत में यह अंतर इतना नहीं दिखता क्योंकि भारतीय मुद्रा का भी अवमूल्यन पिछले दो माहों में दस प्रतिशत तक हो चुका है। सभी के मन में ये एक सहज उत्सुकता होगी कि दोनों में इतनी अभूतपूर्व गिरावट क्यों? सोना और रुपया एक साथ गिरने की वजह जानने के लिए कुछ वर्ष पीछे जाना होगा।
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कहानी की शुरुआत हुई सन् 2007 में जब अमेरिका में भवन निर्माण के क्षेत्र में आई कृत्रिम तेजी का चक्र टूटा और कई बैंको के साथ वित्तीय संस्थाओं ने अपने दिवाले पीटे। अमेरिका पर मंदी की मार पड़ी और सुरक्षित समझे जाने वाले अमेरिकी निवेश की साख को बट्टा लगा।

यूरोप ने अमेरिका का अनुसरण किया और वह भी आर्थिक मंदी में जा धंसा। निवेशकों ने सुरक्षा की दृष्टि से अपना धन अमेरिकी उद्योग और शेयर बाज़ार से निकालकर वैकल्पिक अंतर्राष्ट्रीय अवसरों की ओर रुख किया।

दो विकल्प सामने उभरे। पहला सोना और दूसरा उभरते हुए देशों के आर्थिक बाजार। सोने में अचानक आए इस निवेश से सोने के भावों में परिस्थितिजन्य उछाल आया और पांच वर्षों में लगभग तीन गुना तेजी आई।

दूसरी तरफ उभरते आर्थिक बाजारों जिनमें ब्राजील, रूस, भारत और चीन शामिल हैं, में अमेरिका और यूरोप में छाई मंदी का असर नहीं था। इन देशों के समूह को 'ब्रिक देश' कहा जाता है जो इनके नाम के प्रथमाक्षरों से बना शब्द है।

भारतीय उद्योग और शेयर बाजार में विदेशी निवेश आने से दोनों चल निकले। भारतीय अर्थव्यवस्था को बिना प्रयत्न विदेशी निवेश मिलने लगा और आर्थिक विकास में रफ्तार आ गई। सकल देशी उत्पाद (जीडीपी) दहाई अंक छूने लगा।

इन परिस्थितियों का फायदा लेने के बजाय सरकारी तंत्र घपलों और घोटालों में उलझ गया। भारत का खजाना विदेशी मुद्रा से लबालब हुआ किन्तु सरकार न तो मुद्रा स्फीति को नियंत्रित कर सकी और न ब्याज दरों को। भारत सरकार के सामने कई सामाजिक और राजनीतिक मजबूरियां रही, सही और सख्त निर्णयों को लेने के लिए।

आगे पढ़ें, निवेशक क्यों निकाल रहे हैं पैसा...


वहीं अमेरिका ने मंदी के इन छह -सात सालों में बड़ी चतुराई से कदम उठाए। गिरी अर्थव्यवस्था को उभारने के लिए सरकार ने अरबों अरब डॉलर बाजार में प्रवाहित किए किन्तु मुद्रा स्फीति और ब्याज दरों को काबू के बाहर न जाने दिया। अथक प्रयासों के बाद अमेरिकी आर्थिक व्यवस्था पुनः पटरी पर आने की खबरों के साथ निवेशक वापस अपना पैसा सोने और ब्रिक देशों के शेयर बाजार से निकालने लगे हैं।

इसी के चलते सोने में गिरावट और भारतीय बाज़ारों में गिरावट शुरू हुई। रुपया जो अभी तक डालर के दम पर खड़ा था वह भी पहाड़ से गिरे पत्थर की तर्ज़ पर गिर रहा है। सोने का भी यही हाल है। वैश्विक वित्तीय संस्थाओं की माने तो सोना अभी और बीस से पच्चीस प्रतिशत तक गिर सकता है क्योंकि अभी भी वह अपनी उत्पादन लागत से दुगुने दामों पर बेचा जा रहा है।
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आम निवेशक के लिए सोने में निवेश मुद्रा स्फीति से बचने का साधन है किन्तु हमारे वित्त मंत्री जी ने देशवासियों को सलाह दी कि सोना खरीदने से बचें क्योंकि इसके आयात से देश को विदेशी मुद्रा से हाथ धोना पड़ता है।

वित्त मंत्री जी सही बोल रहे हैं किन्तु आज कोई सुनने को तैयार नहीं। कारण सीधा है हमारे नेताओं की साख पर प्रश्न चिन्ह है इसलिए उनकी बातों को कोई गंभीरता से नहीं लेता। लोगों के मन में सहज प्रश्न उठते है की विदेशी मुद्रा तो पेप्सी, कोला और मैकडोनाल्ड जैसे विदेशी उत्पादों पर भी खर्च होती है तो वित्त मंत्रीजी इन उत्पादों का उपभोग कम करने की सलाह देने का साहस क्यों नहीं कर पाए? या जनता को विश्वास क्यों नहीं दिल पाए की हम मुद्रा स्फीति कम करेंगे आप सोना मत खरीदो।

लक्ष्मी को हमारे यहां चंचल बोला गया है और यह सत्य भी है। पूंजी का बहाव अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में आजकल उसी तरह होता है जैसे आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों से संदेशों का आदान प्रदान चुटकियों में होता है। पूंजी सूनामी की तरह देश में बड़े आवेग से आती है और उतरती है तब देश की चल अचल संपत्ति का नुकसान करके जाती है।

पूंजी के आगमन पर न तो पीठ थपथपाने की ज़रूरत है न जाने पर रुदन करने की। देश को सामर्थ्य चाहिए इस सूनामी में सीधे खड़े होने की तथा आवश्यकता है विदेशी पूंजी को ठहराव देने की।

यह तभी संभव है जब हमारी आर्थिक बुनियाद रेत के टीलों पर न हों। हममे क्षमता हो विदेशी निवेश को आकर्षित कर सोखने की और वक्त आने पर छोड़ने की। जो पूंजी हमारे राष्ट्र में हमारी योग्यता पर आएगी वह देश को लम्बे समय तक आर्थिक विकास की राह पर ले जाएगी किन्तु जो केवल अवकाश बिताने आएगी वह देश को कई वर्ष पीछे धकेल कर जाएगी।