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Written By ND

संप्रग का चुनावी भविष्य अंधकारमय

संप्रग का चुनावी भविष्य अंधकारमय -
- सुरेश बाफना

अपनी सरकार के चार साल पूरे होने के मौके पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह द्वारा दी गई दावत में खुशी कम, चिंता अधिक दिखाई दे रही थी। पिछले आठ महीनों के दौरान जो राजनीतिक व आर्थिक घटनाक्रम सामने आया है, उससे मनमोहन सरकार की सभी उपलब्धियों पर पानी फिर गया है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस की चिंता को कई गुना बढ़ा दिया है।

ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, आदिवासियों को वन भूमि पर आवास व आजीविका का अधिकार देना और किसानों की कर्जमाफी के घोड़े पर सवार होकर कांग्रेस चुनावी किले फतह करना चाहती थी। इसमें कोई शक नहीं है कि पहले सवा तीन साल के कार्यकाल के दौरान मनमोहन सरकार ने आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करने का प्रयास किया। देश की आर्थिक विकास दर 8-9 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई और मुद्रास्फीति की दर 5 प्रतिशत के भीतर रही।

देश के निर्यात में 24 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, वहीं प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 20 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया। विदेशी मुद्रा का भंडार 250 अरब डॉलर की सीमा को पार कर गया। सरकारी राजस्व में 40 प्रतिशत की रिकॉर्ड बढ़ोतरी दर्ज हुई। शिक्षा, स्वास्थ्य व कल्याणकारी योजनाओं के लिए अधिक धन आवंटित किया गया। देश की अर्थव्यवस्था के इस गुलाबी चित्र पर पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में हुई बढ़ोतरी व महँगाई ने काला रंग उड़ेल दिया।

किसानों की 60 हजार करोड़ रुपए की कर्जमाफी का असर सात दिन के भीतर ही हवा हो गया। महँगाई के भूत ने कांग्रेस व सहयोगी दलों के नेताओं की नींद हराम कर दी है। रही-सही कसर पेट्रोलियम पदार्थों के दामों ने पूरी कर दी। मनमोहन सरकार के चार साल पूरे होने का जश्न राजनीतिक मातम में तब्दील हो गया।

वर्ष 2004 में जब डॉ. मनमोहनसिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, तब कई राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि यह सरकार तीन साल से अधिक नहीं चल पाएगी। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो घोषणा कर दी थी कि पार्टी को मध्यावधि चुनाव की तैयारी शुरू कर देना चाहिए। कांग्रेस व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह की यह उपलब्धि कम नहीं है कि उनकी सरकार पाँच साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही है।

वामपंथी दलों के समर्थन से चलने वाली सरकार की सीमाएँ जगजाहिर थीं। यह उम्मीद किसी को नहीं थी कि मनमोहन सरकार आर्थिक सुधारों के क्षेत्र में कोई बड़े कदम उठाने में सक्षम है। इस सीमा के बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि पहले तीन सालों में कई महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार लागू किए गए। कई क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाई गई। कर प्रणाली में किए गए सुधारों की वजह से राजस्व में भारी बढ़ोतरी हुई।

आर्थिक विकास दर 8-9 प्रतिशत रहने की वजह से प्रतिवर्ष एक करोड़ से अधिक लोग गरीबी के अभिशाप से मुक्त हुए। वामपंथी दलों के सख्त विरोध के चलते विनिवेश कार्यक्रम को ठंडे बस्ते में रखा गया। विदेश नीति के क्षेत्र में मनमोहन सरकार ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करके शीतयुद्ध के दौर से बाहर निकलने की कोशिश की। नरमपंथी माने जाने वाले डॉ. मनमोहनसिंह ने परमाणु समझौते को इतना अधिक महत्व दिया कि उन्होंने वामपंथी दलों के नेताओं को चुनौती दे दी कि वे समर्थन वापस लेना चाहें तो ले लें।

संप्रग व वामपंथी दलों के बीच तनाव इतना अधिक बढ़ गया था कि मध्यावधि चुनाव निकट दिखाई देने लगा। कांग्रेस के घाघ नेताओं ने प्रधानमंत्री को समझाया कि परमाणु समझौते पर मध्यावधि चुनाव में जाने का कोई औचित्य नहीं है। यदि वामपंथी दलों ने समर्थन वापस ले लिया तो न समझौता बचेगा और न ही सरकार। कांग्रेस ने अंततः इस वाक्य को सही सिद्ध किया कि राजनीति संभावनाओं की कला है।

इस कला में सरकार को तभी दाँव पर लगाया जाता है, जब फिर से चुनकर आने की संभावना प्रबल दिखाई देती है। अंतिम सच यह था कि परमाणु समझौते की तुलना में सरकार बड़ी है। मनमोहन सरकार बैंकिंग, बीमा व श्रम क्षेत्रों में कई सुधार करना चाहती थी, लेकिन वामपंथी दलों के विरोध के चलते यह संभव नहीं हुआ। पिछले एक साल से आर्थिक सुधारों की गाड़ी पूरी तरह पटरी से उतरी हुई है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आर्थिक सुधारों का चक्काजाम होने की वजह से विकास दर पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा है।

किसानों की आत्महत्या की खबरों ने मनमोहन सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया था, लेकिन ताजा खबर के अनुसार कृषि क्षेत्र में विकास दर 2 से बढ़कर 3.5 प्रतिशत हो गई है। 21 करोड़ मीट्रिक टन गेहूँ की रिकॉर्ड सरकारी खरीद से सरकार का आत्मविश्वास बढ़ा है। वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम को उम्मीद है कि सितंबर के बाद मुद्रास्फीति की दर 5 प्रतिशत के भीतर हो जाएगी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ी कीमतों ने मनमोहन सरकार के सामने गंभीर संकट खड़ा कर दिया है।

आशंका व्यक्त की जा रही है कि कच्चे तेल की कीमत वर्तमान 135 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 200 डॉलर तक पहुँच सकती है। यदि अगले कुछ महीनों के भीतर ऐसा हो गया तो महँगाई की दर 5 प्रतिशत के स्तर पर लाना असंभव हो जाएगा। कांग्रेस के नेता स्वयं यह महसूस करते हैं कि यदि महँगाई को काबू में लाना संभव नहीं हुआ तो कांग्रेस व संप्रग के घटक दलों को गंभीर चुनावी संकट का सामना करना पड़ेगा।

संप्रग सरकार के चार साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह की दावत में सपा नेता अमरसिंह की मौजूदगी इस बात का स्पष्ट संकेत था कि कांग्रेस व संप्रग के घटक दल खुद को चुनावी तौर पर कमजोर महसूस कर रहे हैं। पिछले तीन साल से उत्तरप्रदेश में मुलायमसिंह यादव के खिलाफ व्यक्तिगत अभियान चलाने के बाद कांग्रेस सपा के साथ राजनीतिक तालमेल करना चाहती है।

मायावती के जन्मदिन पर सोनिया गाँधी फूलों का गुलदस्ता लेकर उनके निवास पर गईं, लेकिन कोई बात नहीं बनी। बहनजी अब प्रधानमंत्री पद की दावेदार हैं, वहीं कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में राहुल गाँधी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना चाहती है। पिछले चार साल का चुनावी रिकॉर्ड यह बताता है कि सोनिया-राहुल की जोड़ी 13 राज्यों के विधानसभा चुनाव में असफल रही है।

यह संयोग है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान भाजपा लगातार 14 राज्यों में चुनाव हारी थी। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजों ने स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस व संप्रग में शामिल घटक दलों का चुनावी भविष्य उज्ज्वल नहीं है।