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Written By संदीपसिंह सिसोदिया
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (18:41 IST)

भारत की लुप्त होती वन्य प्रजातियाँ

भारत की लुप्त होती वन्य प्रजातियाँ -
यह बात निःसंकोच रूप से स्वीकारी जाती है कि सन्‌ 1912 के जंगली जानवरों और पक्षियों के संरक्षण संबंधी कानून (The Wild Birds and Animals Protection act of 1912) के कारण तथा अंग्रेजी शासन के राजाओं के सहयोग से जंगली जानवरों और अनेक मूल्यवान पक्षियों को सुरक्षा मिल सकी और यह काम 1930 तक सुचारु रूप से चलता रहा, पर द्वितीय महायुद्ध के बाद जंगली जानवरों की संरक्षण-नीति में आकस्मिक परिवर्तन हो गया। झाड़ियों और जंगलों के बुरी तरह कटने से जंगली चीता तो समाप्त ही हो गया और स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि भारत में वह प्राकृतिक स्थिति में नहीं पाया जाता।

जलप्रपातों और बाँधों से बिजलीघर बनाने की गतिविधि और जंगल काटकर खेती करने की होड़ से जंगली जानवरों का विनाश हो रहा है और उचित सुरक्षा के अभाव में अनेक अन्य पशु भी चीते की गति को ही प्राप्त होंगे। यह ठीक है कि गैरकानूनी ढंग से शिकार और शिकार संबंधी अपर्याप्त कानूनों के कारण जंगली जानवरों का काफी विनाश होता है, पर यह बहुत कुछ रोका भी जा सकता है। मांसाहारी कबीलों से शिकार के कारण जो हानि जानवरों की होती है, वह इतनी नहीं है कि जितनी जंगल काटकर असंतुलित खेती करने से होती है।

  बाँध-निर्माण और कृषि-विकास-योजनाओं में वनों तथा जंगली जानवरों की रक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता। यदि विशेषज्ञों, वन-विभाग और संतुलित जीवन के विशेषज्ञों के सहयोग से योजनाएँ बनें तो उद्योग-धंधे भी चल सकते हैं और जंगली जानवरों की रक्षा भी हो सकती है।      
उत्तरप्रदेश व उत्तरांचल के विश्वविख्यात तराई क्षेत्र की चर्चा की गई है। वहाँ 1940 तक प्रत्येक प्रकार के जानवरों का बाहुल्य था। इतना बाहुल्य कि वहाँ का जंगल कट जाने पर भी ईख के खेत में कभी-कभी शेरों के जोड़े पाए जाते हैं। उनके रहने के लिए जंगल नहीं हैं और ईख के खेतों में रहकर अब भी शेरों के दो-चार जोड़े सूअर और चीतलों पर अपना निर्वाह करते हैं। कुमायूँ में रामगंगा का जो बाँध बाँधा गया है, उससे पूरी आशंका है कि वहाँ के जंगली जानवरों के नैसर्गिक निवास-क्षेत्र का एक बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो चुका है और वहाँ से वन्यजीवों का लोप हो जाना संभव है।

अन्य स्थानों पर इन पशुओं को संरक्षण मिलना जंगलों की कमी के कारण असंभव ही है। मैसूर शहर से 50 मील की दूरी पर कक्कनकोट का जो बाँसों का सघन वन है, वह हाथियों का परम क्रीड़ा-क्षेत्र है, पर काबिनी नदी पर बाँध बँधने से उनका बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो गया है। कक्कनकोट में खेदा से जो हाथी पकड़े जाते थे, उसके विषय में अंग्रेजों ने बड़ा ही आकर्षक साहित्य वर्णन लिखा है।

बाँस और हाथी-जीवन का बड़ा घनिष्ट संबंध है। यदि बाँसों का यह जंगल नष्ट हो गया तो मैसूर की एक अमूल्य सम्पदा भी नष्ट हो जाएगी। उद्योग, पानी और बिजली मिलने के साथ-साथ यदि बाँस-वन बना रहे तो जंगली हाथी की भी रक्षा हो सकेगी। तात्पर्य यह है कि बाँध-निर्माण योजनाओं और कृषि-विकास-योजनाओं में वनों तथा जंगली जानवरों की रक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता। यदि इन योजनाओं के विशेषज्ञों, वन-विभाग के कार्यकर्ताओं और संतुलित जीवन के विशेषज्ञों का मत लिया जाए और उनके सहयोग से योजनाएँ बनें तो उद्योग-धंधे भी चल सकते हैं और जंगली जानवरों की रक्षा भी हो सकती है। उद्योगों और धंधों की खातिर बाँध बनना चाहिए, बिजली भी पैदा होना चाहिए, पर इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बेकार जमीनों में जलाशय बन सकें तथा जंगली जानवरों के लिए समुचित स्थानों की रक्षा हो सके, तो मनुष्यों का और भी अधिक हित होगा।

भारत में आजकल जानवरों के लिए जो सुरक्षित क्षेत्र है, अर्थात वे स्थान, जहाँ शिकार खेलना वर्जित है, वहाँ चोरी-छिपे शिकार खेला जाता है। उसकी रोकथाम अतिआवश्यक है। भारतीय गैंडे के लोप हो जाने की बड़ी भारी आशंका है। एक समय था जब भारत के उत्तर पश्चिम से लगाकर इंडोचीन तक भारतीय गैंडा पाया जाता था। बाबर ने सिंधु नदी के तट पर गैंडे का शिकार खेला था, पर अब नेपाल के चितावन जंगल और पश्चिमी बंगाल के उत्तरी जंगलों तथा असम के एक अति सीमित क्षेत्र में कतिपय भारतीय गैंडों को संरक्षण प्राप्त है। असम के कांजीरंगा-क्षेत्र में लगभग 300 गैंडे मारने का एक कारण यह है कि लोगों में एक भ्रांति फैली है कि उसके सींग के बने प्याले में यह अद्भुत शक्ति बताई जाती है कि उसमें जहर मिली कोई चीज रखने से जहर का पता चल जाता है।

इसके अतिरिक्त गैंडे के सींग का बुरादा मूल्यवान दवाइयों के काम आता है। वर्तमान औद्योगिकीकरण के युग में गैंडे के सींग का मूल्य बहुत अधिक है। गत 1961 में असम के नौगाँव क्षेत्र के 13 सुरक्षित गैंडों में से सबसे बड़ा नर गैंडा मरा पाया गया और उसकी लाश से उसका सींग गायब था। उसके हृदय में गोली लगी थी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में गैंडे के सींग का मूल्य लाखों रुपए होता है। ऐसी दशा में भारतीय गैंडे को बचाने के लिए जंगली जानवरों के सुरक्षा संबंधी कानूनों में परिवर्तन करके कड़ाई से पालन करना होगा। भारत से लोप होने वाले ऐसे पशुओं को मारने वालों को मृत्यु-दंड नहीं तो कालापानी या अन्य कठोर दंड की व्यवस्था करना होगी और देखभाल का भी समुचित प्रबंध करना होगा।

भारतीय जंगली भैंस भी एक ऐसी जानवर है, जो कदाचित अपने अंतिम दिन गिन रही है। अब से कुछ ही वर्ष पूर्व वह मध्यप्रदेश में काफी संख्या में पाई जाती थी, पर अब उसकी संख्या घट गई है और असम, मध्यप्रदेश तथा उड़ीसा के एक सीमित क्षेत्र में ही पाई जाती है। जंगली भैंस के रहने का स्थान आदमियों की आबादी का नहीं है और न वह जंगलों में जाती है, वह तो दलदल तथा घास वाले क्षेत्रों में ही रहती है। बढ़ती खेती के प्रसार-आंदोलन में वह एक प्रकार से धकेलकर एक संकुचित क्षेत्र में पहुँचा दी गई है। यही गति रही तो उसका खात्मा भी निश्चित है। माँसाहारियों के लिए भैंस से माँस मिलता था और उद्योग-धंधों के लिए चमड़ा, सींग आदि। भारतीय जंगलों की एक और विभूति भारतीय गौर के भी खत्म होने की आशंका है। दक्षिण की वायनाड पहाड़ियों का वह सिरमौर है। विशालकाय वह इतना है कि शेर भी आसानी से नहीं मार सकता। भारी इतना कि उसके शव का मूल्य माँस के रूप में लगभग पाँच सौ रुपए प्रति जानवर होता है। अब जो वहाँ पर बाँध आदि की बहुउपयोगी योजना बन रही है, उसके खत्म होने की आशंका है।

भारतीय जंगली चीता झाड़ियों में रहने वाला पशु है। दक्षिण और मध्यप्रदेश में वह बहुतायत से पाया जाता है। घने जंगलों में वह रहता नहीं है और कृषि प्रसार के लिए झाड़ियाँ काट डाली गईं तो नासमझ शिकारियों की गोली से वह मारा गया। वर्षों की खोज के बाद भी भारतीय जंगली चीता आज भारत के किसी भी क्षेत्र में अब नहीं मिलता। सन्‌ 1951 में ही वह प्राकृतिक अवस्था में अंतिम बार देखा गया था।

भारतीय सिंह या गीर सिंह की संख्या भी सीमित है, जो अनुमानतः 300-500 होगी। वर्षों से उन्हें संरक्षण प्राप्त है, इसलिए वे अभी इतनी संख्या में हैं। हिरणों और सूअरों की संख्या भी घट गई है, अतः सिंहों की प्राकृतिक खुराक कम हो गई है। तिस पर नासमझ और लालची शिकारी पैसे और कद बढ़ाने के लिए जहाँ कहीं सिंह मिलते हैं उन्हें मार डालते हैं।

कच्छ के रनों- छोटी खाड़ियों के दलदली इलाकों में पाया जाने वाला दुर्लभ भारतीय जंगली गधा जो विश्व में भी केवल 4954 वर्ग किमी में फैले कच्छ के रन में ही पाया जाता है और मानसून के दौरान पानी भरने से बने छोटे-छोटे टापुओं और खाड़ियाँ यानी 'बेट' पर उगने वाली घास व वनस्पति खाता है, वह भी सिकुड़कर लुप्त होने के कगार पर आ गया है, क्योंकि खेती के लिए ये छोटी खाड़ियाँ भी उपजाऊँ बनाई जा रही हैं तथा भरी जा रही हैं। अतः पूरी आशंका है कि भारतीय जंगली गधा भी चीते की गति को प्राप्त हो सकता है।

कुछ प्रसन्नता की बात यह है कि मस्तक श्रृंग हिरण, जिसके विषय में सन्‌ 1951 में रिपोर्ट लिख दी गई थी कि वह खत्म हो चुका है, अनायास वह 3-4 की टोली में मणिपुर में पाया गया। भारत सरकार ने उसे फौरन संरक्षण दिया और सुरक्षित किया जिससे वर्तमान में अनुमानतः उनकी संख्या अब सौ के ऊपर पहुँच गई है।