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Written By आलोक मेहता
Last Updated : सोमवार, 20 अक्टूबर 2014 (16:26 IST)

बाजी 20 करोड़ जीतने की

बाजी 20 करोड़ जीतने की -
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असल में देश के करोड़ों गरीब तथा अर्द्धशिक्षित लोगों के लिए सारे पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर काम करने की जरूरत है। सन्‌ 1948 में ही गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था- 'यदि हम धर्म, जाति या मत पर ध्यान दिए बिना समूची जनता के लिए एक न्यासी के रूप में कार्य नहीं करते तो इसका अर्थ है कि हम जिस मुकाम पर हैं, उसके योग्य नहीं हैं।'

सवाल सवा अरब में से 20 करोड़ जीतने का है। यह अमिताभ बच्चन या शाहरुख खान का टीवी स्टूडियो में पूछे जाने वाला प्रश्न नहीं है। यह पहेली भविष्य में देश की सत्ता पर कब्जा करने की तमन्ना रखने वालों के लिए है। राहुल गाँधी, दिग्विजयसिंह, सलमान खुर्शीद, मुलायमसिंह यादव, मायावती, ममता बेनर्जी, तरुण गोगोई, एके एंटोनी, उमर अब्दुल्ला ही नहीं, नितिन गडकरी, नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, प्रकाशसिंह बादल के लिए भी यह महत्वपूर्ण मुद्दा है। उत्तरप्रदेश विधानसभा के आगामी चुनाव में इस मुद्दे पर पहला बड़ा टेस्ट होगा।

अल्पसंख्यक मुस्लिम ही नहीं हैं। सिख, ईसाई, बौद्ध समुदाय भी अल्पसंख्यकों में हैं और उनके हितों की रक्षा करने का दायित्व सत्ता या विपक्ष में बैठने वाले राजनीतिक दलों तथा सामाजिक संगठनों का भी है। फिर भी सत्ता के गलियारों या बंद कमरे में जिम्मेदार लोग इस बात पर माथापच्ची करते सुने जा सकते हैं कि अब अल्पसंख्यकों का झुकाव किस ओर रहने वाला है।

संसद के 1 अगस्त से शुरू होने जा रहे वर्षाकालीन सत्र में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा संबंधी एक विधेयक भी आने वाला है, जिस पर भारतीय जनता पार्टी अवश्य पहले से असहमत है। असल में अल्पसंख्यकों को लेकर राजनीति अधिक होती रही है और सही अर्थों में उन्हें सशक्त, समर्थ और जागरूक बनाने के लिए सरकार के साथ गैर राजनीतिक स्तर पर समुचित प्रयास नहीं हुए हैं।

अल्पसंख्यक समुदाय के एक गैर राजनीतिक दक्षिण भारतीय मित्र से चर्चा के दौरान मैंने कहा कि अल्पसंख्यकों के बीच कोई दिग्गज नेता क्यों नहीं दिखाई देता? बड़े राजनीतिक दलों में सलमान खुर्शीद, गुलाम नबी आजाद, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी या दिग्विजयसिंह और मुलायमसिंह या मायावती को पूरा अल्पसंख्यक समाज क्या स्वीकार करता है?

मित्र ने उत्तर दिया कि "क्या कोई कट्टर धार्मिक मौलाना ही अल्पसंख्यकों का नेता माना जा सकता है? यह गलतफहमी किसी को नहीं पालनी चाहिए। आजादी से पहले और उसके बाद देश में कई ऐसे नेता रहे हैं, जो सांप्रदायिक और कट्टरपंथी नहीं होने के कारण अल्पसंख्यकों के बीच सर्वाधिक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय रहे हैं।"

मतलब यह कि अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए नेता और योजनाएँ रही हैं, लेकिन उनका लाभ लोगों तक नहीं पहुँचा है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में अल्पसंख्यकों के लिए 7 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया। इस समय तैयार हो रही 12वीं पंचवर्षीय योजना में लगभग 15 हजार करोड़ रुपए अल्पसंख्यकों की छात्रवृत्तियों तथा अन्य कार्यक्रमों के लिए रखे जा रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि अल्पसंख्यक समुदाय को शैक्षणिक सुविधाओं का पूरा लाभ मिल सके।

दावा किया जाता है कि हाल के वर्षों में मुस्लिम छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ दिलाने के लिए बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठन सक्रिय हुए हैं और इस वर्ष लगभग 80 लाख छात्रों को लाभ मिल रहा है। आंध्रप्रदेश, केरल और उत्तरप्रदेश में ऐसे संगठन अधिक सक्रिय हुए हैं। बिहार, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में ऐसी सक्रियता क्यों नहीं दिखाई देती?

मदरसों और मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों-कॉलेजों को लेकर भारतीय जनता पार्टी और कुछ अन्य सांप्रदायिक संगठन आपत्तियाँ करते रहे हैं, लेकिन सामाजिक समरसता तथा जागरूकता की जिम्मेदारी क्या केवल केंद्र या राज्य सरकारों की है? धार्मिक आस्थाओं के नाम पर तिजोरियों और कमरों या बैंकों में जमा अरबों रुपयों, सोने-चाँदी-हीरे-मोती के आभूषणों का उपयोग अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समाज के लाखों गरीब बच्चों की श्रेष्ठतम शिक्षा के लिए क्यों नहीं होता?

भारतीय परंपरा और संस्कृति के अनुरूप हर बड़े मंदिर के साथ गुरुकुल जैसी शैक्षणिक संस्थाएँ अब नहीं चलती हैं, लेकिन गुरुद्वारों, मस्जिदों और गिरिजाघरों की व्यवस्था संभालने वाले संचालक या अन्य गैर सरकारी संगठन सरकारी शैक्षणिक छात्रवृत्तियों का लाभ अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों को दिलवाने के लिए व्यापक अभियान क्यों नहीं चला सकते? सामाजिक कल्याण, ग्रामीण विकास तथा जल आपूर्ति विभागों ने अल्पसंख्यक बहुल कस्बों-गाँवों के लिए करोड़ों रुपयों का प्रावधान किया, लेकिन विकास कार्यक्रमों का समुचित क्रियान्वयन नहीं हुआ।

मौलाना आजाद फाउंडेशन, छात्रों को मुफ्त कोचिंग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास फंड में इक्विटी, युवा महिलाओं के लिए नेतृत्व विकास परियोजना, विदेश में शिक्षा के लिए ब्याज मुक्त सबसिडी जैसी विभिन्न योजनाएँ वर्षों से चल रही हैं, लेकिन दूरदराज के लोगों तक उनका लाभ नहीं पहुँचा। सच यह है कि केंद्र या राज्य सरकारें इनका प्रचार-प्रसार ही ठीक से नहीं कर सकीं।

सत्ताधारी नेता तथा उनके सलाहकार और बड़े बाबू कम्प्यूटर इंटरनेट से आवेदन-पत्र उपलब्ध कराने और बैंकिंग लाभ देने का दावा करते हैं, लेकिन ग्रामीण और अर्द्धशिक्षित क्षेत्रों में अभी चार घंटे की बिजली तक नहीं होती, वहाँ दिल्ली-मुंबई की तरह इंटरनेट क्रांति का लाभ गरीब बच्चे और उनके माता-पिता कैसे ले सकते हैं। गरीब मजदूर, किसान निर्धारित आवेदन-पत्रों में अपने इनकम टैक्स का हिसाब या गारंटी के दस्तावेज कहाँ से दे सकते हैं।

अमेरिका में अश्वेतों तथा हिस्पेनिक समुदाय को समान अवसर, अधिकार और सुविधाएँ मिलने में भी बरसों लग गए, लेकिन न्यूनतम शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाएँ उन्हें बहुत पहले मिलने लगी थीं। फिर पश्चिमों देशों में पर्याप्त विकास और आधुनिकीकरण के कारण अल्पसंख्यकों को आगे बढ़ने में बहुत कठिनाई नहीं आई। भारत में योजनाएँ कागज पर बनाने और उसी पर क्रियान्वयन का खेल पुराना है।

राजनीतिक दलों की संगठनात्मक जागरूकता तथा गैर सरकारी संगठनों की रचनात्मक भूमिका से ही इस बीमारी का इलाज हो सकता है। यहाँ तो पार्टियों के अल्पसंख्यक सेल भी कागजी और दिल बहलाने के लिए होते हैं। असल में अल्पसंख्यक हों या दलित अथवा आदिवासी, देश के करोड़ों गरीब तथा अर्द्धशिक्षित लोगों के लिए सारे पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर काम करने की जरूरत है।

आजादी के बाद 1948 में ही गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था- 'यदि हम धर्म, जाति या मत पर ध्यान दिए बिना समूची जनता के लिए एक न्यासी के रूप में कार्य नहीं करते तो इसका अर्थ है कि हम जिस मुकाम पर हैं, उसके योग्य नहीं हैं।' नेहरू और पटेल को आदर्श मानने वाले जिम्मेदार नेताओं को इसी बात को स्वीकारना होगा।

अल्पसंख्यक या आदिवासी अब लॉकर में बंद पूंजी की तरह इस्तेमाल नहीं हो सकते। उन्हें अपना हित-अहित अच्छी तरह समझ में आने लगा है। आतंकवादी घटनाओं के बावजूद किसी वर्ग विशेष को निशाना बनाना भी बेहद खत रनाक है, क्योंकि आतंकवादी संगठन का उद्देश्य ही समाज को बाँटकर आतंकित करना है। समाज के हर वर्ग को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाकर ही राष्ट्र तथा लोकतंत्र की रक्षा की जा सकती है।