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Written By ND

जीने का पहला हक भारतीयों का

जीने का पहला हक भारतीयों का -
- विष्णुदत्त नागर

पिछले दिनों वाणिज्य मंत्री कमलनाथ द्वारा घोषित वार्षिक विदेशी व्यापार नीति (संशोधन) में यह प्रश्न पुनः अनुत्तरित रहा कि क्या भारतीयों की भौतिक आवश्यकताओं की सम्यक पूर्ति किए बिना हम हमारे उत्पादों का निर्यात कर सकते हैं? भारत में जो कुछ पैदा होता है उस पर पहला हक विदेशियों का क्यों? क्या यह शर्म और चिंता की बात नहीं कि हमारे बच्चे भूखे-नंगे घूमें और विश्व व्यापार में तेजी की आड़ में उन्हें बुनियादी जरूरतों से महरूम रखें?

यह सही है कि आज भारत का 311 अरब से अधिक का विदेशी मुद्रा भंडार लबालब भरा हुआ है, लेकिन विदेशी व्यापार अभी 72 अरब डॉलर के घाटे में चल रहा है। इसलिए भारत सरकार एक ओर टैक्स और शुल्क लगाकर और दूसरी ओर अरबों रुपयों का नुकसान सहकर भी निर्यात योग्य वस्तुओं के उत्पाद और व्यापार के लिए 450 से अधिक विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाना चाहती है।

हाल ही में सरकार ने मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए आयातित वनस्पति तेलों पर शुल्क में कमी की, लेकिन विचित्र बात यह है कि सरकार के इस फैसले से इंडोनेशिया सरकार को दो हजार करोड़ रु. का फायदा होगा। कटौती के तुरंत बाद इंडोनेशिया की सरकार ने कच्चे पाम ऑइल के आधार मूल्य में 20 प्रश की बढ़ोतरी कर दी। विडंबना यह है कि जब कभी भी भारत सरकार ने आयात शुल्क में कटौती की, उसका फायदा निर्यात करने वालों देशों को ही मिला है।

वर्ष 2008-09 की विदेश व्यापार नीति में सीमेंट के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया और प्राथमिक इस्पात के निर्यातकों को दी जाने वाली प्रोत्साहनकारी सुविधाएँ वापस ले लीं। वाणिज्य मंत्री ने याद दिलाया कि गैर बासमती चावल के निर्यात को पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया है। 1 अप्रैल 2008 से दालों के निर्यात पर प्रतिबंध भी एक साल के लिए बढ़ा दिया गया।

ज्ञातव्य है कि पूर्व राजग सरकार ने भी देश में गेहूँ के उत्पादन में कमी के बावजूद गेहूँ का निर्यात किया, जिसके कारण सरकारी गोदाम खाली हो गए और परोक्ष रूप में निजी व्यापारियों को 16000 करोड़ रु. की सबसिडी दी। सरकार समय-समय पर गेहूँ, प्याज, चावल-दाल जैसी वस्तुओं का भी निर्यात कभी खोल देती है और कभी बंद कर चुकी है, लेकिन मूल प्रश्न यह है कि क्या इन वस्तुओं की पहली जरूरत हम भारतीयों की नहीं है?

विचित्र बात यह है कि घरेलू स्तर पर दालों की माँग और उपलब्धता में तीस लाख टन का अंतर होते हुए भी सरकार इस कमी से निपटने के लिए समय पर कदम उठाने की बजाय दालों के निर्यात की स्वीकृति देती रही। यही हाल बासमती और गैर बासमती चावल दोनों का है। अफ्रीकी महाद्वीप और कुछ पड़ोसी देशों को निर्यात जारी रखा। नतीजतन देश में वस्तुओं के भाव 40 से 60 प्रश तक ऊँचे हो गए।

इसे विडंबना ही कहें कि निर्यातक संगठनों को गैर बासमती चावल प्रतिबंधित करने से कैमरून, नाइजीरिया, सोमालिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में चावल की कीमतें बढ़ने की चिंता तो है, लेकिन देश के चावल निर्यात के कारण बढ़ी मूल्यवृद्धि की चिंता नहीं। गत वर्ष देश से 45 लाख टन चावल का निर्यात हुआ जिसमें से 10 लाख टन सऊदी अरेबिया को भेजा गया बासमती चावल था।

यद्यपि सरकार पिछले कुछ महीनों से सीमेंट और इस्पात उद्योग से कीमत कम करने की अपील करती रही और कभी उनकी एकाधिकारी प्रवृत्ति को रोकने की धमकी देती रही, लेकिन घरेलू माँग और आपूर्ति में अंतर के होते हुए भी निर्यात जारी रखा गया। सरकार को भलीभाँति मालूम था कि कुछ वर्षों से सीमेंट के घरेलू उत्पादन और आपूर्ति के बीच अंतर बढ़ता जा रहा था, लेकिन एक ओर सीमेंट का निर्यात किया जाता रहा और दूसरी ओर पाकिस्तान से आयात किया जाता रहा। इस्पात की कीमतों में बढ़ोतरी और सरकार की चिंता अजीब पहेली बनी हुई है।

कठिनाई यह है कि सरकार समय के पटल पर लिखी इबारत को या तो पढ़ती ही नहीं है और जब पढ़ती है तो बहुत देर हो चुकी होती है। वाणिज्य मंत्री ने देश को आश्वस्त किया है कि उनके द्वारा उठाए गए कदमों का असर दिखने में कुछ समय लगेगा। लेकिन यह समझ से परे है कि जनता के पास 'कुछ प्रतीक्षा' करने का धैर्य है लेकिन सरकार बाजार को पढ़ने में अधिक समय क्यों लगाती है?

पूर्व में औद्योगिक और व्यापारिक संगठनों ने समय-समय पर चेतावनी भी दी है कि यदि समय पर निर्यात नहीं रोका गया तो दालों की कीमतें 35 से 45 रु. के दायरे से बढ़कर 45 से 55 रु. तक पहुँच जाएगी। अन्य वस्तुओं की कमी के बारे में भी सरकार को मालूम था, क्योंकि यूपीए सरकार के पास विभिन्न वस्तुओं के उपभोग के आँकड़े उपलब्ध हैं।

वियतनाम और मिस्र जैसे देशों में जैसे ही फसल खराब हुई और चावल के मूल्य बढ़ने के आसार दिखाई देने लगे, वहाँ निर्यात बंद कर दिए गए, लेकिन हमारी सरकार सोती रही। आग लगने पर कुआँ खोदने की नीति के तहत जब विभिन्न मंत्रालयों के बीच वार्ताएँ हुईं, नीति बनी और उनकी घोषणा हुई तब तक बाजार में आग फैल चुकी थी। देश की 100 से अधिक वस्तुओं से जुड़ा कमोडिटी एक्सचेंज कार्यरत है जो भविष्य में होने वाली माँग और पूर्ति के आधार पर भविष्य के वायदे बाजार को संचालित करता है।

क्या यह नहीं हो सकता कि केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारें आम बजट की तरह उपभोग वस्तु बजट बनाएँ और देश के 600 से अधिक जिलों की विभिन्न आवश्यक वस्तुओं की माँग के आधार तथा उत्पादन के फसल चक्र को देखते हुए आपूर्ति करे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली जरूरी है, लेकिन उससे अधिक जरूरी है सरकारी वस्तु बजट, जिसके निर्धारित और संचालित करने के प्रति संवैधानिक बाध्यता हो। इसके लिए संविधान में संशोधन किया जा सकता है।

देश की आम जनता महँगाई की आग में अधिक दिनों तक नहीं जल सकती है और न ही बाजार अस्थिरता को सह सकता है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि रुपए की विनियम दर में तेजी और अंतरराष्ट्रीय बाजार के संकेतों से प्रभावित गैर आवश्यक वस्तुओं के निर्यातकों को रियायतें और सौगातें न दी जाएँ।

इस संबंध में वाणिज्य मंत्री द्वारा खेलकूद के सामान, दूरसंचार, हार्डवेयर, उच्च प्रौद्योगिकी तथा ज्ञान आधारित सेवाओं के निर्यात हेतु विशेष पैकेजों की घोषणा स्वागतयोग्य है। लेकिन वित्तमंत्री को नए वर्ष 2008-09 में विदेश व्यापार नीति में छोटे निर्यातकों का भी ध्यान रखना चाहिए था। आज स्थिति यह है कि चीन तथा अन्य देशों को बड़े पैमाने पर सस्ता आयात हो रहा है लेकिन उसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।

उल्लेखनीय है कि आर्थिक भूमंडलीकरण के दौर में जिस आयात-निर्यात की संस्कृति की लोरियाँ गाई जा रही हैं, उसका पलना बाजार है। इतिहास साक्षी है कि मुक्त व्यापार की माँग जो विकसित राष्ट्र कर रहे हैं उनमें योरप, अमेरिका और जापान ने संरक्षणवाद की गोद में ही अपना विकास किया। अब जबकि इन्होंने विराट रूप धारण कर लिया तब वे वामन रूप के विकासशील राष्ट्रों से कह रहे हैं कि वे आयात और निर्यात पर कोई रोक न लगाएँ।

इतिहास इस बात का भी गवाह है कि जिस देश ने घरेलू माँग को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता की नीति अपनाई वह देश ही तेजी से आगे बढ़ा है और इसके विपरीत विदेशी व्यापार पर आधारित राष्ट्रों ने विनिमय दर स्थिरता को सुनिश्चित किया है, उनका अस्तित्व ही इतिहास पर अंकित है। अतः भारत को अपनी सोच घरेलू माँग और मूल्य स्थिरता पर ही केंद्रित करना होगी।

रुपए का बाह्य मूल्य तो बढ़ता रहे और उसकी आंतरिक क्रयशक्ति घटती रहे, यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं चल सकती। अतः हमें यह बुनियादी बात ही स्वीकार करनी होगी कि हम ऐसी अर्थव्यवस्था के बारे में सोचें, जो विश्व के खाद्यान्नों की बढ़ती माँग और कीमतों की वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए जो भारतीयों की, भारतीयों के द्वारा और भारतीयों के लिए हो।