शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By ND

जम्मू कश्मीर में तुरूप का पत्ता ढूँढती राजनीति

जम्मू कश्मीर में तुरूप का पत्ता ढूँढती राजनीति -
- वेदप्रताप वैदि

क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ देश को कैसे बर्बाद करते हैं, इसका उदाहरण है अमरनाथ वन-भूमि विवाद। जम्मू-कश्मीर में चुनाव सिर्फ चार माह बाद होने वाले हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस और पीडीपी तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस- ये तीनों प्रमुख पार्टियाँ अपनी-अपनी सरकार बनाने के लिए बेताब हैं।

तीनों इस फिराक में हैं कि तुरूप का कोई जबर्दस्त पत्ता चला जाए। तीनों अल्पमत में हैं। तीनों बहुमत पाने के लिए कोई भी तिकड़म करने को तैयार हैं। इस समय श्रीनगर में मुख्यमंत्री कांग्रेस का है और पीडीपी के साथ उसका गठबंधन है। पीडीपी के मंत्रियों ने अभी इस्तीफे दे रखे हैं।

  हिन्दू तीर्थयात्रियों की वे आज भी अनुपम सेवा कर रहे हैं। कश्मीरियत की श्रेष्ठ सूफी परंपरा को निभा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस ने कश्मीर में वही दाँव मारा, जो उसने अयोध्या के राम मंदिर में मारा था      
कांग्रेस के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद से कोई पूछे कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ भूमि 'बाकायदा' देने की जरूरत ही क्या थी? पिछले डेढ़ सौ साल से अमरनाथ यात्रियों को जो सुविधाएँ मिल रही थीं, वे उसी रूप में मिलती रहतीं तो किसी को क्या आपत्ति थी?

यह ठीक है कि अमरनाथ की गुफा तक पहुँचने का जो छोटा रास्ता आजकल बनाया गया है उसमें अंधड़ और तूफान ज्यादा आते हैं, वह दुर्गम भी है और प्रतिदिन आने वाले तीन-चार हजार यात्रियों को कभी-कभी रास्ते में ही रात गुजारनी पड़ती है, लेकिन उन्हें ये सारी सुविधाएँ बिना किसी शोर-शराबे के दी जा सकती थीं।

कश्मीर के मुसलमानों ने इन सुविधाओं का कभी विरोध नहीं किया बल्कि हिन्दू तीर्थयात्रियों की वे आज भी अनुपम सेवा कर रहे हैं। कश्मीरियत की श्रेष्ठ सूफी परंपरा को निभा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस ने कश्मीर में वही दाँव मारा, जो उसने अयोध्या के राम मंदिर में मारा था। जम्मू के हिन्दू मतदाताओं को रिझाने के लिए उसने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ जमीन दे डाली।

यह ठीक है कि जमीन स्थायी तौर पर नहीं दी है और सिर्फ ऐसे अस्थायी ढाँचे खड़े करने के लिए दी है, जिससे यात्रियों को शौच, स्नान और विश्राम की सुविधा मिल सके। इसमें गलत कुछ नहीं है, लेकिन वोट की राजनीति ने इस सहज मानवीय कार्य को शीर्षासन करवा दिया है। यदि कांग्रेस हिन्दू वोटों पर हाथ साफ करेगी तो पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस मुस्लिम वोटों को कब्जाने की कोशिश क्यों न करें?

कश्मीर के सांप्रदायिक तत्वों के दबाव में आकर अब मुख्यमंत्री को पलटी खानी पड़ी है। कैबिनेट भी शीघ्र ही अपने निर्णय को उलट देगी। कांग्रेस न इधर की रही, न उधर की। उसके जम्मू के हिन्दू वोट बैंक में सेंध लग गई और मुस्लिम मतदाता तो उससे पहले ही नाराज हो चुके थे। कश्मीर के जिहादी तत्वों ने चौके पर छक्का मार दिया। उन्होंने कश्मीर घाटी के मुसलमानों में यह झूठ फैला दिया कि उनकी 100 एकड़ जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को स्थायी तौर पर दे दी गई है ताकि उसमें गैर-कश्मीरियों को बसा दिया जाए।

यह कश्मीर विलय के समझौते का सरासर उल्लंघन है। जिहादियों ने इसे केवल सांप्रदायिक रंग ही नहीं दिया, उन्होंने इसे 'कश्मीर बनाम भारत' का मामला बना दिया। इस मामले ने जितना तूल पकड़ा, उतना सिर्फ हजरत बल के मामले ने पकड़ा था। पूरे एक सप्ताह कश्मीर घाटी का बंद रहना, हजारों लोगों का मैदान में उतर पड़ना और कुछ लोगों की जान जाना कोई मामूली असंतोष नहीं है।

  पीडीपी अगर सरकार छोड़ने का नाटक नहीं करती तो उसकी साख जमी रहती, क्योंकि उसने अमरनाथ श्राइन बोर्ड और पूर्व राज्यपाल के कई मंसूबों को पहले ही धराशायी करके जिहादी तत्वों की सहानुभूति बटोर रखी थी      
मुख्यमंत्री आजाद और राज्यपाल वोहरा ने इस अवसर पर समझदारी से काम लिया वरना यदि यह कश्मीर नहीं होता तो राज्य सरकार काफी सख्ती से पेश आ सकती थी। वह जिहादियों से पूछ सकती थी कि यदि हजयात्रियों के लिए सरकार करोड़ों रु. खर्च कर सकती है और उन्हें सब सुविधाएँ दे सकती है तो वह ये ही सुविधाएँ अमरनाथ-यात्रियों को क्यों नहीं दे सकती?

इसके अलावा अस्थायी तौर पर कुछ जमीन यदि दे दी गई तो उसे कश्मीर की जनसंख्या परिवर्तन का षड्यंत्र कैसे कहा जा सकता है। वे यात्री न तो जमीन उठाकर अपने घर ले जाते और न ही वे वहाँ बस जाते! लेकिन जिहादियों ने सारे मानवीय मामले का राजनीतिकरण कर दिया। क्या वे नहीं जानते कि अमरनाथ के शिवलिंग की खोज बूटा मलिक नामक मुसलमान चरवाहे ने 1850 में की थी और उसके उत्तराधिकारी ही मंदिर का चढ़ावा लिया करते थे?

जिहादियों की करतूत का खामियाजा कांग्रेस तो भुगतेगी ही, पीडीपी पर भी इसकी गाज गिरेगी। पीडीपी के उपमुख्यमंत्री ने कैबिनेट के उस फैसले पर मुहर लगाई थी, जिसमें 100 एकड़ जमीन यात्रा प्रबंधन के लिए दी गई थी। अब पीडीपी इस फैसले के विरोध की अगुवाई कर रही है। आम जनता के बीच पीडीपी की पोल खूब खुल रही है। जाहिर है कि अब सरकार के बाहर रहने का कोई बहाना उसके पास नहीं है। यदि वह फिर से सरकार में शामिल होना चाहेगी तो किस मुँह से चाहेगी।

गुलाम नबी आजाद का कहना है कि उन्हें कोई खतरा नहीं है। सरकार अपनी निश्चित अवधि से एक घंटा भी कम नहीं चलेगी। पीडीपी अगर सरकार छोड़ने का नाटक नहीं करती तो उसकी साख जमी रहती, क्योंकि उसने अमरनाथ श्राइन बोर्ड और पूर्व राज्यपाल के कई मंसूबों को पहले ही धराशायी करके जिहादी तत्वों की सहानुभूति बटोर रखी थी। घाटी के मुस्लिम वोटों पर कब्जा करने के लालच ने पीडीपी को भी साँसत में डाल दिया है। पीडीपी के पैंतरे ने जम्मू की जनता और छोटी-मोटी पार्टियों को उलट सांप्रदायिकता की लहर पर सवार कर दिया है।

  फिलहाल भूमि-दान के फैसले की वापसी के बाद जम्मू की जनता को भी जरा धैर्य और संयम का परिचय देना होगा। घाटी के लोगों की तरह वह भी अगर उत्तेजित हो गई तो कश्मीर समस्या पहले से भी अधिक उलझ जाएगी      
जम्मू-कश्मीर में आज सांप्रदायिकता की खाई जितनी गहरी हो गई है, पहले बहुत कम हुई है। इसका दुष्परिणाम अखिल भारतीय राजनीति को भी भोगना पड़ेगा। देश का साधारण मतदाता किसी भी मामले की बारीकियों में नहीं उतर सकता। वह इस बात पर उत्तेजित हुए बिना नहीं रहेगा कि जो कुछ भी हो रहा है, उसके कारण कश्मीर एक अघोषित 'मुस्लिम राष्ट्र' बन गया है।

भारत सरकार क्या कर रही है? वह तीनों प्रमुख पार्टियाँ- कांग्रेस, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस को जिहादियों के आगे घुटने टेकते हुए क्यों देख रही है? वह राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं ठोक देती? कश्मीर के तीनों दल यह भूल गए कि उनके कारनामों से कश्मीरियत चूर-चूर हो रही है। तीनों की आँखें अक्टूबर के चुनाव पर गड़ी हुई हैं, वरना तीनों दलों को मिलकर जिहादी तत्वों का मुकाबला करना चाहिए था और कश्मीर में ऐसा राजनीतिक माहौल खड़ा कर देना चाहिए था कि भारत-पाक कोशिशें सफल हो जातीं और अलगाववादी तत्व दरकिनार हो जाते।

फिलहाल भूमि-दान के फैसले की वापसी के बाद जम्मू की जनता को भी जरा धैर्य और संयम का परिचय देना होगा। घाटी के लोगों की तरह वह भी अगर उत्तेजित हो गई तो कश्मीर समस्या पहले से भी अधिक उलझ जाएगी। तीर्थयात्रियों को सारी सुविधाएँ देने का वचन राज्यपाल और मुख्यमंत्री ने दे दिया है इसलिए अब वास्तविक समस्या तो कोई है ही नहीं। कश्मीर का चुनाव अब किसी भी अन्य सामान्य चुनाव की तरह होना चाहिए।