शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By WD

आँख गीली किए बगैर कुछ शब्द

अफजल साहब की याद में

आँख गीली किए बगैर कुछ शब्द -
- प्रभु जोशी
सुबह घर से दफ्तर के लिए निकल ही रहा था कि फोन की घंटी एकाएक बजी। एक हल्की-सी झुंझलाहट के साथ मैंने रिसीवर उठाकर कान से लगाया तो दूसरे छोर से प्रश्न आया 'क्या कर रहे हो, तुम?'

प्रश्न ऐसे बेसाख्ता और इत्मीनान के साथ पूछा गया था, सीधा-सीधा गालिबन फोन करने वाले के लिए, 'इधर फोन उठा रहे आदमी' को अपना नाम इत्यादि बताने की कोई दरक़ार या जरूरत नहीं है। फूलते फेफड़े की हाँफती-सी आवाज थी, जैसे कई सारी सीढ़ियाँ एक ही साँस में तय करके आखिरी सीढ़ी पर पहुँचकर बोला गया हो। बोलते हुए पूरे वाक्य में, एक साँस से दूसरी साँस लेने के बीच, बार-बार खाली जगह छूट जाती थी।

देवास की टेकरी पर चढ़ते-चढ़ते आप अपोलो पर कहाँ चढ़ गए? क्या, चाँद पर जाकर लैण्डस्केप करने की तैयारी कर रहे हैं? उधर दूसरे छोर पर वे हँसे। हँसी हमेशा की तरह 'सहजता' से ही शुरू हुई, लेकिन उसका आखिरी छोर फूलती साँस में उलझ गया
मुझे आवाज की शिनाख्त में हस्ब-मामूल-सा वक्त लगा। साफ हो गया, आवाज अफजल साहब की है। फोन पर उनकी आवाज हमेशा से ही ऐसी लगती थी, जैसे तेजी से किसी दिशा में जाते हुए, बीच में एकाएक कहीं से फोन उठाकर, उन्होंने मेरा नंबर लगा दिया है। लेकिन, सहसा ध्यान गया कि वह 'लाँग-रिंग' नहीं थी। अतः निश्चय ही वे देवास से नहीं बोल रहे हैं। मैंने प्रतिप्रश्न किया- 'कहाँ से बोल रहे हैं, आप?' 'अपोलो से।' उधर से उन्होंने कहा।

देवास की टेकरी पर चढ़ते-चढ़ते आप अपोलो पर कहाँ चढ़ गए? क्या, चाँद पर जाकर लैण्डस्केप करने की तैयारी कर रहे हैं? बतरस को बढ़ाने की इच्छा से मैंने उनसे आदतन विनोद किया। उधर दूसरे छोर पर वे हँसे। हँसी हमेशा की तरह 'सहजता' से ही शुरू हुई, लेकिन उसका आखिरी छोर फूलती साँस में उलझ गया। हँसी बीच रास्ते में लुढ़ककर गिर गई।

बाद इसके, साँस को जैसे वे यत्नपूर्वक संभाल कर बोले- 'मैं यहाँ अपोलो 'अस्पताल' में हूँ, भई। पर, चिंता की कोई बात नहीं है, अभी। तुम धूप में भटकते मत आना, तुम पहले ही दुबले-पतले और नाजुक हो। क्वाँर की धूप है, यार। बीमार कर देगी। इत्मीनान से आना। इकट्ठा। निरात से।

NDND
मैं संशय से घिर आया। मुझे लगा, साँस की आवाज़ के पीछे छुपी भाषा कह रही है कि अब 'निरात' से पहुँचने का वक्त बकाया नहीं है, क्योंकि कुछ साल पहले उन्हें 'पक्षाघात' ने लगभग दबोच ही लिया था, लेकिन, तुरन्त उपचार मिल जाने के कारण सिर्फ चेहरे के दाईं ओर थोड़ा 'असर' आ गया था, जिसके चलते तेज रोशनी में उनकी उस तरफ की आँख चुँधियाने लगती थी। जैसे, वे दाईं पलक को मूँदना चाहते हों।

मैं लगे हाथ घर से निकलकर बाहर आ गया। बाहर अक्टूबर की वही चमकीली धूप थी, जिसमें मैंने अफजल साहब को घंटों खड़े-खड़े देवास की गलियों, चौराहों और शिकस्ता मकानों वाली बस्तियों के लैण्डस्केप्स करते देखा था। पिछले सालों से लगातार उनसे मैं आग्रह करता आ रहा था 'मैं आप पर दूरदर्शन के लिए एक फिल्म बनाना चाहता हूँ।' लेकिन, वे कहते थे 'अक्टूबर में शूटिंग करना। मैं देवास को धूप में पेंट करूँगा और तुम उसको शूट करना। तब लगेगा, आर्टिस्ट एट वर्क।'
मुझे याद आया, कुछ दिन पहले ही तो उन्होंने कहा था- 'बस इस बार अक्टूबर आने वाला है, इस बार तू तैयार रहना। यार प्रभु, अक्टूबर की तिरछी और चमकीली धूप से बढ़कर कोई भी दूसरी ऐसी खूबसूरत चीज इस जहान में नहीं है, जो मुझे पागल कर दे। कमबख्त कवियों को चाँदनी प्यारी होती होगी, पर मुझे तो धूप उथल-पुथल कर देती है। सूरज से मैं फरियाद करता हूँ कि वो धूप को मुसलसल गिराता रहे।'

अक्टूबर की तिरछी और चमकीली धूप से बढ़कर कोई भी दूसरी ऐसी खूबसूरत चीज इस जहान में नहीं है, जो मुझे पागल कर दे। कमबख्त कवियों को चाँदनी प्यारी होती होगी, पर मुझे तो धूप उथल-पुथल कर देती है
'तो फिर आप चाँदनी रात का लैण्डस्केप तो कभी बनाएँगे ही नहीं।' मैंने थोड़ा संदेह प्रकट किया था, तो वे तपाक से बोले थे यार तू ही बता, चाँदनी दरअसल है क्या? चाँद से टकराकर लौटी धूप ही तो है, भई। सुन, मैं तो हर उस स्पॉट को पेंट करना चाहता हूँ, जहाँ एक छोटा-सा 'दीया' भर भी रोशनी दे रहा हो।' दरअसल, वे कहीं भी, कभी भी और कैसी भी परिस्थिति में लैण्डस्केप कर सकते थे। धूप में। अँधेरे में। बारिश में।

दिन के उस क्षण में यह सोचकर मैं किचिंत उदास हो आया था कि यह सब कितना विडंबनापूर्ण है कि इस समय अक्टूबर की धूप देवास के चप्पे-चप्पे पर गिर रही है और वे उससे दूर यहाँ 'अपोलो' में लेटे हुए हैं। कुछ देर पहले बतरस की इच्छा से फोन पर किए गए विनोद को सहसा याद करते हुए अशुभ-सा लगा था कि क्या वे अपोलो में बैठकर चाँद पर लैण्डस्केप की तैयारी कर रहे हैं?

यों तो जन्मना इस्लामिक होने की वजह से उनका रिश्ता 'चाँद' से था, लेकिन 'धूप', उनके लिए सबसे प्यारी चज थी। सूरज उनके लिए सब कुछ था। कुछ दिन पहले ही उन्होंने फोन पर कहा था 'यार तू, देवास आ जा, मैंने 'कृष्ण' को लेकर एक सीरिज की है। राम से बड़े हैं कृष्ण। बचपन में जितना संघर्ष कृष्ण ने किया, उतना राम को कहाँ करना पड़ा।

'ये क्या कर रहे हैं, आप ?' मैंने कुरेदने के लिए कहा था, तो वे बोले थे- 'आडवाणी साहब को जवाब दे रहा हूँ, यार। धर्म दूसरा हो जाने से विरासतें थोड़ेई दूसरी हो जाती हैं। तू आकर देखना, काम में बहुत वजन है।'

उनकी नाक में ऑक्सीजन की नली लगी हुई थी और दूर टेबल पर एक बोतल में बुलबुले फूट रहे थे। सिरहाने कार्डियोग्राम था। वे देख नहीं पा रहे थे कि कार्डियोग्राम के पर्दे पर कितनी आड़ी-तिरछी रेखाएँ खिंचती जा रही थीं
बहरहाल, उनके द्वारा फोन पर मना करने के बावजूद, मैं वहाँ अस्पताल पहुँच गया था। उनके पास। वे लेटे हुए थे। पलंग पर। दूर देखते हुए। चुँधियाती आँख से खिड़की के बाहर। मैं ठिठककर कोने में रुक गया। और, चुपचाप उन्हें अकेले लेटे हुए देखता रहा।

वे, बोले कुछ नहीं थे। मैं अलबत्ता जरूर थोड़ा सहम गया था। कुछ देर बाद उन्होंने खिड़की के बाहर की धूप की तरफ़ से मुँह फेरकर मेरी तरफ किया और देखते ही बेसाख्ता बोले- 'अरे भैया, तू ऐसी धूप में इतनी दूर चल के क्यों आ गया?'

उनकी नाक में ऑक्सीजन की नली लगी हुई थी और दूर टेबल पर एक बोतल में बुलबुले फूट रहे थे। सिरहाने कार्डियोग्राम था। वे देख नहीं पा रहे थे कि कार्डियोग्राम के पर्दे पर कितनी आड़ी-तिरछी रेखाएँ खिंचती जा रही थीं। जैसे, वहाँ कार्डियोग्राम नहीं, बल्कि उसके भीतर बैठा हुआ कोई रेखाओं का खेल कर रहा हो।
दरअसल, वे 'सीधे और सरल आदमी' की आड़ी-तिरछी जीवन-रेखा थी। मैं कार्डियोग्राम देखकर समझ रहा था कि किस कदर उनकी हार्ट-बीट मिस हो रही है। मेरा संशय गलत नहीं था। वहाँ अचीन्ही-सी लिपि में मृत्युलेख लिखा जा रहा था। शाम को ख़बर मिली। उन्होंने संसार से अंतिम विदा ले ली है।

दरअसल, वे 'सीधे और सरल आदमी' की आड़ी-तिरछी जीवन-रेखा थी। मैं कार्डियोग्राम देखकर समझ रहा था कि किस कदर उनकी हार्ट-बीट मिस हो रही है। मेरा संशय गलत नहीं था। वहाँ अचीन्ही-सी लिपि में मृत्युलेख लिखा जा रहा था
अफजल जैसे चित्रकार पर लिखना कमोबेश किसी के लिए भी काफी कुछ कठिन-सा लगता है कि उनका जो कुछ हो सकता था और हो सकता है, वह सिर्फ 'रंग' ही है। वहाँ रंग से बाहर और ऊपर कुछ भी नहीं है। अलबत्ता, कहना चाहिए कि बहुत शुरू से ही तमाम 'भरोसों' पर से उनका 'भरोसा' उठ चुका था। या यह कह लें कि उन्होंने इरादतन उठा लिया था। मुहावरे के विपरीत यह उनका 'विलिंग सस्पेंशन ऑव बिलीफ' था। यकीन को इरादतन मुअत्तल करना।

उन्होंने अपनी हथेलियों से 'रंगों के दाग' कभी छूटने नहीं दिए थे। मुझे लगता है, उनकी हथेली खोलकर यदि उनकी जीवन-रेखा देखी जाती, तो उसमें आरंभ से अंत तक रंग और लिसिंड ऑइल या टरपेंटाइन ही मिलते
कदाचित इसी कारण समकालीन चित्रकार बिरादरी के बीच हमारे समय के वे एकमात्र और नितांत अकेले, ऐसे उदाहरण थे, जिसने अख़बारों के पृष्ठों पर फड़फड़ाती प्रशंसाओं और सरकारी कला-प्रासादों के सभागारों में बजती तालियों की तरफ कान दिए बगैर कोई आधी-शताब्दी से निरंतर खुद को अपनी कला के काम में जोते रखा और साथ ही यह भी कि कभी किसी से कोई शिकायत भी नहीं की।

स्वर्गीय अफजल के लिए यदि इतने रुँधे हुए गले से अपने शब्दों में, डबडबाती भाषा में मैं आज बात कर रहा हूँ तो इसलिए कि उन्होंने अपनी हथेलियों से 'रंगों के दाग' कभी छूटने नहीं दिए थे। मुझे लगता है, उनकी हथेली खोलकर यदि उनकी जीवन-रेखा देखी जाती, तो उसमें आरंभ से अंत तक रंग और लिसिंड ऑइल या टरपेंटाइन ही मिलते।

कभी-कभी तो इस कारण भद्रजन उनके टरपेंटाइन-लिसिंड ऑइल की गंध से भरे हाथों को मिलाने से ख़ुद को बचाते हुए दूर से ही नमस्कार कर लेते थे? नजाक़त और नफासत-पसंद लोग उनके हाथों को देखकर उनसे हाथ मिलाने का इरादा बदल देते थे।

मेरा पक्का यकीन है कि मौत नफासत-पसंद कतई नहीं है, उसने अफजल साहब का हाथ थामने के पहले रंग से सने हाथों को नहीं देखा और उन्हें थामकर अपने साथ लिए चली गईं। निश्चय ही चलने के पहले उन्होंने मौत की तरफ ऐसे ही देखा होगा कि 'यह क्या? पक्षाघात के समय दी गई मोहलत का क्या हुआ? ये कैसी वादा-खिलाफी है?'
यह ठीक उतना ही निष्करुण और क्रूर व्यवहार था, जैसे कोई चाकू घोंपने के पहले देख ले और वह उसे न घोंपने का वादा करे। और, जैसे ही वह अपना मुँह फेरे, लगे-हाथ वह फिर से उस पर वार कर दे। उस वार के बाद मुड़कर देखने में जो चेहरे पर पीड़ा होती है, ठीक वही पीड़ा मुझे उनके चेहरे पर उस दिन दिखाई दे रही थी, जब वे अस्पताल में लेटे थे। और, छत की तरफ हतप्रभ होकर देख रहे थे।

आज उनकी उन्हीं पीड़ाग्रस्त आँखों को याद करते हुए, मैं अपनी आँख को गीली होने से बचाते हुए पूछना चाहता हूँ ये सवाल ''क्या संसार से कोई कलाकार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराए बगैर इतिहास की धूल के नीचे दब जाता है?'

अफजल साहब से पहली मुलाकात

मुझे पहली बार अफजल साहब को 'देखे' जाने की याद है। देवास में एक आदमी तेजी से मुड़ रहा था। देवास में विष्णु गली की तरफ अँधेरे में। किसी ने कहा है 'ये अफजल साहब है। चित्रकार।' वे अकेले जा रहे थे। अँधेरे में। खोए हुए से। उनके हाथ में लंबी-सी टॉर्च थी। टॉर्च की लम्बाई देखकर लगता था जैसे वे अँधेरे के ही हाथ-पैर तोड़ने के लिए निकले हों।

वे लगभग छः हज़ार पेंटिंग छोड़ गए हैं। लेकिन, उनका जितना भी काम ले-जाकर मैंने बाहर की कला-दीर्घाओं या समूह प्रदर्शनियों में प्रदर्शित किया, उस काम ने हर प्रेक्षक और कलाकार को हक्का-बक्का कर दिया
वैसे भी अफजल साहब उन दिनों काया से 'कलाकार' कम, 'पहलवान' अधिक दिखते थे। आर्मी के जूते। पुलिस की पेंट और इस सब पर संगीतकारों वाला मलमल का कुर्ता। कहीं कोई संगति नहीं। जबकि, अखाड़ेबाजी न केवल स्वभाव में थी, बल्कि उनका घर भी दो अखाड़ों के बीच था।

हालाँकि, यह एक किस्म की विडंबना है कि लोगों ने उनका बहुत कम काम देखा है, मैंने खुद भी उनका समूचा काम नहीं देखा, क्योंकि वे लगभग छः हज़ार पेंटिंग छोड़ गए हैं। लेकिन, उनका जितना भी काम ले-जाकर मैंने बाहर की कला-दीर्घाओं या समूह प्रदर्शनियों में प्रदर्शित किया, उस काम ने हर प्रेक्षक और कलाकार को हक्का-बक्का कर दिया।

आज जबकि 'कागज-कैनवास पर बिखरी अपरिप-समझ' को ही 'कृति' का दर्जा देकर उसे सरकारी-गैर सरकारी कलादीर्घाओं की दीवारों पर लटकाकर 'महानता' से अभिषेकित करने का कुटिल काम चल रहा हो, वहाँ स्व. अफजल की हर कृति आपका कंधा झकझोरकर यह बताती है कि कला और कलर्ड गारबेज के बीच क्या फर्क है। हम व्याख्याओं की शर्मनाक भाषा-निवेश में फँसकर, अगर यह मोटा-सा फर्क नहीं समझ पा रहे हैं तो यह हमारा और हमारे समय की कला का दुर्भाग्य है।