गुरुवार, 28 मार्च 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. »
  3. विचार-मंथन
  4. »
  5. विचार-मंथन
Written By WD

15वीं लोकसभा, क्या रहा खास...

15वीं लोकसभा, क्या रहा खास... -
FILE
15वीं लोकसभा का समापन हो चुका है। सदन में शोरशराबा करने वाले सांसद आखिरी दिन बेहद शांत नजर आए। उनके चेहरों पर मुस्कराहट थी तो कहीं बिछड़ने की उदासी भी दिखाई दे रही थी। आखिरी दिन लोकसभा सदस्यों को देखकर ऐसा नहीं लग रहा था, ये वही सांसद हैं, जिनके हंगामे में कुछ सुनाई नहीं देता था।

हमारे देश के राजनीतिक जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं सामने आती हैं, जो कि इस बात पर ही सवाल खड़े कर देती हैं कि क्या हम वास्तव में एक लोकतंत्रवादी व्यवस्था का पालन करने वाले देश हैं? क्या हमारी संसद में उन सभी बातों का ध्यान रखा जाता है जो कि यह तय करती हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम्भ करते हैं लेकिन हमारे देश की जनता और नेताओं में लोकतांत्रिक मू्ल्यों की जडें जमी नहीं हैं।

ज्यादा दिन नहीं हुए जब लोकसभा में तेलंगाना को अलग राज्य बनाने संबंधी प्रस्ताव पर चल रही...बहस के दौरान आंध्रप्रदेश के कुछ सांसदों ने काली मिर्च के पावडर को हवा में उड़ा दिया, जिससे सांसदों को मुश्किल होना लाजिमी थी। इस घटना के बाद संसद में इस मामले पर भी विचार किया गया कि क्या सांसदों की संसद के सदनों में जाने से पहले तलाशी ली जानी चाहिए।

भारत के लोकतंत्र की तरह ब्रिटेन में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है लेकिन वहां की हाउस ऑफ कॉमन्स में इतने संसद और मंत्री आ जाते हैं कि सभी को सीट तक मिलना मुश्किल होता है। वहां कुछ समय पहले एक गर्भवती मंत्री को सदन की कार्यवाही में खड़े-खड़े ही भाग लेना पड़ा।

वहां भी कुछेक सांसदों ने इस महिला मंत्री को अपनी सीट पर बैठने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने यह कहते हुए पेशकश को विनम्रता से ठुकरा दिया कि वे इस तरह की स्थिति का बिना किसी परेशानी के मुकाबला कर सकती हैं। इसकी तुलना में हमारी लोकसभा को देखिए कि जहां काली मिर्च का पावडर उड़ा दिया जाता है और इसके साथ ही विधान सदनों में मारपीट, झगड़ा करने, कपड़े उतार देने, गालियां देने और मारपीट किया जाना आम बात है।

दो देशों के सांसदों की मानसिकता का अंदर यह दर्शाता है कि हमने भले ही दूसरे देशों के संविधानों की अच्छी-अच्छी बातों को अपने संविधान में शामिल कर लिया हो, लेकिन हमारे जन प्रतिनिधियों का आचरण और लोकतंत्र के प्रति निष्ठा को आत्मसात नहीं कर पाए।

हालांकि लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने वाले सदनों में यह गिरावट रातोंरात नहीं आई है लेकिन यह एक विचारणीय बात है कि अब हमारे राजनीतिज्ञों का आचरण सभ्य शिष्ट और लोकतंत्र की मर्यादाअओं पर खरा नहीं उतरता है। मिची का पावडर फैलाने के बाद लोकसभा की अध्यक्षा मीरा कुमार को कहना पड़ा कि यह हमारे संसदीय इतिहार पर काला धब्बा है लेकिन सच बात तो यह है कि अभी तक जो देश के कुछ प्रदेशों के विधान भवनों में होता रहा है, उसका विस्तार अव राष्ट्रीय राजधानी तक हो गया है।

तेलंगाना पर उठे तूफान ने न केवल सदन की कार्यवाही को बाधित किया वरन संसद के इस अंतिम सत्र में बहुत सारे अप्रिय दृश्य भी दिखलाए। इनका परिणाम यह हुआ कि आंध्र प्रदेश के सोलह सांसदों को सदन की कार्यवाही में भाग लेने से रोकना पड़ा। इससे पहले हुआ हंगामा भी अभूतपूर्व था।

इन सांसदों को कांग्रेस पार्टी ने पार्टी से भी निकाल दिया लेकिन विरोध का स्वर नहीं थमा। इस तरह के विरोध के स्वर तीखे होने के वाजिब कारण हो सकते हैं लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि देश में जिस तरह से लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण हो रहा है, उसे रोकने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है।

इससे पहले बंगाल में राज्य सभा की पांच सीटों के चुनावों को लेकर विधानसभा में पक्ष और विपक्ष की जोर आजमाइश देखी गई थी। विपक्ष‍ी दलों का सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) पर आरोप था कि वह उनके विधायकों का 'शिकार' करने में लगा हुआ है और येन केन प्रकारेश विधायकों को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए ललचा रहा है, धमका रहा है।

इसी तरह के आरोप-प्रत्यारोप आंध्रप्रदेश, ओडिशा विधान सभाओं में भी देखे गए थे। वास्तव में देश में क्षेत्रीय राजनीति का एक उदाहरण तमिलनाडु विधानसभा में देखा गया। जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदली, तमिलनाडु की मुख्‍यमंत्री जयललिता ने विधानसभा में घोषणा कर दी कि इन हत्यारों को तीन दिन में जेल से रिहा कर दिया जाएगा। इसके पीछे जयललिता और तमिलनाडु के अन्य दलों की मानसिकता किसी भी कीमत पर वोट हासिल करने की रही है। और यह बीमारी अब अगर संसद तक पहुंच गई हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

एक विचारक इटी व्हाइट ने अपनी किताब 'द वंस एक फ्यूचर किंग' में लिखा है कि ज्यादातर समाजों में, चाहे वह कितना ही लोकतांत्रिक क्यों न हो, में समाज का बंटवारा कुछ इस तरह से होता है। सौ लोगों में से नब्बे मूर्ख, नौ धूर्त और एक ही ईमानदार होता है। धूर्तों में से धूर्ततम इनका नेता बन जाता है और मूखों का शोषण करता है। एक होने के कारण ईमानदार आदमी अकेला और अलग थलग पड़ जाता है और चाहते हुए भी कुछ नहीं पाता है।

हमारे देश की राजनीति भी कुछ इसी तरह से धूर्तों के समूह में बंट गई लगती है और अगर इनके गुट एक दूसरे को पछाड़ने या सत्ता हथियाने के खेल में लग जाते हैं तो हमारी संसद में तो काली मिर्च का पावडर (या हो सकता है कि कुछ और हो) ही उड़ाया जा सकता है। यूक्रेन जैसे देशों में तो संसद बकायदा अखाड़ा बन जाती है।

इस मामले में हम भले ही काफी पीछे हों लेकिन अगर हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरते हैं, तो हमें अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लगने वाले सवालों से दो चार होना पड़ेगा। अन्यथा हमारा देश भी लोकतांत्रिक परम्परा का हिमायती होने का दर्जा खो देगा और इस अप्रिय स्थिति के लिए हम ही जिम्मेदार होंगे और हमें ही ईमानदार लोगों को आगे बढ़ाना होगा तभी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था सार्थक सिद्ध हो सकेगी।

संसद में व्यवधानों पर रोक लगे...अगले पन्ने पर पढ़ें..


FILE
इस माह की शुरुआत में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कहना था कि 'संसद वाद-विवाद, विरोधों और अं‍त में कोई निर्णय लेने से चलती है, मात्र व्यवधानों के डालने से नहीं।' वे पिछले कुछेक वर्षों में संसदीय कार्यवाही के बाधित किए जाने पर अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे थे। शुक्रवार, 21 फरवरी को पंद्रहवीं लोकसभा का अं‍तिम दिन है। इस लोकसभा का सत्र जहां व्यवधानों, अशोभनीय आचरण के लिए लांछित हुआ तो इसके साथ ही सदन ने लोकपाल, भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा कानून पास किए।

लोकसभा की कार्यवाही से जुड़े विभिन्न आंकड़ों को इकट्‍ठा करने का काम सदन का सचिवालय करता है। इस सत्र की समाप्ति पर लोकसभा की अध्यक्षा इस मामले से संबंधित जानकारी देती हैं और अध्यक्ष बताता है कि लोकसभा की कार्यवाही के दौरान कितनी बार व्यवधान पैदा हुआ और इन व्यवधानों के कारण कितना समय बर्बाद हुआ। हालांकि राज्य सभा की कार्यवाही से संबंधित इस तरह का रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है।

संसदीय व्यवधानों के कारण देश के खजाने का काफी पैसा भी बर्बाद हो जाता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 में तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल ने कहा था कि संसदीय कार्यवाही वाधित होने के कारण प्रति मिनट ढाई लाख रुपए बर्बाद होते हैं। नवंबर 2008 में एक मिनट पर संसद की कार्यवाही बाधित होने पर 29 हजार रुपए बेकार हो जाते थे। हालांकि इस तरह के आंकड़ों को निकालना सरल नहीं है लेकिन इससे भी बड़ा नुकसान तब होता है जबकि बहुत सारी नीतिगत फैसले नहीं लिए जा पाते हैं, बहुत सारे कानून बन ही नहीं हो पाते हैं।

इस बार भी ऐसा हुआ है कि लोकसभा के इस सत्र की समाप्ति के साथ उच्चतर शिक्षा, सार्वजनिक सेवा वितरण, और व्हिसिल ब्लोअर प्रोटेक्शन बिल जैसे विधेयक पेश नहीं किए जा सके और इन विषयों पर ना तो कोई बहस हो सकी और ना ही इन मुद्दों पर जन प्रति‍निधियों की राय जानी जा सकी है। ये सारे विधेयक अब 16वीं लोकसभा में ही उठाए जा सकेंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।