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Written By ND

करवट बदलती मुस्लिम राजनीति

करवट बदलती मुस्लिम राजनीति -
- आलोक कुमार
मुस्लिम राजनीति में तब्दीली की बयार है। कट्टर छवि बदलने की छटपटाहट है। कई मसलों पर मुस्लिम नेताओं ने ऐतिहासिक चुप्पी तोड़ी है। शिक्षा और बढ़ती जागरूकता का असर दिख रहा है। लोग मुखर हुए हैं। बुद्धिजीवियों ने सार्थक हस्तक्षेप कर जता दिया है कि भारत के मुसलमानों में तरक्की पसंद होने की चाहत बढ़ी है। संजीदगी आई है। तोहमत ओढ़े रहने का खतरनाक आलस्य टूटा है।

ऊल-जलूल इल्जामों पर मुँह फेर लेने की आदत अब खत्म-सी हो रही है।
  सिर्फ देवबंद का फतवा ही नहीं, बल्कि पिछली बार लोकसभा चुनाव के वक्त फिजाँ में और भी तब्दीलियाँ आई हैं, जो मुस्लिम राजनीति में बढ़ते सकारात्मक तत्व की ओर संकेत करती हैं। राजनीतिक दल आम तौर पर मुसलमानों को थोक वोट बैंक मान लेने की भ्रांति में जीते हैं      
यह बताने की हिम्मत बढ़ी है कि मुसलमानों को अलग-थलग नहीं समझा जाए। वे भी उतने ही वतनपरस्त हैं, उतने ही भारतीय हैं, जितने भारत में दूसरे मजहब के लोग। अब वे अहसास कराने से नहीं चूकते कि भारत किसी एक जाति या धर्म के मानने वालों की जागीर नहीं, बल्कि सबका है। भारत को बनाने और सँवारने में सबका बराबर का योगदान है।

रुख में बदलाव भाँपने के लिए हाल के कुछ वाकये देखिए। देवबंद से ऐतिहासिक फतवा जारी कर बताया गया है कि भारत को दार-उल-इस्लाम या दार-उल-हरब बताने की बात गलत है बल्कि भारत दुनिया का सबसे ज्यादा मुस्लिमों वाला वतन है और यह सच्चे मायने में दार-उल-अमन है यानी यह मुल्क इस्लाम का दोस्त है, यहाँ जेहाद की बात बेमानी है और मुजाहिदीन बनने की बात गैर-इस्लामिक।

मतलब साफ है कि पड़ोस के मुल्क का भारत में इंडियन मुजाहिदीन या डेक्कन मुजाहिदीन जैसे तंजीम खड़े करने की साजिश नापाक है। देवबंद के एक फतवे में यह भी साफ किया गया है कि हिन्दू काफिर नहीं हैं, क्योंकि उनमें दुनिया बनाने वाले के लिए आस्था है। फतवे में मुसलमानों के लिए हिन्दुओं को अपना भाई-बहन मानने की सीख है। फतवे से इस्लामी सहिष्णुता का झंडा बुलंद हुआ है।

दार-उल-हरब, वह मुल्क, जो इस्लाम के खिलाफ है। दार-उल-हरब के खिलाफ ही जेहाद की पैरवी की जाती है। लेकिन दार-उल-अमन श्रेणी वाला मुल्क सबसे बढ़कर बताया गया है। फतवे के मुताबिक भारत में मुसलमान अमन के साथ रह सकते हैं। इस्लाम को भारत में कोई दिक्कत नहीं है। जाहिर तौर पर इस फतवे से इस्लाम को दहशतगर्दी का पैरोकार बताने वालों को झटका लगा है। भारतीयों के बीच फूट डालने के लिए बहकी-बहकी दलील देने वाले भी देवबंद की इस पेशकश से निराश हैं।

सिर्फ देवबंद का फतवा ही नहीं, बल्कि पिछली बार लोकसभा चुनाव के वक्त फिजाँ में और भी तब्दीलियाँ आई हैं, जो मुस्लिम राजनीति में बढ़ते सकारात्मक तत्व की ओर संकेत करती हैं। राजनीतिक दल आम तौर पर मुसलमानों को थोक वोट बैंक मान लेने की भ्रांति में जीते हैं। उनको मुसलमानों में भेड़चाल नजर आती है।

चुनावी पंडितों को लगता है कि एक मुसलमान को साधो तो सब सध जाते हैं। लेकिन बदलाव की बयार ने बरसों से बनी यह भ्रांति चकनाचूर-सी कर दी है। मुस्लिम जलसों में यह बताने का चलन बढ़ा है कि भारतीय मुसलमान अब राजनीति समझने लगा है। उनमें भी आम भारतीयों जैसी ही सहिष्णुता है। वे परिपक्व हैं और इस एहसास को लेकर कसमसाहट भी कि उन्हें अलग करके क्यों आँका जाता है?

मिसाल के साथ समझा जा सकता है कि बासठ सालों की आजादी के बाद मुस्लिम मतदाताओं में खास जागरूकता नजर आ रही है। हिन्दू मतदाताओं की तर्ज पर उनमें भी अगड़े-पिछड़े का भेदभाव खुले तौर पर नजर आ रहा है। कांशीराम की फिलॉसफी लोकप्रिय हो रही है। दलित मुस्लिमों को आरक्षण देने की बात ने जोर पकड़ा है। आँकड़ों के हवाले से कहा जा रहा है कि मुसलमानों की बड़ी आबादी दलित है।

लेकिन संसद या विधानसभा में पहुँचने वाले सबसे ज्यादा नुमाइंदे अशरफ यानी अगड़े मुस्लिम जाति से हैं। दलित मुसलमानों के लिए नया नाम 'पसमांदा' दिया गया है और सामाजिक न्याय के नाम पर पसमांदा मुसलमानों की राजनीति की गाड़ी दौड़ चली है। गाँव-देहात और झुग्गी- झोपड़ियों में तकरीर हो रही है कि जब मुसलमानों में भी हिन्दुओं की तरह ही 'रोटी-बेटी' का रिश्ता जाति के अंदर ही तय होता है तो वोट डालने के मामले में इसे भूल जाने की उम्मीद क्यों की जाती है।

कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी राजनीतिक पार्टियों में इसे लेकर बेचैनी है, क्योंकि इनके पास मौजूद ज्यादातर मुस्लिम नेता अगड़ी जाति के हैं। क्षेत्रीय दलों ने मुस्लिमों की बीच बढ़े इस भाव को जरूर भाँप लिया है। बिहार में नीतिश कुमार ने तो इस नब्ज को थाम ही लिया है और पसमांदा मुस्लिमों की राजनीति करने वाले अली अनवर और एजाज अहमद जैसे नेताओं को राज्यसभा में पहुँचा दिया है।

बता दूँ कि मुस्लिमों के बीच बढ़ी इस जागरूकता का सच्चर कमेटी की रिपोर्ट या
  तब अराफात की राय थी कि एक दोस्त मुल्क के नाते इस्राइल को मान्यता देकर भारत फिलीस्तीन की मदद ही करेगा यानी कहीं न कहीं मुस्लिमों के बीच जमी उस गाँठ को ढीला करने की कोशिश तेज है, जो मुसलमान होने की वजह से उनमें अलग होने का एहसास भरती रही थी      
यूपीए सरकार की ओर से अल्पसंख्यकों के लिए अलग से मंत्रालय के गठन की पहल से कोई लेना-देना नहीं है। मुसलमानों के बीच पिछड़ जाने का एहसास बढ़ा है। वोट बैंक की राजनीति से इतर फिर से सर सैयद अहमद के संकल्पों को दोहराया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा अपनाने की होड़ हो रही है। यही वजह है कि इस्लामिक शिक्षा के सबसे मशहूर शिक्षा संस्थान देवबंद में अँगरेजी की अनिवार्यता और कम्प्यूटर को मदरसा शिक्षा में शामिल करने का ऐलान हो रहा है।

नजरिए में आ रही तब्दीली का असर अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भारतीय मुसलमानों की प्रतिक्रिया में भी दिखने लगा है। साल की शुरुआत में फिलीस्तीन को लेकर मुस्लिम छात्र और बुद्धिजीवियों का एक तबका जब 'हेट इस्राइल कैंपेन' चला रहा था तो मुसलमानों के बीच से ही एक ताकतवर तबका निकलकर सामने आया। भड़के युवाओं को चुपके से बता गया कि जिस फिलीस्तीन को लेकर हंगामा किया जा रहा है उसकी दुर्दशा फिलीस्तीनी नेतृत्व के विभाजन की वजह से हुई है। मिसालों के जरिए बताया गया कि विवाद खत्म करने में अरब मुल्कों की रुचि नहीं है।

सवाल किया गया कि भारत में उद्वेलित क्यों हुआ जा रहा है। मुस्लिम युवकों को फिलीस्तीन पर इस्राइली हमले को धार्मिक जुड़ाव के नजरिए से नहीं देखने की परिपक्व सीख दी गई है। लोग मान गए। फिर भी नहीं मानने वाले युवाओं को 1993 के एक वाकए की याद दिलाई गई। उस समय भारत ने इस्राइल को राष्ट्र के तौर पर मान्यता देने से पहले फिलीस्तीन नेता यासेर अराफात से सलाह ली थी।

तब अराफात की राय थी कि एक दोस्त मुल्क के नाते इस्राइल को मान्यता देकर भारत फिलीस्तीन की मदद ही करेगा यानी कहीं न कहीं मुस्लिमों के बीच जमी उस गाँठ को ढीला करने की कोशिश तेज है, जो मुसलमान होने की वजह से उनमें अलग होने का एहसास भरती रही थी।
(लेखक टीवी से जुड़े पत्रकार हैं)