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Written By WD

विद्या के सागर आचार्य विद्यासागर

आचार्यश्री के जन्म दिवस 26 अक्टूबर पर विशेष

विद्या के सागर आचार्य विद्यासागर -
-निर्मलकुमार पाटोद
आत्म विद्या के पथ-प्रदर्शक, शरद पूर्णिमा के शरदचंद्र जैनाचार्य विद्यासागरजी का आज 62वाँ जन्म दिवस है, किंतु जहाँ वे विराजते हैं, वहाँ उनका जन्म दिवस, जन्म जयंती मनाई नहीं जाती है। आत्मयोगी आचार्यश्री ऐसे शरदचंद्र हैं, जो अपने जन्मकाल से आज तक प्रतिदिन, प्रतिपल निरन्तर जिन धर्म की धवल ज्योत्स्ना से संसार को प्रकाशित कर रहे हैं।

कर्म-कषायों के कष्ट से ऐहिक, दैहिक आधि-व्याधि से संतप्त संसारी प्राणियों को संतृप्ति और सन्तुष्टि प्रदान कर रहे हैं। सौम्य विभूति विद्यासागरजी सबके हैं, सब उनके हैं। संत शिरोमणि आत्मसाधना के लिए निर्जन स्थलों को प्रश्रय देते हैं। आपकी मुद्रा भीड़ में अकेला होने का बोध कराती है। अकंप पद्मासन, शांत स्वरूप, अर्धमिलित नेत्र, दिगंबर वेश, आध्यात्मिक परितृप्तियुक्त जीवन और निःशब्द अनुशासन जनसमूह के अन्तर्मन को सहज ही छू लेता है।

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सभा-मंडप में दुर्द्धर-साधक की वाणी जब मुखरित होती है, तब निःशान्ति व्याप्त हो जाती है, समवशरण-सा दृश्य उपस्थित हो जाता है। आध्यात्मिक गुण-ग्रथियाँ स्वतः खुलती चली जाती हैं। एक-एक वाक्य में वैदुष्य झलकता है। आपके दर्शन से जीवन-दर्शन को समझा जा सकता है।

तपोमूर्ति विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक प्रांत के बेलगाँव जिले के ग्राम सदलगा के निकटवर्ती गाँव चिक्कोड़ी में 10 अक्टूबर 1946 की शरद पूर्णिमा को गुरुवार की रात्रि में लगभग 12:30 बजे हुआ था। पिता श्री श्रेष्ठी मल्लपाजी अष्टगे तथा माताजी श्रीमती अष्टगे के आँगन में विद्यासागरजी का जन्म नाम विद्याधर और घर का नाम 'पीलू' था।

महाश्रमण विद्यासागरजी को अपने गुरु साहित्य मनीषी, ज्ञानवारिधि जैनाचार्य प्रवर ज्ञानसागरजी महाराज के साधु जीवन व पांडित्य ने अत्यधिक प्रभावित किया था। गुरु की कसौटी पर खरा उतरने पर आषाढ़ शुक्ल पंचमी, रविवार 30 जून 1968 को राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी अजमेर में लगभग 22 वर्ष की आयु में आपने संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का त्याग कर दिया।

संयम धर्म के परिपालन हेतु आपको गुरु ज्ञानसागरजी ने पिच्छी-कमंडल प्रदान कर 'विद्यासागर’ नाम से दीक्षा देकर संस्कारित किया और उनका शिष्यत्व पाने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ।

ज्ञात इतिहास की वह संभवतः पहली घटना थी, जब नसीराबाद (अजमेर) में ज्ञानसागरजी ने शिष्य विद्यासागरजी को बुधवार 22 नवम्बर 1972 को स्वयं के करकमलों से आचार्य पद का संस्कार शिष्य पर आरोहण करके शिष्य के चरणों में नमन कर उसी के निर्देशन में ‘समाधिमरण सल्लेखना’ ग्रहण कर ली।

ऋषि प्रवर विद्यासागरजी का पहला चातुर्मास अजमेर में हुआ। इस वर्ष 40वाँ वर्षायोग ससंघ 38 मुनिराजों के साथ सागर जिले के अतिशय क्षेत्र बीनाजी-बारहा में सम्पन्न होने जा रहा है। अब तक आपने 81 मुनि, 168 आर्यिका, 8 ऐलक, 5 छुल्लक सहित कुल 262 दीक्षाएँ, वह भी बाल ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी को प्रदान की हैं।

इसके बावजूद हजार से अधिक बाल ब्रह्मचारी-बाल ब्रह्मचारिणियाँ आपसे व्रत या प्रतिमाएँ धारण कर रत्नत्रय धर्म का पालन कर रही हैं। सन्मार्ग प्रदर्शक, धर्म प्रभावक आचार्यश्री में अपने शिष्यों का संवर्धन करने का अभूतपूर्व सामर्थ्य है। आपके चुंबकीय व्यक्तित्व ने युवक-युवतियों में अध्यात्म की ज्योति जगा दी है।

दिगंबर जैन आगम के अनुसार मुनिचर्या का पूर्णतः निर्वाह करते हुए परम तपस्वी विद्यासागरजी न किसी वाहन का उपयोग करते हैं, न शरीर पर कुछ धारण करते हैं। पूर्णतः दिगंबर अवस्था में रहते हैं। पैदल ही विहार करते हैं।

आपने सन 1971 से मीठा व नमक, 1976 से रस व फल, 1985 से बिना चटाई रात्रि विश्राम, 1992 से हरी सब्जियाँ व दिन में सोने का भी त्याग कर रखा है। खटाई, मिर्च- मसालों का त्याग किए 28 वर्ष हो चुके हैं।

भोजन में काजू, बादाम, पिस्ता, छुवारे, मेवा, मिठाई, खोवा-कुल्फी जैसे व्यंजनों का सेवन भी नहीं करते हैं। आहार में सिर्फ दाल, रोटी, दलिया, चावल, जल, दूध वह भी दिन में एक बार खड़गासन मुद्रा में अंजुलि में ही लेते हैं। घड़ी के काँटे से नित्य-नियम का पालन करते हैं।

कठोर साधक विद्यासागरजी ने बाह्य आडंबरों-रूढ़ियों का विरोध किया है। आपका कहना है- कच-लुंचन और वसन-मुंचन से व्यक्ति संत नहीं बन सकता। संत बनने के लिए मन की विकृतियों का लुंचन-मुंचन करना पड़ेगा। मनुष्य श्रद्धा और विश्वास के अमृत को पीकर, विज्ञान सम्मत दृष्टि अपनाकर सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और चरित्र का अवलंबन कर आत्मा के निकट जा सकता है, आत्मोद्धार कर सकता है, मोक्ष रूपी अमरत्व को पा सकता है। कोरा ज्ञान अहं पैदा करता है।

जो व्यक्ति अपने लिए रोता है, वह स्वार्थी कहलाता है, लेकिन जो दूसरों के लिए रोता है, वह धर्मात्मा कहलाता है। धर्म को समझने के लिए सबसे पहले मंदिर जाना अनिवार्य नहीं है, बल्कि दूसरों के दुःख को समझना अत्यावश्यक है। जब तक हम दिल में किसी को जगह नहीं देंगे, तब तक हम दूसरों के दुःखों को समझ नहीं सकते।

कन्नड़ भाषी, गहन चिंतक विद्यासागरजी ने प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, मराठी, बंगला और अंग्रेजी में लेखन किया है। आपके द्वारा रचित साहित्य में सर्वाधिक चर्चित कालजयी अप्रतिम कृति 'मूकमाटी' महाकाव्य है। इस कृति ने आचार्यश्री को हिन्दी और संत साहित्य जगत में काव्य की आत्मा तक पहुँचा दिया है। इसमें राष्ट्रीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया गया है।
इसका संदेश है- ‘देखो नदी प्रथम है, निज को मिटाती-खोती। तभी अमित सागा रूप पाती। व्यक्तित्व के अहम को, मद को मिटा दे। तू भी 'स्व' को सहज में, प्रभु में मिला दे।‘ देश के 300 से अधिक साहित्यकारों की लेखनी मूक माटी को रेखांकित कर चुकी है। 30 से अधिक शोध, लघु प्रबंध इस पर लिखे जा चुके हैं।

करुणावंत विद्यासागरजी की दया, पीड़ा, संवेदना प्रवचनों के माध्यम से सबके सामने आती रहती है। देश की आध्यात्मिक संस्कृति, जीवन-पद्धति और अहिंसा की विरासत को नकारकर अक्षम्य अपराध किया जा रहा है। सरकार द्वारा आधुनिक कत्लखानों को आर्थिक सहायता देकर खोलने की नीति से जीवित पशुओं का कत्ल हो रहा है।

उनका माँस व चमड़ा विदेशों में निर्यात करने की नीति भारत की अहिंसा प्रधान संस्कृति के विपरीत है। पशुओं के कत्ल को कृषि उत्पादन की श्रेणी में रखा गया है। क्या पशु कारखानों में पैदा होते हैं? हिंसा को व्यापार का रूप देना कौन-सा धर्म सिखाता है? सभी धर्मों में अहिंसा आराध्य है। ऐसी अनैतिक, अमानवीय, असंवैधानिक तथा हिंसक नीति से आप ईश्वर की प्रार्थना करने के काबिल कैसे हो सकते हैं?

ईश्वर की उपासना हिंसा से घृणा सिखाती है, सभी जीवों को जीने का संदेश देती है। प्रेम, स्नेह और वात्सल्य सिखाती है। ये कत्लखाने सभी धर्मों का अपमान हैं। कोई भी धर्म हिंसा का समर्थन नहीं करता है।

कत्लखानों में बहते खून से बच्चों को क्या सीख मिलेगी? दयानिधि विद्यासागरजी का कहना है कि पशु खेत में पैदा नहीं होते हैं। ज्ञान और जीवन-दर्शन उनके भी पास है। गाय, बैल, भैंस, बकरी, घोड़ा एक दूसरे को नहीं खाते हैं, परन्तु मनुष्य इन सबको खा लेता है। उनके संरक्षण के बजाय उनके जीवन जीने के प्रकृति प्रदत्त अधिकार के साथ घोर अन्याय किया जा रहा है। खून बहाकर विदेशी मुद्रा कमाना जघन्य अपराध है।
आपकी इसी अहिंसा, दया, करुणा की भावना से प्रेरणा लेकर जगह-जगह पर लोगों ने सैकड़ों गोशालाएँ खोली हैं। आपका पुरजोर आग्रह है कि पशुओं की जीवन रक्षा के लिए चमड़े से बनी सभी चीजों का उपयोग त्याग दें।

श्रमण संस्कृति के उन्नायक संत की पुनीत कामना सम्यक दृष्टि तथा संयम है। संत कमल के पुष्प के समान लोक वारिधि में रहता है, संतरण करता है, डुबकियाँ लगाता है, किन्तु डूबता नहीं।

यही भारत भूमि के यायावर संत, निर्मल-अनाग्रही दृष्टि, तीक्ष्ण मेधा, स्पष्ट वक्ता, सर्वोदयी, अध्यात्मी, सादगी, सरलता और निश्च्छलता के साक्षात भावक विद्यासागरजी के जीवन का मंत्र घोष है- विश्व मंगल आपकी पुनीत कामना है तथा सम्यक दृष्टि तथा संयम आपका जीवंत संदेश है। आपकी निर्दोष चर्या, रत्नत्रय- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र की साधना यथार्थ में आपका जीवन दर्शन है।

आप तो मोक्ष मार्ग के लिए मोह का क्षय कर रहे सधे हुए सच्चे साधक हैं। ‍वीतराग परमात्मा पद के पथ पर सतत अग्रसर रहें, ऐसी मंगल कामना के साथ आत्मविजेता, राष्ट्रसंत के चरण-कमल में व्यक्ति स्वतः नतसिर हो जाता है। ऐसे लोककल्याणी महाश्रमण के जन्म दिवस पर मन, वचन, काय से कोटिशः नमोस्तु... नमोस्तु... नमोस्तु...।