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Written By WD

महिलामय हुआ बड़ा पर्दा

महिलामय हुआ बड़ा पर्दा -
बात केवल विद्या की नहीं है। फिल्म 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' हो, 'सात खून माफ' हो 'तनु वेड्‌स मनु' हो या फिर आने वाली फिल्म 'हीरोइन'...। बॉलीवुड में अब महिलाओं के लिए गंभीर रोल भी लिखे जा रहे हैं और फिल्में भी महिला पात्रों को केंद्र में रखकर बनाई जा रही हैं। एक तरह से देखा जाए तो यह बहुत बड़े परिवर्तन का आगाज़ है। आजकल महिला प्रधान मुद्दों और महिला पात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका वाली फिल्में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक सिनेमा का हिस्सा बन रह रही हैं और दर्शक इन्हें पसंद भी कर रहे हैं।

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विद्या बालन की फिल्म 'द डर्टी पिक्चर' की धूम के धूमिल होने से पहले ही उनकी नई फिल्म 'कहानी' के प्रोमो और पोस्टर्स लोगों के दिमाग में जगह बनाने लगे हैं। इस फिल्म में विद्या ने एक ऐसी महिला की भूमिका निभाई है जो गर्भवती है और अपने पति की तलाश में निकलती है। हालांकि पिछले कुछ समय का डाटा देखा जाए तो विद्या के खाते में इस तरह की काफी फिल्में आई हैं जिनमें 'इश्किया', 'परीणिता' और 'नो वन किल्ड जेसिका' को भी जोड़ा जा सकता है लेकिन बात केवल विद्या की नहीं है। फिल्म 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' हो, 'सात खून माफ' हो 'तनु वेड्‌स मनु' हो या फिर आने वाली फिल्म 'हीरोइन'...।

बॉलीवुड में अब महिलाओं के लिए गंभीर रोल भी लिखे जा रहे हैं और फिल्में भी महिला पात्रों को केंद्र में रखकर बनाई जा रही हैं। एक तरह से देखा जाए तो यह बहुत बड़े परिवर्तन का आगाज है। शोपीस की तरह सजावटी बनकर डिजाइनर कपड़े पहन इठलाने वाली और हीरो को लुभाने या विलेन द्वारा प्रताड़ना का शिकार बनने वाली महिला से आगे अब हीरोइनें वो रोल भी कर रही हैं जो असल भारतीय समाज में महिलाओं की बदलती स्थिति की नई तस्वीर पेश करते हैं।

सालों पहले राजकुमार संतोषी द्वारा बनाई गई फिल्म 'लज्जा' में उठाए गए कई मुद्दे समाज में स्त्री की दयनीय हालत का पोस्टमार्टम करते थे। तमाम बड़े सितारों की उपस्थिति के बावजूद इस फिल्म को दर्शकों ने सिरे से खारिज कर दिया था। जबकि इन्हीं संतोषीजी की महिला प्रधान फिल्म 'दामिनी' को काफी अच्छा प्रतिसाद मिला था। वहीं रानी मुखर्जी की 'लागा चुनरी में दाग' को भी दर्शकों ने नापसंद कर दिया था। खैर...दर्शकों की पसंद का ऊंट किस करवट बैठेगा ये कहना वाकई मुश्किल काम है। असल मुद्दा ये है कि आजकल महिला प्रधान मुद्दों और महिला पात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका वाली फिल्में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक सिनेमा का हिस्सा बन रह रही हैं और दर्शक इन्हें पसंद भी कर रहे हैं।

यहां तक कि द डर्टी पिक्चर जैसी बोल्ड फिल्मों तक को युवतियों तथा महिलाओं का खुलेआम समर्थन प्राप्त हो रहा है, जबकि ऐसी किसी भी फिल्म को आज से कुछ साल पहले तक देखने का अधिकार केवल पुरुषों के पास था। आज थियेटर में जितनी भीड़ पुरुषों की है लगभग उतनी ही महिलाओं की भी है और वे विद्या के काम को सराह रही हैं... सिल्क स्मिता की कहानी से सहानुभूति प्रकट कर रही हैं। यही नहीं, इस फिल्म की रिलीज़ के बाद कई निर्माता महिला प्रधान फिल्मों में पैसा लगाने को तैयार हो रहे हैं। इस फिल्म ने यह धारणा तोड़ डाली है कि महिला प्रधान फिल्म में पैसा लगाना मतलब पैसा डुबाना है।

ऐसा नहीं है कि इसके पहले महिला पात्रों को इतनी तवज्जो देकर फिल्में नहीं बनाई गईं.. पहले भी कई अच्छी कहानियां और सशक्त अभिनेत्रियां ऐसी फिल्मों का हिस्सा रही हैं लेकिन उनमें से अधिकांश फिल्में बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ गईं और इस धारणा को और बल मिल गया। हालांकि श्रीदेवी अभिनीत 'चांदनी' और माधुरी की सशक्त भूमिका वाली 'बेटा' जैसी फिल्मों ने बीच-बीच में मिथ को कुछ तोड़ा लेकिन फिर भी इनकी संख्या कम ही थी। एक तरह से श्रीदेवी-माधुरी के दौर के खात्मे के साथ ही इस ट्रेंड ने भी उदासी का आवरण ओढ़ लिया था। आज महिला पात्रों को लेकर जिस तरह की कहानियाँ फिल्माई जा रही हैं मुद्दों को उठाने और महिलाओं की सशक्त भूमिका को दर्शाने के मामले में वे कहीं आगे हैं।

केवल महिला प्रधान मुद्दों पर ही नहीं महिलाओं की ताकतवर भूमिका को लेकर भी फिल्मों के तेवर काफी तीखे हुए हैं। अब बाइक चलाती करीना कपूर हो, पुरुषों को धूल चटाती प्रियंका चोपड़ा या पब में जाकर अपने अनमैरिड स्टेटस को आखिरी बार एन्ज्वॉय करने की हसरत जताती ... ब्रदर की दुल्हन, कैटरीना हों... हिन्दी फिल्मों में नायिका अब केवल सजावटी गुड़िया की तरह प्रयोग में नहीं आती।

अपने अभिनय और आत्मविश्वास के दम पर तारीफ पातीं 'बैंड बाजा बारात' की अनुष्का से लेकर, देव डी और साहब बीवी और गैंगस्टर की माही गिल, दैट गर्ल इन यलो बूट्‌स की कल्की कोचलिन, व्हाट्‌स योर राशि की प्रियंका चोपड़ा तथा लव आज कल की दीपिका तक इंडस्ट्री के कई नाम ऐसे हैं जो महिला सशक्तीकरण की परिभाषा को सार्थक करने की कोशिश में हैं। खुशी की बात ये है कि पूरी तरह पुरुष प्रधान इंडस्ट्री में अब इन कोशिशों को तवज्जो भी दी जा रही है। कहीं न कहीं ये समाज की बदलती तस्वीर का असर भी है। जो भी हो, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने से ज्यादा जरूरी काम अब महिलाओं के हिस्से आ रहे हैं।