मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
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Written By अनहद

सैलाबी रात में रोशन रहती है चाँद रकाबी

सैलाबी रात में रोशन रहती है चाँद रकाबी -
गुलजार के गीत राजकपूर की इस राय के खिलाफ जाते हैं कि लोग सिर्फ मुखड़ा सुनते हैं। अन्य गीतकार मुखड़े पर पूरी ताकत लगाते हैं और अंदर के बंद / छंद पर आकर चुक जाते हैं। गुलजार के गीतों का मजा मुखड़े से शुरू होता है और गीत आगे बढ़ने के साथ-साथ काव्य की गहराइयों और ऊँचाइयों पर एक साथ ले जाता है। उनके तमाम गीत हर जगह से अच्छे हैं। शुरू में, बीच में, अंत पर।

मिसाल के तौर पर फिल्म "ओंकारा" का गीत - "जुबाँ पे लागा लागा रे नमक इस्क का"। इस गीत का मिजाज है यूपी के मुजरे वाला और इसी मिजाज के अनुरूप इसके अंदर बोल हैं - ऐसी फूँक भरी जालिम ने बाँसुरी जैसी बाजी मैं/जो भी कहा उस चंद्रभान ने झट से हो गई राजी मैं...। सिचुएशन को समझकर उसके हिसाब से गीत लिखना और हर गीत में अपने मन की बात लिखना गुलजार की खासियत है। "बंटी और बबली" के मुजरे "कजरारे कजरारे" के पहले एक शेर है - ऐसी नजर से देखा जालिम ने चौक पे / हमने कलेजा रख दिया चाकू की नोक पे...। ये उस तवायफ के हिसाब का शेर है। ये तवायफ अगर किसी अच्छे शायर का कोई नाज़ुक शेर यहाँ पढ़ती तो बेमेल होता।

इसी मुजरे में एक जगह गुलजार लिखते हैं - तेरी बातों में किवाम की खुशबू है...। कई बार गुलजार ऐसे शब्द भी इस्तेमाल करते हैं जिन्हें आम लोग नहीं समझ पाते। इन दिनों उर्दू शायरी के मंच पर कठिन शब्द का मतलब समझाया जाता है ताकि लोग शेर को पूरी तरह समझ लें। उर्दू के मंचीय शायर जहाँ आम आदमी के स्तर पर आकर शायरी कर रहे हैं, वहीं गुलजार गीतों में भी अपने मन के शब्द लिखते हैं- "अक्स" का गीत है- आबी-आबी रात बड़ी तेजाबी / गिर ना जाए हाथ से चाँद रकाबी / डूब रहे हैं सारे कूल-किनारे / उमड़-घुमड़ के रात आई सैलाबी...।

इस गीत में "कूल-किनारे" ठेठ हिन्दी का शब्द है। महादेवी वर्मा की कविता के बाद इसका ऐसा सुंदर इस्तेमाल गुलजार के यहाँ ही हुआ है। साथ ही उर्दू के भी शब्द हैं- आबी-आबी (गीली-गीली), रकाबी (प्लेट), सैलाबी (बाढ़ वाली)।

२५ जनवरी को रिलीज हो रही विशाल भारद्वाज की फिल्म "इश्किया" में गुलजार का लिखा गीत- "दिल तो बच्चा है जी" लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया है। इस गीत में उन्होंने पीरी (बुढ़ापा) शब्द सही अर्थ के साथ बाँधा है और एक बार फिर पूरा गीत ही सुनने-गुनगुनाने लायक है। इस गीत के मुखड़े पर कहीं भी "दिल तो पागल है" का असर नहीं है। आखरी में लगा "जी" इसे पुराने प्रभाव से मुक्त कर रहा है। ऐसा करिश्मा केवल गुलजार ही कर सकते हैं। लिखने वाले बहुत हैं, मगर गुलजार को नंबर एक पर रखने के बाद यह उलझन होती है कि नंबर दो, नंबर तीन पर किसे रखें।