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Written By समय ताम्रकर

सरसों की साग और मकई की रोटी की सौंधी महक : धर्मेन्द्र

Dharmendra He man of Bollyowood | सरसों की साग और मकई की रोटी की सौंधी महक : धर्मेन्द्र
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धर्मेन्द्र ने हिन्दी सिनेमा के परदे पर तीन दशक तक राज किया है। राज कपूर, दिलीप कुमार और देवआनंद जैसे लोकप्रिय सितारों के सामने रहते हुए अपनी सफलता के परचम लहराए। आज भी वे सक्रिय हैं और अपनी दूसरी पीढ़ी के साथ फिल्मों में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।

पंजाब के फगवाड़ा कस्बे में 8 दिसम्बर 1935 को उनका जन्म हुआ। उन दिनों सिनेमा अपने शैशवकाल में था। आजादी मिलने तक उनकी उम्र किशोर अवस्था को पार करने लगी।

गाँव में सिनेमाघर नहीं था। लेकिन समीप के कस्बे में अक्सर दोस्तों के साथ जाना होता था। सिनेमाघर के सामने दीवार पर लगे पोस्टरों को टकटकी लगाकर देखना एक प्रकार का शगल था। कभी-कभार दोस्तों के साथ गाँव से साइकिल पर सवार होकर शहर जाते और एक-एक दिन में दो-तीन फिल्में देखकर लौटते। फिर खेत के मचान पर या कुएँ की मुंडेर पर बैठकर अपने उन दोस्तों को फिल्म की कहानियाँ दिलचस्पी के साथ सुनाकर मनोरंजन करते थे।

सिनेमा के प्रति अजीब-सी लगन बचपन से दिल-दिमाग में घर कर बैठ गई थी। जब फिल्मफेयर पत्रिका ने नए कलाकारों के लिए कुछ निर्माताओं के साथ टेलेंट कांटेस्ट का विज्ञापन प्रकाशित किया, तो धर्मेन्द्र ने भी आवेदन भेजा। इंटरव्यू का बुलावा आया, तो बम्बई मायानगरी में आ गए। उनका चुनाव हो गया। शर्त यह थी कि प्रत्येक निर्माता की एक फिल्म में काम करना अनिवार्य होगा। जब सारे निर्माताओं की फिल्में पूरी हो जाएँगी, फिर स्वतंत्रापूर्वक चाहे जिसके साथ काम करने की इजाजत रहेगी। इन निर्माताओं में ऋषिकेश मुखर्जी, शक्ति सामंत, मोहन सहगल, बीआर चोपड़ा, नासिर हुसैन जैसे लोग थे, इसके बावजूद धर्मेन्द्र को कड़ा संघर्ष करना पड़ा।

ऋषिदा की फिल्मों ने धर्मेन्द्र को एक अलग इमेज दी। साफ-सुथरी फिल्में। पारिवारिक मनोरंजन। समाज के प्रति जागरुक कथानक वाली फिल्में। इन फिल्मों को आज देखा जाए, तो लगता है यह कौन सा धर्मेन्द्र है। धीर-गंभीर। शांत-हँसमुख। रोमांटिक और कॉमेडी करने वाला धर्मेन्द्र। बाद की फिल्मों में धर्मेन्द्र को सिर्फ मारधाड़ करते देखा गया। वे ही-मैन कहलाने लगे और दर्शकों को उनका एक्शन का यह रूप भी खूब भाया। जब वे कहते कि कमीने, कुत्ते, मैं तेरा खून पी जाऊँगा तो खलनायक काँपने लगता।

धर्मेन्द्र खूब चले। उनकी फिल्में भी खूब चली। हेमा मालिनी के साथ जोड़ी भी खूब जमी। परदे पर भी और परदे के बाहर भी। शोले के बाद हिंसा वाली फिल्मों का दौर चला। हिन्दी सिनेमा का परदा खून से लाल हो गया। धर्मेन्द्र ने एक जैसी कई फिल्में की और वे टाइप्ड हो गए। इसी दौर में सनी और बॉबी बड़े हो गए। उन्हें भी देओल परिवार ने फिल्मों में उतार दिया। दर्शक यंग धर्मेन्द्र को सनी के चेहरे में देखने लगे। सितारों की पीढ़ी बदली। दर्शकों की पीढ़ी बदली। धर्मेन्द्र का चमचमाता सितारा टिमटिमाने लगा। लेकिन अंगारा, अंगारा होता है। राख के नीचे छिपी आग आज भी हाथ जलाने के लिए काफी है।

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मुम्बई की मायानगरी में देओल परिवार आज भी अपनी पहचान अलग रखता है। जुहू में उनका किले जैसा मकान है। पूरा संयुक्त परिवार साथ रहता है। रात को डिनर साथ लेता है। साथ बैठ ड्रिंक करता है। बॉलीवुड में ऐसे उदाहरण बहुत कम है।

इतना ही नहीं पंजाब-हरियाणा से जब कभी कोई मुसीबत का मारा मुम्बई आता है, तो देओल परिवार उसका उदार दिल-दिमाग से स्वागत करता है। हर प्रकार की मदद करता है चाहे बात बीमारी की हो, स्कूल में फीस भरने की हो या विवाह की हो। पंजाब के सरसों के खेतों में फैली माटी की गंध और मक्के की रोटी का स्वाद धरमजी के घर के माहौल में घुलामिला मिलता है।