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Written By ND

मंच से गायब रंग

मंच से गायब रंग -
-अनहद

पन्द्रह जुलाई दो हजार चार को जब दर्जनभर मणिपुरी महिलाओं ने इम्फाल में असम राइफल्स मुख्यालय के सामने पूरी तरह निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था, तब बहुतों के मन में यह बात उठी थी कि विदेशों में तो इस तरह के निर्वस्त्र प्रदर्शन आम बात हैं, पर असम में जहाँ महिलाओं के संस्कार पूरी तरह से भारतीय हैं, इस प्रदर्शन की प्रेरणा उन महिलाओं को कहाँ से मिली।

इस महीने के "हंस" से खुलासा हुआ है कि उन महिलाओं को इसकी प्रेरणा रंगमंच से मिली थी। सवाल यह है कि क्या हिन्दी रंगमंच हमारे समाज को इस तरह प्रभावित कर पाता है? क्या कभी किया है? क्या कभी कर सकता है?

ये सारे सवाल इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि हिन्दी रंगमंच के लोग हिन्दी दर्शकों से शिकायत करते हैं। शिकायतों की फेहरिस्त काफी लंबी है। पहले शिकायत यह थी कि दर्शक नाटक के टिकट नहीं खरीदते और समाज नाटक में मदद नहीं करता। अब शिकायत यह है कि मुफ्त में भी लोग नाटक देखने नहीं आते।

मगर पहले अपन मणिपुर की उन महिलाओं के प्रेरणास्रोत की बात करते हैं। मणिपुर के दिग्गज रंगकर्मी एस. कन्हाईलाल ने द्रौपदी नाम का नाटक लिखा। उनकी पत्नी सावित्री ने इस नाटक में क्रांतिकारी आदिवासी नेता की पत्नी का रोल किया है।

नेता की मौत के बाद उसकी पत्नी आंदोलन की कमान अपने हाथ में लेती है। एक दिन पुलिस उसे पकड़ लेती है और रातभर उसके साथ बलात्कार किया जाता है। सुबह जब बड़े अधिकारी के सामने बयान के लिए उसे ले जाती है, तो वो पूरे कपड़े उतारकर कहती है कि अब मुझे इसकी जरूरत नहीं रही है।

नाटक के इस अंतिम दृश्य में सावित्री वाकई अपने सारे कपड़े उतार देती हैं। यहीं से उन मणिपुरी महिलाओं को सीख मिली और उन्होंने निर्वस्त्र प्रदर्शन कर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा।

हिन्दी रंगमंच किसी तरह की कोई प्रेरणा समाज को नहीं देता नजर नहीं आता। दिल्ली, मुंबई की बात अलग है पर समूची हिन्दी पट्टी में ऐसे लोग बहुतायत से मिल जाएँगे, जिन्होंने जिन्दगी में एक भी नाटक नहीं देखा।

हिन्दी रंगमंच का असर आँकने के लिए यह तथ्य शायद पर्याप्य हो जबकि खड़ी बोली वाली हिन्दी और सिनेमा का विकास लगभग एक साथ हुआ। आज हालत यह है कि सिनेमा और टीवी हिन्दी समाज की तमाम मनोरंजन आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। ऐसे में रंगमंच और नाटक के लिए जगह कहाँ हैं? फिर समूची हिन्दी पट्टी आतंकवाद और सांप्रदायिकता से त्रस्त है। किसी हिन्दी नाटक ने शायद ही इस पर कुछ काम किया हो। हाँ, फिल्मों ने जरूर समस्या को उठाया। हाल ही की दो फिल्में- "ए वेडनस डे" और "मुंबई मेरी जान" इसका उदाहरण हैं। हालाँकि दोनों फिल्में समस्या का अलग-अलग और एकदम विपरीत हल सुझाती हैं, पर कम से कम वो समस्या को रेखांकित तो करती हैं, साथ ही करोड़ों लोगों तक पहुँचती भी हैं।

हिन्दी नाटक न तो टीवी और सिनेमा की तरह मनोरंजन दे रहा है और न ही आम जनता की लड़ाई का माध्यम बन रहा है, जैसा हम असम में देख रहे हैं। गुजराती, मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, हिन्दी के मुकाबले बहुत पुरानी भाषाएँ हैं। हिन्दी रंगमंच उनका मुकाबला नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि उसकी गिनती कहीं है ही नहीं। वो कुछ लोगों का विलास भर है।

(नईदुनिया)