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Written By ND

बगल में छोरा गाँव में ढिंढोरा...

बगल में छोरा गाँव में ढिंढोरा... -
- अनह

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खुशी की बात है कि मुंबई में बहुत से लोगों ने आतंकवाद से लड़ने की शपथ ली और कई फिल्मी सितारे भी शपथ में शामिल हैं। पर सवाल है कि क्या आम जनता और फिल्मी सितारे आतंकवाद को पहचानते हैं? आतंकवाद केवल वही नहीं होता, जो पाकिस्तान या कहीं और से आता है, आतंकवाद अपने आसपास भी पलता है, और पाकिस्तान के आतंकवाद के खिलाफ मोमबत्ती जलाना आसान है, पर घरेलू आतंकवाद के खिलाफ एक शब्द भी कहना खतरनाक हो जाता है। आप अपने घर की छत पर खड़े होकर अमेरिका के राष्ट्रपति को तो भला-बुरा कह सकते हैं, पर मोहल्ले के पार्षद के खिलाफ कुछ भी कहने में दस बार सोचेंगे।

हमारे यहाँ भी स्थानीय स्तर पर कई तत्व ऐसे होते हैं, जो आतंक फैलाने का काम करते हैं। कुछ लोगों के फरमान पर सारी फिल्म इंडस्ट्री सर झुकाती है। अभी कुछ दिनों पहले अमिताभ ने किससे माफी माँगी थी, आपको याद होगा।

बुज़ुर्ग चरित्र अभिनेता एके हंगल ने खुद इस कॉलम लेखक को कुछ बरस पहले अपनी आपबीती सुनाई थी। लालकृष्ण आडवाणी की ही तरह हंगल भी कराची के हैं और पाकिस्तान जाने के लिए वीसा लेने दिलीप कुमार के साथ पाकिस्तानी दूतावास गए। वहाँ उन्हें पाकिस्तान डे के लिए इनवाइट किया गया। दोनों ने यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया। बाद में जब खबर आम हुई तो कुछ तत्वों ने विरोध किया और दोनों की देशभक्ति पर सवाल उठाया।

हंगल ने कहा कि देशभक्ति का प्रमाण-पत्र मुझे ठाकरे से नहीं चाहिए। तब बाल ठाकरे ने फरमान जारी कर दिया कि हंगल की फिल्में नहीं चलने देंगे। जगह-जगह हंगल का विरोध हुआ और तीन बरस तक हंगल को कोई काम नहीं मिला। फिल्मों से उनके रोल काट दिए गए और जिस फिल्म में रोल महत्वपूर्ण था, उसमें किसी और से काम करा लिया गया। इस बूढ़े अभिनेता ने अपना काम टेलरिंग करके चलाया जो उनका पुश्तैनी हुनर है।

हंगल साहब ने कहा भी कि यदि मुझे टेलरिंग नहीं आती होती तो मैं भूखा मर जाता। याद रहे ऐसा उस हंगल के साथ हुआ, जो प्रगतिशील आंदोलन के अगुआ थे और इस समय भी इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इसे आतंकवाद नहीं कहा जा सकता? श्रीकृष्ण आयोग की रपट बाल ठाकरे के बारे में क्या कहती है, क्या यह याद दिलाए जाने की जरूरत है? बिहारियों और उत्तरप्रदेश के लोगों को मारकर भगा दिया गया, भगाया जा रहा है, क्या ये स्थानीय आतंकवाद नहीं है?

गुंडागर्दी और आतंक के खिलाफ खड़ा होने का साहस चंद लोगों ने किया था। एके हंगल के समय राज बब्बर और श्रीराम लागू ने बाल ठाकरे का विरोध किया था और हंगल का साथ दिया था। नरेन्द्र मोदी के फतवे के वक्त आमिर खान ने हिम्मत दिखाई थी। बकाया फिल्म वाले तब भी मुँह सीकर बैठे थे और अभी जब अमिताभ के साथ गुंडागर्दी और जया बच्चन के साथ बदतमीज़ी हुई, तब भी सब चुप थे। ऐसे लोग आतंक के खिलाफ नारा तो लगा सकते हैं, पर आतंकवाद से लड़ नहीं सकते। जो भी शख़्स आतंक से लड़ना चाहता है उसके लिए मिसाल वही बगल में छोरा और गाँव में ढिंढोरा वाली है। अगर आतंकवाद पहचानना आता हो तो अपने आसपास ही बहुत-सा मौजूद है।

(नईदुनिया)