शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By अनहद

नए देश को चाहिए नई देशभक्ति

नए देश को चाहिए नई देशभक्ति -
पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन पहले सुबह से ही देशभक्ति के गीतों के रेकॉर्ड गूँजने लगते थे। अब इसमे इजाफा यह हुआ है कि टीवी चैनलों पर भी देशभक्ति गीतों और फिल्मों की बाढ़ आ जाती है।

15 अगस्त और 26 जनवरी मनाने के दो रूढ़ ढंग हैं। पहला यह कि भांगड़ा डाला जाए, नारे लगाए जाएँ, देश है वीर-जवानों का गाया जाए, देशभक्ति की फिल्में देखी जाएँ। गंभीर किस्म के लोग यानी अखबारों के संपादक इस दिन मुँह बिसूरकर संपादकीय लिखते हैं, जिसमें कहते हैं कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हालत ऐसी है, अभी तक गाँवों में बिजली नहीं पहुँची, अभी तक लोग भूखे हैं, नंगे हैं, अभी तक बलात्कार होते हैं, चोरियाँ होती हैं वगैरह-वगैरह। गंभीर किस्म के लोगों में बहुत से लोग आते हैं- प्रोफेसर, साहित्यकार और बुद्धिजीवी आदि। ये इस मौके पर भी मुँह लंबा करके शिकायतें करते हैं, जो वाजिब होती हैं, पर बेमौका।

देश है वीर जवानों का गाने पर भांगड़ा करने वाले बहुत से लोग होने के बावजूद अब देशभक्ति की वैसी मनोज कुमार टाइप फिल्में नहीं बनतीं। कारण बहुत से हैं। युद्ध मुद्दत से नहीं हुआ और होना भी नहीं चाहिए। मगर जब युद्ध होता है, तो युद्ध की फिल्में बहुत बनती हैं। युद्ध खत्म होने के बाद तक बनती रहती हैं। याद कीजिए कि "बार्डर" कितनी लेट बनी थी।

अब चुनौती यह है कि बिना पड़ोसी मुल्कों को गाली दिए, बिना अपने मुँह से अपने आपको और अपने पूर्वजों को महान कहे, बिना जंग दिखाए देशभक्ति की फिल्म कैसे बने? देशभक्ति की ज़रूरत तो अब भी है, पर हमारा नायक अब सीमा पर जाकर बहादुरी नहीं दिखा सकता।

देशभक्ति दरअसल दो तरीकों की होती है। एक है युद्धकालीन देशभक्ति और दूसरी शांति के दौर की देशभक्ति । किसी भी देश के इतिहास में साठ-पैंसठ साल बहुत बड़ा समय नहीं होता। इतने बरसों में हमने फिल्मों में, गीतों में युद्धकालीन देशभक्ति ही देखी है। दूसरे टाइप की देशभक्ति हमें विकसित करनी होगी।

मणिरत्नम की फिल्म युवा का नायक माइकल (अजय देवगन) जब यह कहता है कि मैं राजनीति करूँगा और देश को बदलूँगा, तो वो प्रकारांतर से देशभक्ति ही कर रहा है। बेशक उसमें नारेबाज़ी नहीं है। सहनायक अर्जुन (विवेक ओबेराय) जब कहता है कि मैं मल्टीनेशनल में नौकरी करने की बजाय अपना टेलेंट अपने देश के विकास में लगाऊँगा, तो ये भी देशभक्ति ही है।

शांतिकालीन देशभक्ति इतनी सस्ती नहीं है कि भारत माता की तस्वीर की आरती कर ली, तिलक लगा लिया, तिरंगा लहरा लिया, पड़ोसी मुल्कों को भला-बुरा कह लिया, भांगड़ा कर लिया और समझने लगे खुद को देशभक्त।

युद्ध के दिनों में देशभक्ति आसान है, पर शांति के दिनों में मुश्किल। यही वजह है कि अब देशभक्ति की वैसी फिल्में नहीं बन रही जैसी पहले बना करती थीं। "रंग दे बसंती" ठीक से देशभक्ति की फिल्म नहीं है। ये बदले की कहानी है। "लगान" को भी यह श्रेणी नहीं दी जा सकती। शहीद भगतसिंह पर जो फिल्में बनीं उनकी बात ज़रूर अलग है।