शुक्रवार, 29 मार्च 2024
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Written By समय ताम्रकर

ओह माय गॉड, उत्तराखंड में भगवान ने भक्तों के साथ ऐसा क्यों किया?

ओह माय गॉड, उत्तराखंड में भगवान ने भक्तों के साथ ऐसा क्यों किया? -
उत्तराखंड स्थित तीर्थस्थानों पर पुण्य कमाने और पापों के लिए माफी मांगने गए लोगों पर ऐसा विपदा आन खड़ी हुई कि पूरा देश सिहर गया। हजारों लोगों के मरने की बातें हो रही हैं। कई लोग लापता हैं और उनके घर वालों ने उन्हें मृत मानकर प्रतीक के तौर पर उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया है। कई अभी भी फंसे हुए हैं। बच्चे, बूढ़े, नौजवान, सभी पर प्रकृति का कहर टूटा है। इस तरह के मामलों में प्रकृति के लिए सब बराबर होते हैं।

नास्तिक और अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलाने वालों ने प्रश्न उछालने शुरू कर दिए हैं कि उत्तराखंड में जो लोग भगवान के दर्शन करने गए उनके साथ भगवान ने ऐसा क्रूर खेल क्यों खेला? ऐसा ही प्रश्न परेश रावल ने फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में उठाया था। फिल्म में बताया गया था वैष्णो देवी के दर्शन करने गए लोगों से भरी बस खाई में गिर जाती है और वे मारे जाते हैं। कांजी भाई बने परेश पूछते हैं कि यदि भगवान है तो उन्होंने अपने भक्तों के साथ ऐसा क्यों किया? कई फिल्में सत्य घटनाओं से प्रेरित होकर बनाई जाती हैं तो कई बार फिल्म में दिखाई गई काल्पनिक बातें बाद में सच साबित हो जाती हैं। और उत्तराखंड में जो कुछ हुआ है उससे मिलती-जुलती बात ‘ओह माय गॉड’ में भी की गई है।

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जिन लोगों ने ओह माय गॉड नहीं देखी है वे भी उन्हीं मुद्दों पर बातें कर रहे हैं जिन्हें इस फिल्म में पेश किया गया था। आस्था और अंधविश्वास के बीच की रेखा को परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है। दरअसल यह रेखा इतनी धुंधली है कि हमें पता नहीं चलता है कि हम आस्था के पाले से निकलकर कब अंधविश्वास के पाले में पहुंच गए हैं।

भगवान को मानना भी एक तरह से अंधविश्वास ही है और ऐसे लोग बहुत कम हैं जो किसी तरह का अंधविश्वास नहीं पालते हैं। भारत में अंधविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हैं। चमत्कार पर बहुत ज्यादा विश्वास है। किताबों में बताया गया है कि धरती पर जब पाप और अत्याचार बहुत बढ़ेंगे तब कोई ईश्वरीय अवतार आएगा और हमें बचाएगा। इसलिए लोग खुद कुछ करने के हाथ पर हाथ धरे बैठकर चमत्कार की आशा में अन्याय सहते हैं। वोट देकर भी इसी तरह के चमत्कार की उम्मीद की जाती है जिसका फायदा नेता उठाते हैं।

ओह माय गॉड भगवान के खिलाफ न होकर उनके नाम पर व्यवसाय चलाने वालों के खिलाफ है। धर्म का भय बताकर धर्म के नाम पर जो लूट-खसोट की जा रही है उन लोगों पर व्यंग्य करते हुए उन्हें बेनकाब करने की कोशिश की गई है।

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आस्था के नाम पर अंधे बने हुए लोग भी कम दोषी नहीं हैं। मंदिरों में चढ़ावे के नाम पर पैसे, हीरे-जवाहरात, मुकुट, सिंहासन चढ़ाए जाते हैं जिनकी कीमत सुन हम दंग रह जाते हैं। एक तरफ भोजन के अभाव में लोग भूखे मर रहे हैं तो दूसरी ओर लीटरों दूध भगवान पर चढ़ाया जा रहा है जो मंदिर से निकलकर गटर में मिल जाता है।

लोगों को तन ढंकने के लिए चादर नहीं है और दरगाह में चादर चढ़ाई जाती हैं। कुछ साधु-संत भगवान का रूप बने हुए हैं, सोने के सिंहासन पर वे बैठते हैं, लाखों की कार में घूमते हैं और शानो-शौकत में राजा-महाराजाओं को पीछे छोड़ते हैं। इन लोगों के नकाब खींचने का काम ‘ओह माय गॉड’ करती है।

धर्मभीरू लोग इतने डरे हुए हैं कि हजारो वर्ष पुरानी परंपराओं का पालन बिना सोचे-समझे अभी भी कर रहे हैं। उन्होंने यह बात अपने माता-पिता से सीखी है और इसे वे अपने बच्चों को भी सिखाते हैं। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि ये परंपराएं उस कालखंड में उस दौर के सामाजिक दशा को देखकर बनाई गई थी, जिनका वर्तमान में कोई महत्व नहीं है।

रीतियां कुरीति बन चुकी हैं। भगवान से सौदे किए जाते हैं कि तुम मेरा ये काम कर दोगे तो मैं इतने रुपये चढ़ाऊंगा, उपवास करूंगा। ताबीज पहन कर, अंगुठियों में पत्थर पहन कर समझा जा रहा है कि उनका भविष्य सुधर जाएगा।

ताज्जुब की बात तो ये है कि ये अनपढ़ नहीं बल्कि पढ़े-लिखे लोग भी कर रहे हैं जबकि आस्थाएं पाखंड में बदल चुकी हैं और अंधविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हो गई हैं। सभी साधु-संतों को ढोंगी नहीं बताया गया है। फिल्म में एक संत ऐसा है जो ढोंगियों को पोल देखते हुए बहुत खुश होता है। फिल्म में बताया गया है कि गीता, कुरान और बाइबल को समझे बिना लोग धर्म की अपने तरीके से व्याख्या कर रहे हैं।

सबसे अहम सवाल ये कि इस फिल्म को हजारों लोगों ने देखा। सराहा। कुछ पर कुछ दिन असर भी रहा, लेकिन इसके बाद सब कुछ भूला दिया गया। जिस तरह शमशान में जाकर हर व्यक्ति में वैराग्य उत्पन्न होता है, लेकिन शमशान से बाहर आते ही वह सब कुछ भूल जाता है।

उत्तराखंड में जो कुछ हुआ है, उससे आस्था और अंधविश्वास पर सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं, लेकिन ये बातें सोडा के बुलबलों की तरह है। अंधविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हैं और इन्हें उखाड़ने में कितना समय लगेगा, ये बताना फिलहाल संभव नहीं है।