शनिवार, 20 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. मनोरंजन
  2. बॉलीवुड
  3. आलेख
Written By अनहद

स्लम और सलाम

स्लम और सलाम -
मीरा नायर अपनी चर्चित फिल्म "सलाम बॉम्बे" फिर से रिलीज़ कर रही हैं। री-रिलीज़ के मौके पर उनकी फिल्म का बाल-कलाकार शफीक सैयद मौजूद रहेगा, जो अब बड़ा हो गया है और बेंगलुरू में रिक्शा ड्राइवरी कर रहा है। "स्लमडॉग मिलियनेयर" के बाल कलाकारों पर एक तरफ जहाँ खूब धन बरस रहा है, वहीं "सलाम बॉम्बे" का कलाकार रिक्शा चला रहा है। यह फर्क जब उजागर हुआ, तो एनआरआई अरविंदर राजपाल ने दो हज़ार रुपए महीने की मदद का ऐलान किया है, जो चालीस डॉलर के बराबर होते हैं। जानकारों का कहना है कि "सलाम बॉम्बे" "स्लमडॉग..." से कहीं बेहतर फिल्म थी। उसके साथ दो दिक्कतें थीं। पहली यह कि वो वक्त से पहले आ गई थी और दूसरी यह कि उसे किसी गोरी चमड़ी वाले ने नहीं बनाया था।

लाख रुपए का सवाल यह है कि मीरा नायर क्यों इस फिल्म को री-रिलीज़ कर रही हैं? तकनीकी बात यह है कि पुराने समझौतों से फिल्म बीस साल बाद आज़ाद हो जाती है और निर्माता उस फिल्म को नए सिरे से रिलीज़ कर सकता है। मगर ये समझौते तो हर फिल्म के साथ होते हैं। हर फिल्म तो बीस साल बाद री-रिलीज़ नहीं होती। हॉरर फिल्म "बीस साल बाद" भी बीस साल के बाद री-रिलीज़ नहीं हुई।

इसमें कोई शक नहीं कि "स्लमडॉग" पर ऑस्कर बरसने के बाद "सलाम बॉम्बे" की प्रासंगिकता कायम हुई है। दूसरी तरफ विश्व के लोगों में भारत के प्रति नई दिलचस्पी जागी है। मीरा नायर शायद यह कहना चाहती हैं कि देखिए मेरी फिल्म "स्लमडॉग" से कम नहीं है। अगर "स्लमडॉग" को ऑस्कर मिले हैं, तो मेरी फिल्म को भी मिलने चाहिए थे। इस तरह की कोई न कोई बात तो उनके दिलो-दिमाग में ज़रूर है।

मीरा नायर और अच्छी फिल्म के कद्रदानों की बदकिस्मती है कि मीरा की एक योजना पूरी नहीं हो पाई। भारतीय झोपड़पट्टियों पर एक ऑस्ट्रेलियाई लेखक के उपन्यास "शांताराम" पर उनकी फिल्म बनते-बनते रह गई। मीरा नायर युगांडा के कंपाला शहर में रहती हैं। न्यूयॉर्क और दिल्ली आती-जाती रहती हैं। उनके पति मेहमूद ममदानी भारतीय मुस्लिम हैं, जो युगांडा में जा बसे हैं। मीरा की माँ दिल्ली में रहती हैं और बहुत सक्रिय जीवन बिताती हैं। ज़मीन से जुड़ी मीरा नायर अपने बेटे से हिन्दी में बोलती-बतियाती हैं और भारतीय सिने कलाकारों की तरह बेवजह अँगरेजी नहीं झाड़तीं। अगर मीरा नायर "शांताराम" पर फिल्म बना पातीं तो हम अपने ही नर्क यानी झोपड़पट्टियों को नई नज़र से देख पाते।

मीरा नायर किसी तरह डैनी बोयल से कम नहीं हैं। "स्लमडॉग" की तुलना यदि "सलाम बॉम्बे" से की जाए, तो पता चलता है कि "सलाम बॉम्बे" कहीं ज्यादा परिपक्व फिल्म है। "स्लमडॉग" में बहुत-सा कच्चापन है। उसके बाल-पात्रों की तुलना "सलाम बॉम्बे" के कृष्णा से (शफीक सैयद) कर के देखिए। कृष्णा अपनी उम्र के बच्चों से कहीं ज्यादा चालाक है। झोपड़पट्टियों के वो बच्चे जो छुटपन से ही अपनी रोटी खुद कमाते हैं, सामान्य बच्चों के मुकाबले ज्यादा परिपक्व होते हैं। "स्लमडॉग" के बच्चों की कमज़ोरी ये है कि वे बच्चे ही हैं। "अकाल परिपक्व" नहीं हुए। अन्य भी बहुत-सी खूबियाँ हैं, जो "सलाम बॉम्बे" को बेहतर बनाती हैं।

(नईदुनिया)