शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By अनहद

रावण की कमजोरी गलत कास्टिंग

रावण की कमजोरी गलत कास्टिंग -
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मणिरत्नम की सबसे कमजोर फिल्म "रावण" ही है। ठीक है कि "दिल से" भी फ्लॉप रही थी, मगर उसका गीत-संगीत बेहतर था। साथ ही गति के लिहाज से भी वो फिल्म भी बेहतर थी। "रावण" की नाकामी के पीछे एक कारण है गलत कास्टिंग। अभिषेक बच्चन ने जैसा अभिनय इस फिल्म में किया है, वो उनकी आम फिल्मों से इक्कीस है, मगर फिर भी यहाँ और तगड़े अभिनय की जरूरत थी। पहले ही सीन में अभिषेक ऊँची चट्टान से नीचे झरने में छलाँग लगाने वाले हैं। कैमरा पीछे से उनका शरीर दिखा रहा है। उनकी कमर के आस-पास लटकती हुई चर्बी की दो लंबी थैलियाँ-सी दिखती हैं। ऐसा लगता है नौजवान पंडा घाट की सीढ़ियों से गंगा में कूदने वाला है। किसी भी आदिवासी में एक सेंटीमीटर फालतू चर्बी नहीं होती। अगर इस रोल को आमिर करते तो वो शायद दो साल जंगल में रहकर जंगली चीजें खाते और जंगली झाड़ी सरीखे जंगल में खप जाते। अभिषेक के साथी के रोल में रविकिशन भी मोटे और तोंदियल हैं।

किसी भी आदिवासी की न तो ऐसी हाइट होती है और न ही बदन। आदिवासी सवा पाँच फुट के आसपास ही होते हैं। साथ ही वे जंगली खरगोश जैसे चपल और छरहरे होते हैं। जंगल उतना ही देता है, जितने से आप जी सकें। पानी में तैरते हुए अभिषेक फ्री स्टाइल में किसी तैराक की तरह स्ट्रोक लेते हैं। गाँववालों के तैरने का ढंग शहरी स्वीमिंग पूल के तौर-तरीकों से बिलकुल अलग होता है। तो जो गँवईपन इस किरदार के लिए जरूरी था, अभिषेक नहीं ला पाए। अभिषेक के चेहरे पर उस नेता के हाव-भाव और कठोरता नहीं है, जिसकी जाति पर लगातार अत्याचार हुए हैं और होते रहे हैं।

हार्वर्ड फास्ट के उपन्यास "स्पार्टाकस" का नायक ऐसे ही सताए हुए पिछड़े हुए लोगों का नेता है। इस उपन्यास पर बनी फिल्मों और धारावाहिकों में नायक को जैसा कठोर बताया गया है, वैसी ही कठोरता और मजबूरी में उपजी क्रूरता इस फिल्म के लिए जरूरी थी। मगर अभिषेक के बारे में यह मशहूर है कि वे आलसी हैं। सो रोल में जान डालने के लिए वो इतनी मेहनत नहीं करने वाले थे। यहाँ याद आती है अजय देवगन की। वे भी इस रोल को निभा ले जाते।

"रावण" का नायक बीरा किसी के बोलने से चिढ़ता है और अजीब तरह की हरकत करने लगता है। ये भी नहीं जमी है। उस समय उनकी आँखों में कोफ्त नहीं, मजाक दिखाई देता है। ऐश्वर्या सुंदर भले ही बहुत हों, पर यहाँ एक्ट्रेस चाहिए थी। उन पलों में ताली बजना चाहिए थी जब नायिका का झुकाव अपने पति से उचट कर नायक की तरफ हो जाता है। अगवा की गई नायिका के प्रेम में जंगली नायक का पड़ जाना भी असरदार नहीं रहा है। प्रेम की वो तीव्रता कहीं दिखाई ही नहीं दी है। यह सच है कि फिल्म की पटकथा में ढीलापन है, मगर अच्छा अभिनय इसे संभाल सकता था।

एसपी का रोल कर रहे विक्रम का नाम फिल्म में देव है। यह प्रतीक है देवताओं का। मगर जान-बूझकर उनका गेटअप रामलीला के रावण सरीखा रखा गया है। खासकर मूँछें और आँखें...। मणिरत्नम जो कहना चाहते थे, उसके लिए यही एकमात्र पात्र एकदम सटीक है। बकाया में वो गलती कर गए। इन दिनों एक नया ट्रेंड यह चल पड़ा है कि आप चाहें आर्ट फिल्म बनाएँ, मगर उसमें सितारों को ले लें, ताकि फिल्म चले, फायनांसर बनाने के लिए पैसा दे दें। इस फिल्म में मणिरत्नम उन सितारों को नहीं ले पाए, जो कहानी के मुताबिक अभिनय भी कर सकें।