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Written By BBC Hindi
Last Updated : बुधवार, 9 जुलाई 2014 (19:40 IST)

हिंदू पक्ष के दावेदार: महंत भास्कर दास

- रामदत्त त्रिपाठी (लखनऊ से)

हिंदू पक्ष के दावेदार: महंत भास्कर दास -
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माथे पर तिलक और गले में तुलसी की माल। 82 वर्ष की उम्र में भी उनके चेहरे पर तेज है। उमस भरी गर्मी से निजात पाने के लिए खुले मैदान में केवल धोती पहने उघारे बदन चारपाई पर बैठे हैं। ये हैं राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद में हिंदुओं की तरफ से मुख्य दावेदार पंचायती संस्था निर्मोही अखाड़ा के सरपंच महंत भास्कर दास।

भास्कर दास सनातन वैष्णव राम भक्त हैं। तिलक और माला उनकी पहचान है। भास्कर दास का स्वास्थ्य अब पहले जैसा नहीं है। उन्हें अब चलने-फिरने में शिष्य राम दास का सहारा लेना पड़ता है। वो 1946 में 18 साल की उम्र में गोरखपुर से अयोध्या आए थे संस्कृत पढ़ने और फिर जीवन भर यहीं रामकाज के होकर रह गए।

वो कहते हैं, 'हम यहाँ पढ़ने की दृष्टि से आए। हमारे गुरु महाराज के पास जन्मभूमि पर पूजा अर्चना का जिम्मा था और उनके द्वारा हम नियुक्त किए गए पूजा-पाठ देखने के लिए।'

भास्कर दास के जिम्मे काम था- 'विवादित बाबरी मस्जिद परिसर में स्थापित राम चबूतरे पर पूजा पाठ करना। भगवान को भोग लगाना और भक्तों को प्रसाद बाँटना।' जब से राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद कानूनी विवाद का वर्तमान अध्याय शुरू हुआ, तब से भास्कर दास घटनाओं के चश्मदीद गवाह हैं।

पुलिस की रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट ने विवादित परिसर को कुर्क करके तब तक रिसीवर बैठा दिया, जब तक कि सिविल कोर्ट किसी के पक्ष में मालिकाना हक का फैसला न कर दे।

इस तरह भास्कर दास राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद मामले से वर्ष 1949 से जुड़े हैं। वर्ष 1950 में वो विवादित मस्जिद के बगल में स्थित कब्रिस्तान के झगड़े में जेल भी गए। भास्कर दास का दावा था कि ये कब्रें नहीं बल्कि हिंदू संतों की समाधियाँ हैं।

वर्ष 1959 में जब निर्मोही अखाड़ा की तरफ से विवादित स्थल वापस लेने का सिविल दावा कोर्ट में दायर हुआ, तब से वह इस बात की कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं कि अदालत विवादित परिसर का बंदोबस्त रिसीवर से वापस लेकर निर्मोही अखाड़ा को सौंपा जाए।

भास्कर दास 20 वर्षों यानी सन 1966 तक राम चबूतरे के पुजारी रहे। फिर उनकी नियुक्ति बगल के मंदिर जन्म स्थान में हो गई। वर्ष 1986 तक भास्कर दास यहाँ रहे जबकि अदालत के आदेश से विवादित परिसर का ताला खुला।

इसके बाद भास्कर दास फैजाबाद नाका में हनुमान गढ़ी मंदिर के महंत बने, तब से वो वहीं रह रहे हैं। दरअसल भास्कर दास राम मंदिर मामले में निर्मोही अखाड़ा की लंबी विरासत संभाल रहे हैं।

निर्मोही अखाड़े का कब्जा : माना जाता है कि सनातन हिंदू धर्म की व्यवस्था में निर्मोही अखाड़ा ही राम जन्मस्थान की देखभाल के लिए जिम्मेदार है। निर्मोही अखाड़े के महंत रघुबर दास ने 1885 में राम चबूतरे पर मंदिर निर्माण की अनुमति के लिए मुकदमा किया था।

निर्मोही अखाड़े का दावा जरूर खारिज हो गया, लेकिन राम चबूतरे पर उसका कब्जा और पूजा बरकरार रही। हिंदुओं की ओर से निर्मोही अखाड़ा ही अपने को विवादित स्थान का असली अधिकारी मानता है और इसीलिए उसने विश्व हिंदू परिषद को कभी इस स्थान के मालिकाना हक या प्रबंधक की मान्यता नहीं दी।

भास्कर दास को अफसोस है कि छह दिसंबर को विवादित मस्जिद की इमारत के साथ ही राम चबूतरा और अगल-बगल के कई दूसरे मंदिर भी तोड़ डाले गए।

भास्कर दास का दावा है कि विवादित स्थान हमेशा से मंदिर था और मुस्लिम समुदाय 1934 के दंगे के बाद से नमाज पढ़ने नहीं आया। भास्कर दास ने 17 दिन तक अदालत में गवाही दी और वकीलों की जिरह के जवाब दिए।

वो कहते हैं, 'साठ वर्ष की लड़ाई में जहाँ तक हो सका, परिश्रम किया गया और सबूत भी हमें अच्छे मिले हैं। खुदाई में सबूत मिले हैं मंदिर के जो सबूत अदालत को दिए गए।'

उनका कहना है, 'मन में यही भाव है कि भगवान सफल बनाएँ। भव्य मंदिर बने। यही प्रार्थना है भगवान से।'

फैसले के लिए तैयार : मगर वो अदालत के हर फैसले के लिए तैयार हैं। अगर जीत जाएँगे तो अखाड़े की पंचायत बैठेगी कि आगे मंदिर कैसे बनाया जाए। फिर भी भास्कर दास इस बात के लिए तैयार हैं कि हाईकोर्ट में सफलता नहीं मिली तो सुप्रीम कोर्ट में अपील की तैयारी करेंगे।

उनके प्रतिद्वंदी हिंदू बहुल अयोध्या में रहते हैं तो महंत भास्कर दास मुस्लिम बहुल फैजाबाद स्थित हनुमान गढ़ी मंदिर परिसर में। मगर फैसला आने पर यहाँ उन्हें किसी बवाल की आशंका नहीं है।

वो कहते हैं, 'हमारे लोगों का पहले जैसा संबंध है। कोई तनाव नहीं, मुकदमा अपनी जगह है, भाईचारा अपनी जगह है।' भास्कर दास कहते हैं, 'हमारे संबंध हाशिम अंसारी से भी अच्छे हैं। साथ आना-जाना, बैठना-उठना होता था, कोई परेशानी नहीं।'

भास्कर दास के शिष्य राम दास इस बात को बल देकर कहते हैं कि निर्मोही अखाड़े ने राम मंदिर के नाम पर चंदा नहीं वसूला और अखाड़े के संसाधनों से ही पूरा मुकदमा लड़ा।

वो ये भी कहते हैं कि भास्कर दास और निर्मोही अखाड़े ने कभी इस मामले का राजनीतिकरण नहीं होने दिया। कभी किसी दल से नहीं जुड़े। संविधान और कानून के दायरे में रहते हुए अपनी लड़ाई लड़ी। जहाँ भी सुलह समझौते की बात हुई उसमे शामिल हुए। मगर 'अपने मुद्दे पर डटे रहे।'