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Written By BBC Hindi
Last Modified: सोमवार, 24 फ़रवरी 2014 (18:56 IST)

अरबों डॉलर भेजने वालों की लाशों पर 'भारत में खामोशी'

- शकील अख्तर (दिल्ली)

अरबों डॉलर भेजने वालों की लाशों पर ''भारत में खामोशी'' -
खाड़ी देशों में काम करने वाले लोगों को कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर तो अक्सर अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं।
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लेकिन दक्षिण एशियाई देशों की हालत खुद इतनी खराब रही कि रोजी-रोटी की मजबूरी में इन देशों के लाखों मजदूर, कारीगर और शिक्षित लोग अरब देशों में हर तरह की कठिनाइयों और बंदिशों का सामना करने के बावजूद वहां काम करते रहे हैं।

भारत के लाखों नागरिक सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ओमान और कतर में वर्षों से अपने हुनर और अपनी मेहनत से इन देशों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यूं तो भारतीय दुनिया के लगभग सभी देशों में फैले हैं। विदेशों में बसे और काम करने वाले भारतीयों की संख्या इस समय तकरीबन ढाई करोड़ है।

पिछले तीन वर्षों में विदेशों में बसे इन भारतीयों ने अपनी मेहनत और परिश्रम की कमाई से लगभग 190 अरब डॉलर की रकम भारत भेजी है। इसमें से 80 अरब डॉलर केवल खाड़ी देशों से आया। यह उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष बाहर काम करने वाले भारतीयों की तरफ से भेजी जाने वाली रकम 75 अरब डॉलर पार कर जाएगी।

इसमें सबसे बड़ा हिस्सा उन भारतीय निवासियों का होगा जो अरब देशों में काम कर रहे हैं। पिछले दिनों ब्रिटेन के अखबार 'द गार्डियन' ने यह खबर प्रकाशित की थी कि जनवरी 2012 से कतर के निर्माण क्षेत्र में काम कर रहे भारत के 500 से अधिक मजदूर मारे गए हैं।

मौत की वजह : इस साल जनवरी में 24 मजदूर मौत का शिकार हो चुके हैं। कतर की सरकार और कंपनियों खामोश हैं। भारत के विदेश मंत्रालय का कहना है कि पिछले चार साल में जो एक हजार मौतें हुई हैं, इसमें कोई असामान्य बात नहीं है और ज्यादातर मौतें स्वाभाविक कारणों से हुई हैं।

मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंनटरनेशनल ने भारत सरकार से ज़ोर देकर कहा है कि वो इन मौतों को स्वाभाविक मौत करार देने की बजाय यह जानकारी मुहैया कराए कि ये मौतें काम करने के स्थान पर हुई हैं या लेबर कैंप में अमानवीय परिस्थितियों के कारण, सड़क हादसों में या फिर प्राकृतिक कारणों से हुईं है।
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भारतीय नागरिकों के साथ साथ कतर में साल 2013 में 185 नेपाली नागरिक भी मारे गए थे। उनकी मौत के कारणों की पड़ताल से पता चला है कि उनमें से दो तिहाई श्रमिक अचानक हार्ट अटैक या काम के स्थान पर मारे गए।

नेपाली नागरिकों की मौत की खबर सामने आने के बाद कतर की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़ी आलोचना हुई थी और इस पर जोर दिया गया था कि वे श्रम कानूनों के अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करें और काम करने की स्थिति मानवीय बनाएं।

कतर में साल 2022 के फुटबॉल विश्वकप के लिए बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य चल रहा है। कतर की कंपनियां इन मजदूरों को सीधे भर्ती करने की बजाय अलग-अलग एजेंसियों के माध्यम से उनकी भर्ती करती हैं। किसी दुर्घटना की स्थिति में कतर की ये कंपनियां हर तरह की जिम्मेदारी से बची रहती हैं।

कतर की सरकार : अकसर भर्ती करने वाली कंपनियां इसे प्राकृतिक मौत बताकर किसी मुआवजे के बगैर इनकी लाशों को उनके परिवारजनों को सौंप देती हैं।

गम के माहौल में लाश सौंपने से पहले एक 'नो-ऑब्जेक्शन सर्टीफिकेट' भी परिवारजनों से लिया जाता है ताकि वह कानूनी कार्रवाई न कर सकें। पिछले चार साल से कतर की सरकार हर महीने औसतन बीस लाशें भारत भेज रही हैं।

उन्हें कुदरती मौत का प्रमाणपत्र देने वाली भारत सरकार ने पिछले पांच सालों में शायद ही कभी किसी मामले में कतर की सरकार से जवाब-तलब किया हो।

प्रभावित लोग कहते हैं कि समझ में नहीं आता कि भारतीय दूतावास भारतीयों की मदद के लिए है या कतर की सरकार की हां में हां मिलाने के लिए है।

कतर से हर महीने बीस लाश भारत आते रहने के बावजूद ये सवाल न कभी संसद में उठा और न कभी ये खबर भारतीय अखबारों में छपी और न कभी टीवी चैनलों पर इसका कोई जिक्र तक हुआ।

पिछले दिनों जब एक भारतीय राजनयिक को अपनी नौकरानी को निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के आधे वेतन देने और वीजा फॉर्म में गलत जानकारी देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था तो भारत के टीवी चैनलों पर पंद्रह दिनों तक इस खबर पर बहस होती रही लेकिन एक हजार मजदूरों की मौत पर पूरा भारत खामोश है।